कथा तुमने लिखी अपनी मगर किस्सा हमारा था
किताबों पर नहीं दिल में भी मेरे घर तुम्हारा था।
हमारी बात सुनने का कभी न वक्त तुम पर था
सदायें लौटकर आईं तुम्हें जब जब पुकारा था।
आज़ादी तुमने मांगी थी सदा तुमको मिली भी थी
मगर मुझको मिले मुक्ति, नहीं तुमको गवारा था।
हमारा घर बचा रहता जो संग-संग तुम चले होते
जब भी तुमने तोड़ा घर तो मैंने फिर सँवारा था।
भित्तियाँ ढह गईं सारी धरातल भी हुआ अस्थिर
उड़ा जब तिनकों में छप्पर बड़ा बेढब नज़ारा था॥
बहुत ही गहन वेदनात्मक रचना, शुब हकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
मार्मिक
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें
Awesome ....
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