Saturday, July 30, 2011

बी. एल. “नास्तिक”

कहानी: अनुराग शर्मा
चित्र: रवि मिश्र द्वारा
आज बीस साल के बाद दिखा था बौड़मलाल। वह भी वृन्दावन में। बिल्कुल पहले जैसा ही, गोरा, गोल-मटोल। सिर पर घने बालों की जगह चमकते चांद ने ले ली थी, शेष अधिक नहीं बदला था। पहले की तरह ही धूप का चश्मा, लाल टीका। हाँ हाथ में कलावे के साथ सोने की घडी भी विराज रही थी और चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ। गले में सोने की मोटी सी लड़ और उंगलियों में आठ अंगूठियाँ।

स्कूल में मेरे साथ ही पढता था बौड़मलाल। उसे देखते ही कोई भी पहचान सकता था कि धर्मकर्म में उनका कितना विश्वास था। माथे पर टीका और अक्षत और कलाई में कलावा उनकी पहचान थी। जब दोस्तों के बीच गाली-गलौच न कर रहा हो तब धर्म-कर्म की कहानियाँ भी सुनाने लगता था। वैसे तो उसकी भक्ति  बारहमासी थी लेकिन परीक्षा से पहले उसमें विशेष बहार आ जाती थी।

पढने लिखने से ज़्यादा ज़ोर मन्दिर जाने पर होता। यह भगवान की कृपा ही थी कि हर साल उसकी वैतरणी पार हो ही जाती थी। उस साल भी परीक्षा हो चुकी थी। परिणाम बस आया ही था। हम लोग पिताजी का तबादला हो जाने के कारण नगर छोडकर जा रहे थे। जाने से पहले मैं सभी साथियों से मिलना चाहता था। बौड़मलाल के घर भी गया। उसे देखकर आश्चर्य हुआ। न भस्म न चन्दन, न गंडा न तावीज़। मेरी “राम-राम” के जवाब में अपनी चिर-परिचित “जय श्रीराम” की जगह जब उसने “@#$% है भगवान” कहा तो मेरा माथा ठनका। दो मिनट में ही बात खुल गयी कि इस नटखट भगवान ने इस बार पहली बार उसके साथ छल कर डाला। पाँच दस मिनट तक उसकी भड़ास सुनने के बाद मैं चल दिया।

नये नगर में मन अच्छी तरह लग गया। पिछ्ले स्कूल के मित्रों से पत्र-व्यवहार चलता रहा। बौड़मलाल की खबर भी मिलती रही। पता लगा कि जब भगवान ने उसे मनमाफ़िक फल नहीं दिया तबसे ही वह ईश्वर के खिलाफ धरने पर बैठा है। परमेश्वर-खुदा-भगवान से खफ़ा होकर वह नास्तिक ही नहीं बल्कि धर्म-द्रोही हो गया है। डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था। लेकिन यह सब घर के अन्दर पर्दे के पीछे की मजबूरी थी। घर के बाहर मज़ाल थी कि कोई उसके सामने भगवान का नाम ले ले। बौड़मलाल हुज्जत कर-कर के उस व्यक्ति की नाक में दम कर देता था।

कॉलेज पहुँचने पर उसकी प्रतिष्ठा एक गुमनाम राष्ट्रीय पार्टी “मुर्दाबाद” तक पहुँची और उसे छात्र संघ के चुनाव का टिकट भी मिल गया। बौड़मलाल का नया नामकरण हुआ बी. एल. “नास्तिक”। वह बड़ा वक्ता बना, हर विषय का विशेषज्ञ। “मुर्दाबाद” पार्टी ने उसकी कई किताबें प्रकाशित कराईं। कालांतर में वह पार्टी के साप्ताहिक पत्र “भाड़ में झोंक दो” का प्रबन्ध सम्पादक भी रहा।

समय के साथ मैं भी नौकरी में लग गया और बाकी मित्र भी। पता लगा कि कई साल कॉलेज में लगाने के बाद भी बौड़मलाल बिना डिग्री के बाहर आ गया। हाँ इतना ज़रूर हुआ कि उसकी पार्टी ने उसे अपनी केन्द्रीय कार्यकारिणी में ले लिया। फिर सब मित्र अपने-अपने परिवार में मगन हो गये और लम्बे समय तक न उनकी कोई खबर मिली न ही बौड़मलाल की।

आज उसे यहाँ देखकर मुझे उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना उसके लाल टीके और कलावे को देखकर। पूछा तो बौड़मलाल एक गहरी सांस लेकर बोला, “अब तुमसे क्या छिपाना ... पहले वाली बात अब कहाँ?”

