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Sunday, August 2, 2009

यह बच्चा कैसा बच्चा है

आज तो हम को पागल कह लो पत्थर फेंको तंज़ करो
इश्क़ की बाज़ी खेल नहीं है खेलोगे तो हारोगे (इब्ने इंशा)

वैसे तो अब तक दुनिया में इतने कवि हुए हैं की हम सब अपने-अपने प्रिय कवि आपस में बाँट लें तो भी शायद कोई कवि दोहराया न जाय। मगर इनमें से भी कुछ ऐसे हैं जो औरों से बहुत अलग हैं। मुझे तो नए पुराने बहुत से कवि और गीतकार पसंद हैं। बहुत ज़्यादा पढने का दावा तो नहीं कर सकता हूँ, लेकिन जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा सुना है वह भी अच्छे लेखन को समझने के लिए बहुत है। इब्ने-इंशा की यह कविता मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक हैं। आपने शायद पहले भी पढी हो फ़िर भी भावनाएं बांटने के लोभ से बच नहीं सका। ।
सीधे मन को आन दबोचे, मीठी बातें सुन्दर लोग
मीर नज़ीर कबीर औ' इंशा सब का एक घराना हो
यह बच्चा काला-काला सा
यह काला सा मटियाला सा
यह बच्चा भूखा-भूखा सा
यह बच्चा सूखा-सूखा सा
यह बच्चा किसका बच्चा है

जो रेत पे तन्हा बैठा है
न उसके पेट में रोटी है
न उसके तन पर कपड़ा है
ना उसके सिर पर टोपी है
ना उसके पैर में जूता है
ना उसके पास खिलौना है
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना उसका जी बहलाने को
कोई लोरी है कोई झूला है
न उसकी जेब में धेला है
ना उसके हाथ में पैसा है
ना उसके अम्मी-अब्बू हैं
ना उसकी आपा-खाला है
यह सारे जग में तन्हा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है

यह सहरा कैसा सहरा है
न इस सहरा में बादल है
न इस सहरा में बरखा है
न इस सहरा में बोली है
न इस सहरा में खोशा है
न इस सहरा में सब्जा है
न इस सहरा में साया है
यह सहरा भूख का सहरा है
यह सहरा मौत का साया है

यह बच्चा कैसे बैठा है
यह बच्चा कब से बैठा है
यह बच्चा क्या कुछ पूछता है
यह बच्चा क्या कुछ कहता है

यह दुनिया कैसी दुनिया है
यह दुनिया किस की दुनिया है
इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्जा है
कहीं बादल घिर-घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊँचे महल अटारियाँ है
कहीं महफ़िल है कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाजार सजे
यह रेशम है यह दीबा है

यहीं गल्ले के अम्बार लगे
सब गेहूँ धान मुहय्या है
कहीं दौलत के संदूक भरे
हां तांबा सोना रूपया है
तुम जो मांगो सो हाजिर है
तुम जो चाहो सो मिलता है

इस भूख के दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सपना है
यह किस धरती के टुकड़े हैं
यह किस दुनिया का हिस्सा है

हम जिस आदम के बेटे हैं
यह उस आदम का बेटा है
यह आदम एक ही आदम है
यह गोरा है या काला है
यह धरती एक ही धरती है
यह दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बंदे हैं
सब बंदों का इक दाता है
कुछ पूरब-पच्छिम फर्क नहीं
इस धरती पर हक सबका है

यह तन्हा बच्चा बेचारा
यह बच्चा जो यहाँ बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूख मिटे
क्या मुश्किल है हो सकता है
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
हाँ दूध यहाँ बहुतेरा है
इस बच्चे का कोई तन ढाँके
क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा है
इस बच्चे को कोई गोद में ले
इंसान जो अब तक जिंदा है
फ़िर देखें कैसा बच्चा है
यह कितना प्यारा बच्चा है

इस जग में सब कुछ रब का है
जो रब का है वो सब का है
सब अपने हैं कोई गैर नहीं
हर चीज में सबका साझा है
जो बढ़ता है जो उगता है
यह दाना है या मेवा है
जो कपड़ा है जो कंबल है
जो चांदी है जो सोना है
वह सारा इस बच्चे का है
जो तेरा है जो मेरा है

