Saturday, March 2, 2019

लघुकथा: असंतुष्ट

दबे-कुचले, दलितों में भी अति-दलित वर्ग के उत्थान के सभी प्रयास असफल होते गये। शिक्षा में सहूलियतें दी गईं तो ग़रीबी के कारण वे उनका पूरा लाभ न उठा सके। फिर आरक्षण दिया गया तो बाहुबली ज़मींदारों ने लट्ठ से उसे झटक लिया। व्यवसाय के लिये ऋण दिये तो भी कहीं अनुभव की कमी, कहीं ठिकाने की -  कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि अति-दलित वर्ग समाज के सबसे निचले पायदान पर ही रहा। अन्य सभी जातियाँ, मज़हब, और वर्ग उनके व्यवसाय को हीन समझते रहे।

मेरा शिक्षित और सम्पन्न, लेकिन असंतुष्ट मित्र फत्तू अति-दलितों की चिंता जताकर हर समय सरकार की शिकायत करता था। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि सरकार बदल गयी। नया प्रशासक बड़े क्रांतिकारी विचारों वाला था। उसने बहुत से नये-नये काम किये। यूँ कहें कि सबको हिला डाला। 

पहले वाले प्रशासक तो हवाई जहाज़ से नीचे कदम ही नहीं रखते थे। इस प्रशासक ने अति-दलित वर्ग के कर्मियों के साथ जाकर नगर के मार्गों पर झाड़ू लगाई, साफ़-सफ़ाई की।

मेरा असंतुष्ट मित्र फ़त्तू बोला, “पब्लिसिटी है, अखबार में फ़ोटो छपाने को किया है। झाड़ू लगाने में क्या है? अरे, उनके चरण पखारे तब मानूँ ...”

इत्तेफाक़ ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद प्रशासक ने सफ़ाईकर्मियों के मुहल्ले में जाकर उनके चरण भी धो डाले। 

मैंने कहा, “फ़त्तू, अब तो तेरे मन की हो गई। अब खुश?”

फतू मुँह बिसूरकर बोला, “पैर धोने में क्या है, उनका चरणामृत पीता, तो मानता।”

सभी दोस्त हँसने लगे। मैंने कहा, "फत्तू, तू भी न, कमाल है।" 


Monday, January 28, 2019

बलिहारी गुरु आपने …

(अनुराग शर्मा)


लल्लू: मालिक, जे इत्ते उमरदार लोग आपके पास लिखना-पढ़ना सीखने क्यों आते हैं?

साहब: गधे हैं इसलिये आते हैं। सोचते हैं कि लिखना सीखकर कवि-शायर बन जायेंगे और मुशायरे लूट लाया करेंगे।

लल्लू: मुशायरों में तो बहुत भीड़ होती है, लूटमार करेंगे तो लोग पीट-पीट के मार न डालेंगे?

साहब: अरे लल्लू, तू भी न... बस्स! अरे वह लूट नहीं, लूट का मतलब है बढ़िया शेर सुनाकर वाहवाही लूट लेना।

लल्लू: तो उन्हें पहले से लिखना नहीं आता है क्या?

साहब: न, बिल्कुल नहीं आता। अव्वल दर्ज़े के धामड़ हैं, सब के सब।

लल्लू: लेकिन मालिक... आप तौ उनकी बात सुनकर वाह-वाह, जय हो, गज्जब, सुभानल्ला ऐसे कहते हैं जैसे उन्हें बहुत अच्छा लिखना पहले से आता हो।

साहब: तारीफ़ करता हूँ, तभी तो ये प्यादे मुझे गुरु मानते हैं। लिखना सिखा दूंगा तो मुझ से ही सीखकर मुझे ही सिखाने लगेंगे, बुद्धू।


[समाप्त]

Friday, January 11, 2019

दोस्त - द्विपदी

- अनुराग शर्मा


अपने नसीब में नहीं क्यों दोस्ती का नूर।
मिलते नहीं क्यों रहते हो इतने दूर-दूर॥

समझा था मुझे कोई न पहचान सकेगा।
यह होता कैसे दोस्त मेरे हैं बड़े मशहूर

सोचा था मुलाक़ात होगी दोस्तों के साथ।
मसरूफ़ रहे वर्ना मिलने आते वे ज़रूर॥

हम चाहते थे चार पल दोस्तों के साथ।
वह भी न हुआ दोस्त मेरे हो गये मगरूर॥

सोचा था बचपने के फिर साथी मिलेंगे।
ये हो न सका दोस्त मेरे हैं खट्टे अंगूर॥

दो पल न बिताये न जिलायी पुरानी याद।
तिनका था मैं,  दोस्त मेरे थे सभी खजूर॥