"मैं बहुत अकेला हो गया हूँ। तुम्हारी माँ तो मेरा मुँह देखना भी पसंद नहीं करती। तुम भी कितने अरसे बाद आये हो बेटा। अब मुझे बहुत डर लगता है। … देखो, हमारे घर के सब कमरे ग़ायब हो गये हैं, बस यह एक बैडरूम बचा है, यह भी कितना सिकुड़ गया है।"
पिता एक साँस में जाने कितना कुछ कह गए थे। उनकी बातें सुनकर राज का दिल रो उठा था। माँ कब की जा चुकी थीं। पिता भी घर में नहीं, वृद्धाश्रम में थे। भूलने की बीमारी धीरे-धीरे उनकी याद्दाश्त खा रही थी। सदा सक्षम और योग्य रहे पिता को इस हाल में देखना राज के लिये कठिन था। घर ही नहीं, बाहर के संसार में भी पिता सराहे जाते थे। वे अपने विषय के विशेषज्ञ तो रहे ही थे, दुनिया भर के लोग व्यक्तिगत सलाह के लिये भी उनके पास आते थे। राज खुद भी अपनी हर चिंता, हर भय को पिता के हवाले करके निश्चिंत हो जाता था।
भीगी आँखों से कुछ कहने के बजाय वह पिता के गले लग गया। पिता के कंधे पर अपना सिर रखे-रखे ही उसे पिता की हँसी सुनाई दी। उसने मुस्कुराकर पूछा, "क्या याद आ गया पापा?"
"याद है, जब तू छोटा सा था, एक दिन आकर मुझसे लिपट गया। बिल्कुल आज के जैसे ही भीगी आँखों के साथ। पता है तूने क्या कहा था?"
"बताइये न पापा!" दोनों आमने-सामने खड़े थे और राज एक बार फिर अपने बचपन का वह किस्सा किसी बच्चे की तरह ध्यान से सुन रहा था। पिता उसे यह किस्सा पहले भी सैकड़ों बार सुना चुके थे। वह छह-सात साल का रहा होगा जब एक दिन पिता से लिपटकर माफ़ी मांगते हुए कहने लगा, "सॉरी पापा, टीनएजर होने के बाद अगर ग़लती से मैं कभी आपसे बदतमीज़ी करूँ, तो उसके लिये अभी से सॉरी बोल रहा हूँ!"
राज ने किसी टीवी सीरीज़ में कुछ नकचढ़े टीनएजर्स को अपने माता-पिता का अपमान करते हुए देखा था और समझा कि किशोरावस्था में सब बच्चे प्राकृतिक रूप से ही ऐसे हो जाते हैं।
"सॉरी बेटा।" किस्सा पूरा करके पिता राज से लिपटकर माफ़ी मांगते हुए रोने लगे।
"पापा, अब आप क्यों रो रहे हैं? मैंने तो माफ़ी मांग ली थी न।"
"मैं अब भूलने लगा हूँ बेटा। थोड़ा और बुढ़ा जाऊँगा तो शायद तुझे भी भूल जाऊँगा। इसलिये माफ़ी माँगना चाहता हूँ क्योंकि तब शायद यह भी भूल जाऊँ कि माफ़ी क्या होती है। सॉरी!"