यह बच्चा किसका बच्चा है
यह बच्चा सबका बच्चा है।

* संबन्धित कड़ियाँ *
इब्न ए इंशा के जन्मदिन पर

Saturday, November 29, 2008

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी


स्थिति बहुत दुखद है। सारे देश का आक्रोश फूटा पड़ रहा है। जिन निर्दोषों की जान गयी उनके बारे में तो कहना ही क्या, मगर बाकी घरों में भी गम का माहौल है। सैनकों ने जल्दबाजी करने के बजाय जिस धैर्य और गंभीरता से अपना सारा ध्यान ज़्यादा-से-ज़्यादा जानें बचाने पर रखा वह ध्यान देने योग्य बात रही है। आश्चर्य नहीं कि पंजाब से आतंकवाद का निर्मूलन करने वाले सुपरकॉप के पी एस गिल ने भी बचाव और प्रत्याक्रमण के धीमे परन्तु सजग और दृढ़ तरीके की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

जहाँ सारा देश स्थिति के आँकलन और आगे इस तरह की परिस्थिति से बचने के उपायों के बारे में सोच रहा है वहीं शर्म की बात यह है कि देश के कुछ उर्दू अखबार बुरी तरह से लगकर इस घटना में भी हिन्दू-मुसलमान ही ढूंढ रहे हैं। बी बी सी की एक रिपोर्ट के मुताबिक उर्दू अखबारों की ख़बरों के कई नमूने साफ़-साफ़ बता रहे हैं कि उर्दू पत्रकारिता में किस तरह के लोग घुसे हुए हैं। एक अखबार सवाल करता है, "भला कोई मुसलमान हेमंत करकरे को क्यों मारेगा?" जबकि दूसरा शक करता है, "कहीं यह मालेगांव की जांच से ध्यान हटाने की साजिश तो नहीं?" एक और अखबार ज़्यादा लिखता नहीं है मगर एक आतंकवादी का चित्र छापकर उसकी कलाई में लाल बंद जैसी चीज़ पर घेरा लगाकर दिखाता है। शायद उन सम्पादक जी को बम और हथियार नहीं दिख रहे हैं इसलिए खुर्दबीन लगाकर आतंकी के हाथ में कलावा ढूंढ रहे हैं। लानत है ऐसे लोगों पर जो इस संकट की घड़ी में भी सिर्फ़ यही खोजने पर लगे हैं कि झूठ कैसे बोला जाए और बार बार झूठ बोलकर जनता का ध्यान असली मुद्दों से कैसे भटकाया जाए।

आम जनता में डर भले ही न हो मगर इस बात की चिंता तो है ही कि जम्मू-कश्मीर को शेष भारत जैसा सुरक्षित बनाने के बजाय कहीं बाकी देश भी कश्मीर जैसा न हो जाय। यह भी इत्तेफाक की बात है जिस प्रधानमंत्री के कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर में क़ानून-व्यवस्था हाथ से फिसली और वहाँ आतंकवाद पनपा, उसकी मृत्यु भी उसी आतंकवाद की वजह से कोई बड़ी ख़बर न बन सकी।

चिंता स्वाभाविक तो है मगर मेरी नज़र में किसी भी भय का कारण नहीं है। भारत के हजारों साल के इतिहास में हम इससे भी कहीं अधिक भयानक समय से गुज़रे हैं लेकिन भारत के वीरों ने हर कठिन समय का डटकर मुकाबला किया है। कितने देश, संस्कृतियाँ मिट गयीं, कितनी नयी महाशक्तियाँ बनीं-मिटीं मगर हम थे, हैं और रहेंगे - एक महान संस्कृति, एक महान राष्ट्र। हर बुरे वक़्त के बाद हम पहले से बेहतर ही हुए हैं। मुझे इकबाल की कही हुई पंक्तियाँ याद आ रही हैं,

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे ज़मां हमारा।।

यह सच है कि राष्ट्र इस घटना के लिए तैयार नहीं था। निश्चित ही कई चूकें हुई हैं जो कि आतंकवादी विस्फोटकों का इतना ज़खीरा इकठ्ठा कर सके और मिलकर दस ठिकानों पर आक्रमण कर पाये। निरीह-निर्दोष जानें भी गयीं। मगर हमें पूरा भरोसा रखना चाहिए कि हम इस घटना से भी कुछ नया ही सीखेंगे और यह देश दोबारा ऐसा नहीं होने देगा।

जान देने वाले सभी वीरों को नमन! ईश्वर उनके परिवारों को इस कठिन समय को सहने की शक्ति दे!

