धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।
एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।
खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"
उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।