“क्यों? अब क्या हुआ?” मैने आश्चर्य से पूछा।

“सोवियत संघ टूटा तो पैसा आना बन्द हो गया ...” फिर कुछ देर रुककर अपनी सुनहरी घड़ी को देखता हुआ बोला, “अब चीन पर इतना दवाब है कि हथियार आने भी बन्द हो गये हैं।”

“मगर तुम्हें पैसे से क्या? तुम्हारी पार्टी तो गरीबों, मज़दूर-किसानों की है।”

“अरे वह भी कब तक हमारे लिये जान देते। उन्हें तो अब ज़मीन का एकमुश्त इतना हर्ज़ाना मिल जाता है जितना मेरे स्तर के नेता साल भर में नहीं जमा कर पाते थे। बिक गये &*$# सब के सब।”

“फिर? तुम्हारा क्या होगा?”

“दो-तीन साल से तो मैं मन्दिरवाद पार्टी में हूँ, सेठों का बड़ा पैसा है उनके पास। एक तो धार्मिक, ऊपर से अहिंसक, खून-खराबा तो क्या लाल रंग से भी बचते हैं। मुर्दाबाद पार्टी में तो हर तरफ़ खूनम-खून, लालम-लाल। हमेशा तलवार लटकी रहती थी। इधर कोई आका नाराज़ हुआ, उधर सर क़लम।”

“तो अब यहीं रहने का इरादा है क्या?”

“अरे नहीं, धर्म की दुकान देसी है। बहुत दिन नहीं चलेगी, बाहर से बहुत पैसा आ रहा है ...”

मैंने उस पर एक प्रश्नात्मक दृष्टि डाली तो धूर्तता से मुस्कराते हुए बोला, “खबर है कि सद्दाम और ओसामा एक डॉन के साथ मिलकर बहुत सा पैसा एक नई पार्टी में लगा रहे हैं।”

“तुम्हें क्यों लेंगे वे?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“क्यों नहीं लेंगे?” उसने बेफ़िक्री से एक तरफ़ थूकते हुए एक कागज़ मेरी ओर बढ़ाया, “ये देखो।”

मैंने देखा तो वह एक हलफ़नामा था जिसमें बी. राम “आस्तिक” अपना नाम बदलकर बी. ग़ाज़ी “नियाज़ी” कर रहा था।

“क्या इतना काफ़ी है?” मैंने पूछा।

“मुझे पता है क्या करना काफ़ी है और वो मैंने करा भी लिया है।”

[समाप्त]

36 comments:

  1. अनुराग भाई बहुत सुन्दर और रोचक लेख लिखा है आपने.धाराप्रवाह रूप में एक साँस में पढ़ गया.
    पहले तो लगा बौडम लाल नाम के किसी दोस्त के बारे में सच्ची कहानी लिख रहे हैं आप.परुन्तु पढकर पता चला कि 'लुडकने लोटे'जैसे एक वर्ग विशेष कि ही सच्चाई खोल कर रख दी है आपने.
    शानदार व्यंगात्मक प्रस्तुति के लिए आभार.
    आप मेरे ब्लॉग पर आते हैं तो बहुत खुशी मिलती हैं.
    आपका बेसब्री से इंतजार है.

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  2. गजब की कहानी है , इसको हिन्दी युग्म पर सुनने की इच्छा है :)

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  3. सुना देंगे भाई, शुक्रिया!

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  4. बहुत ही रोचक, भगवान के विरुद्ध धरने पर बैठने का विचार बुरा नहीं है, शिकायतें तो हमको भी बहुत हैं।

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  5. ..बस पेशे से वह वकील न हो सका -यही बात खटकती है -बाकी तो कहानी विचार -आधारित है ! रोचक !

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  6. अच्छा रंग तो बदल लेता है बी.एल. , फिर काहे मां बाप ने इसका नाम बौड़म रख दिया था...

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  7. बड़िया व्यंग्य ।
    चित भी मेरी, पट भी मेरी- भारतीय राजनीति का सफल फार्मूला है।

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  8. :) रोचक ढंग से कहा सच.... बेहतरीन कहानी .