आवाज़
पॉडकास्ट कवि सम्मेलन - नवम्बर २००८

Saturday, July 19, 2008

बाबाजी का भूत

करीम की आत्मा का ज़िक्र किया तो मुझे आत्मा का एक किस्सा याद आ गया। सोचा, आपके साथ बाँट लूँ।

स्कूल के दिनों में हमारे एक मित्र को आत्मा-परमात्मा आदि विषयों में काफी रुचि थी. इस बन्दे का नाम था... चलो छोड़ो भी, नाम में क्या रखा है? हम उसे बाबाजी कह कर बुलाते थे. यहाँ भी हम उसे बाबाजी ही पुकार सकते हैं. समूह के बाकी लोग भी कोई पूर्ण-नास्तिक नहीं थे. बाबाजी अक्सर कोई रोचक दास्तान लेकर आते थे. किस तरह उनके पड़ोसी ने पीपल के पेड़ से चुडैल को उतरते देखा. किस तरह भूतों के पाँव पीछे को मुड़े होते हैं. पिशाच पीछे पड़ जाए तो मुड़कर क्यों नहीं देखना चाहिए आदि किस्से हम सब बाबाजी से ही सुनते थे।

हम सब में बाबाजी सबसे समृद्ध थे. लखपति बनना हो या क्लास की सबसे सुंदर लडकी का दिल जीतना हो - बाबाजी के पास हर चीज़ का तंत्र था. मैं स्कूल में सबका चहेता था तो उनके तंत्र की वजह से. पुष्कर फर्स्ट आता था तो उनके तंत्र की वजह से. जौहरी साहब सस्पेंड हुए तो उनके तंत्र की वजह से. पांडे जी का हाथ टूटा तो उनके तंत्र की वजह से. कहने का अभिप्राय है कि हमारे स्कूल में उनके तंत्र की सहायता के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. और तो और, उनके पड़ोसी की गृह कलह भी उनके तंत्र की वजह से ही थी. अफ़सोस कि उनके पास बिना पढ़े पास होने का तंत्र नहीं था, बस।

उनके पास अपना निजी कमरा था जिसे हम बैठक कहते थे. और उससे भी ज़्यादा, उनके पास अपना टेप रिकार्डर था. अक्सर शाम को हम लोग उनके घर पर इकट्ठे होते थे. हम सब उनकी बैठक में बैठकर इधर उधर की तिकड़में किया करते थे. उनकी बैठक में बैठकर ही हमने अपने प्रिंसिपल का नाम ताऊजी रखा था जो हमारे स्कूल छोड़ने के बरसों बाद तक चलता रहा. उनके टेप रिकार्डर पर ही गज़लों से हमारा पहला परिचय हुआ. गुलाम अली और जगजीत सिंह तो मिले ही - अनूप जलोटा और पीनाज़ मसानी भी हम तक उनके टेप रिकार्डर द्वारा ही पहुँचे।

उस शाम को हम सब उनकी बैठक में इकट्ठे हुए तो वह हमें कुछ विशेष सुनाने वाले थे. हम सब उत्सुकता से देख रहे थे जब उन्होंने अपने काले थैले में से एक कैसेट निकाली. डरावने संगीत के साथ जब वह कैसेट चलनी शुरू हुई तो बाबाजी ने बताया कि वह एक भूत का इंटरव्यू था. काफी डरावना था. भूत ने हमें दूसरी दुनिया के बारे में बहुत सी जानकारी दी. उसने बताया कि शरीर के बिना रहना आसान नहीं होता है. चूंकि वह तीन सौ साल पहले मरा था इसलिए उसकी भाषा आज की बोलचाल की भाषा से थोड़ी अलग हटकर थी।

साक्षात्कारकर्ताओं के पूछने पर जब उसने अपनी मृत्यु का हाल बताना शुरू किया तो उसने उर्दू के आम शब्द इंतक़ाल का प्रयोग किया. इससे पहले मैंने इस शब्द को अनेकों बार सुना था मगर कभी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी थी. मगर इस भूत ने जब इस शब्द को तीन सौ साल पुराने अंदाज़ में अंत-काल कहा तो इंतक़ाल का भारतीय उद्गम एकदम स्पष्ट हो उठा. भूत के इंटरव्यू से रोमांच तो हम सभी को हुआ लेकिन मुझे और भी ज़्यादा खुशी हुई जब मैंने एक पुराने शब्द को एक बिल्कुल नए परिप्रेक्ष्य में देखा. अगले दिन जब मैंने अपने उर्दू गुरु जावेद मामू को इस नयी जानकारी के बारे में बताया तो वे भी उस भूत से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.