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  9. बहुत दिनों बाद एक अच्छा व्यंग्य पढ़ा, और नाम बदलने के इतने फ़ायदे वाह, वैसे लुढ़कन लोटेलालों के ही दिन हैं आजकल ।

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  10. अगला नाम गिरगिट ही रख लें -


    एनीमल वेलफेअर और एनवाइरनमेंटल प्रोटेक्शन वाले ग्रुप्स भी अब काफी स्ट्रोंग हो चले हैं :)

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  11. शानदार...........

    नियाज़ी - हाँ गर हिन्दुस्तान में राजनीति करनी है तो ये नाम उचित रहेगा.
    नाम के नाम और गुठलियों (गुंडागर्दी) के दाम ...... :)

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  12. बुद्धि भी अलग अलग तरह की होती है, किसी के पास पढ़ने लिखने की, तो किसी के पास जीवन में आगे बढ़ने की :)

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  13. बौडामलाल ...वाह उन्हें किसी का मलाल नहीं , बस समय का हलाल कर दिया ! आप ने इस कहानी में माध्यम से वह सब कुछ सामने रख दिए जो हम सभी जानते है !सुन्दर प्रस्तुति !

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  14. हा हा हा सही लपेटा है आपने बौड़म लाल से गाजी नियाजी का सफ़र बढ़िया रहा

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  15. रोचक आलेख....बहुत सशक्त प्रस्तुति।

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  16. आपके यह मित्र यकीनन सफल होंगे ...शुभकामनायें देश को !

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  17. एक शख्स डुगडुगी बजाकर देश में यह एलान करता फिर रहा है... गिरगिट को शिकस्त देने में लगा है!! करारा व्यंग्य.. आपके तेवर के मुआफिक!! मज़ा आ गया!!

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  18. उसका सनकीपन,या वह्सीपन या कुछ नया करने का उन्माद ....... रहस्यात्मकता समेटे कथ्य सुन्दर है , प्रेरक दृष्टान्त रोचक है ....../ शुक्रिया जी /

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  19. वाह!
    बहुत सुन्दर पोस्ट!
    --
    पूरे 36 घंटे बाद नेट पर आया हूँ!
    धीरे-धीरे सबके यहाँ पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ!

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  20. बढ़िया मजा आ गया.... वाह री दुनिया....

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  21. सत्यपरक व्यंग्य!!
    बौडम लाल भले बेपैंदे का लोटा हो, पर आपके सामने उसके मुँह से सच्चाई निकल ही जाती है।

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  22. बहुत ही तेज़ धार है!

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  23. हमारा राजनीतिक समाज ऐसे ही बौड़मलालों से भरा पड़ा है। इन्हें सत्ता की कुर्सी सौंपकर सबसे बड़े बौड़म तो हम मतदाता ही साबित हो रहे हैं।

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  24. जानदार व्यंग. आभार.

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  25. कहानी के बीच में मैं सुझाने वाला था कि बन्दे को गियासुद्दीन बन जाना चाहिये तेल का पैसा पाने को! और पोस्ट पूरी पढ़ते पढ़ते वही हुआ!

    जय अवसरवाद महराज की! :D

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  26. jai ho......

    ye desh hai baudamlalon ka.....
    bas kale, kale kalon ka....
    is desh ka yaron kya kahna.....

    wah bhai ji...mazaa aa gaya...

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  27. नेतागिरी में यूँ ही पल-पल रंग बदलने पड़ते हैं.....
    बढ़िया कहानी

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  28. इन्‍हीं का जमाना है। आपको-हमको, इनके ही किस्‍से सुनना-सुनाना है।

    जय हो।

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  29. प्रभावित कर रही है कहानी . बढ़िया है .

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  30. वाह,बौड़म के बहाने कित्तों की जनम-पत्री बाँच दी आपने !

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  31. अनु्राग भाई, इनके लिए एक कहावत कही जाती है, "जि्धर बम, उधर हम", तरक्की पसंद लोग जिधर ताकत और सुविधा दिखाई देती है,उधर चले जाते हैं।

    आभार

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  32. इस देश में ऐसे कई बौड़म लाल मिलेंगे जो I S I से भी मिलीभगत रखते हैं.

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  33. इतनी रोचक कहानी कैसे छूट गयी मुझसे ...
    धज्जियाँ उड़ाना इसे कहते हैं , समझाए कोई लोगों को !

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  34. क्या बात है ! शानदार ... बहुत जोर का झटका है...

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