Monday, August 24, 2015

सोशल मीडिया पर मेरे प्रयोग

अंतर्जाल पर अपनी उपस्थिति के बारे में मैं आरंभ से ही बहुत सजग रहा हूँ। बरेली ब्लॉग और पिटरेडियो (Pitt Radio) के अरसे बाद 2008 में शुरू किए इस ब्लॉग "बर्ग वार्ता" पर भी स्मार्ट इंडियन (Smart Indian) के छद्मनाम से ही आया। उद्देश्य परिचय छिपाने का नहीं था बल्कि नाम की इश्तिहारी पर्चियाँ उड़ाने से बचने का था। जिसे अधिक जानकारी की इच्छा और आवश्यकता होती उससे कुछ छिपाने की ज़रूरत मैंने कभी महसूस नहीं की, लेकिन खबरों में रहने की कोई इच्छा भी कभी नहीं थी। कालांतर में विचार करने पर ऐसा लगा कि इस हिन्दी चिट्ठास्थल पर अपना नाम और परिचय सामने रखना ही मेरे पाठकों के हित में है।

व्यवहार से संकोची व्यक्ति हूँ। भीड़ जुटाने या खबरों में रहने का कभी शौक नहीं रहा। यत्र-तत्र तैरते-उतराते मठों और उनके महंतो से मेरा कोई लेना-देना नहीं था तो भी कुछ आशंकित मठाधीशों ने शायद मुझे विपक्षी मानकर जो दूरी बनाई वह मेरे जैसे रिजर्व प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए लाभप्रद ही सिद्ध हुई। किसी से जुड़ने, न जुड़ने के प्रति "तत्र को मोहः कः शोक: एकत्वमनुपश्यतः" वाली धारणा चलती रही लेकिन समय गुजरने के साथ एक से बढ़कर एक मित्र मिले और अपनी हैसियत से कहीं अधिक ही प्रेम मिला। बेशक, एकाध लोग मेरी स्पष्टवादिता से खफा भी हुए, लेकिन यह तय है कि वे लोग जिस प्रकार किसी को पहले शत्रु बनाकर, फिर उन्हें व्यूह में बुलाकर, घेरकर मारने में लगे थे, वैसा कोई काम मैंने न कभी किया, न ही उसे समर्थन दिया। कमजोर अस्थाई अवरोधों से बाधित हुए बिना मेरी हिन्दी ब्लॉगिंग लेखन, वाचन, पठन-पाठन के साथ निर्विघ्न चलती रही। इस ब्लॉग के अतिरिक्त सामूहिक ब्लॉगों में निरामिष और रेडियो प्लेबैक इंडिया (जो पहले हिंदयुग्म पर आवाज़ के नाम से चल रहा था) पर सर्वाधिक सक्रियता रही। हाल के दिनों में भारत मननशाला द्वारा कुछ काम की बातें सामने रखने का भी प्रयास किया जो कि मित्रों की और अपनी दुनियादारी के झमेलों के कारण अभी तक शैशवावस्था में ही रहा।

आज तो हिन्दी ब्लॉगिंग में टिप्पणी मॉडरेशन आम हो चुका है लेकिन मैंने हिन्दी ब्लॉगिंग के पहले दिन से ही मॉडरेशन लागू कर दिया था। ब्लॉगिंग के आरंभिक दिनों में बहुत से लोग मॉडरेशन लगाने के कारण खफा हुए। एक संपादक जी ने तो यह भी कहा कि मॉडरेशन से उन्हें ऐसा लगता है जैसे किसी ने घर बुलाकर दरवाजा बंद कर दिया हो। लेकिन मेरा दृष्टिकोण ऐसा नहीं था। मेरा दरवाजा सदा खुला था, बस इतनी निगरानी थी कि कोई अवैध या जनहित-विरोधी वस्तु वहाँ न छोड़ी जाये। और यह बात मैंने अपने टिप्पणी बॉक्स पर स्पष्ट शब्दों में लिखी थी। अपने ब्लॉग के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि वहाँ कोई क्या छोडकर जाता है उसे जनता के सामने प्रकाशित होने से पहले हम जाँचें और समाज के लिए हानिप्रद बातों को अवांछित समझकर हटाएँ।

सूचना प्रोद्योगिकी, कंप्यूटर, और डिजिटल जगत लंबे समय से मेरी रोज़ी होने के कारण उसकी अद्यतन जानकारी भी मेरे लिए महत्वपूर्ण विषय था और वहाँ व्यावसायिक उपस्थिति भी थी। लेकिन पुरानी कहावत, "मजहब उत्ता ही पालना चाहिए जित्ते में नफा अपना और नुकसान पराया हो" का अनुसरण करते हुए सेकंड लाइफ, ट्विटर आदि से जल्दी ही सन्यास ले लिया। ख़ानाबदोश ब्राह्मणों के साधारण परिवार की पृष्ठभूमि होने के कारण देश-विदेश में बिखरे परिजनों से जुड़े रहने के लिए ऑर्कुट ठीकठाक युक्ति थी, सो चलती रही। समय के साथ कुछ साथी ब्लॉगर भी मित्र-सूची में जुडते गए। गूगल द्वारा ऑर्कुट की हत्या किए जाने से पहले ही जब फेसबुक ने उसे मृतप्राय कर दिया तो अपन भी फेसबुक पर सक्रिय हो गए।
  
पिछले साल तक मैं अपनी फेसबुक फ्रेंडलिस्ट के प्रति बहुत सजग था। जहाँ मेरे कई मित्र 5,000 का शिखर छू रहे थे वहीं 200 के अंदर सिमटा मैं फेसबुक पर केवल अपने परिजनों, सहकर्मियों और मित्रों से संपर्क बनाए रखने के लिए यहाँ था। मेरी मित्र-सूची में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जिसकी वास्तविकता से मैं परिचित न होऊँ। अधिकांश (99%) मित्रों से मेरी फोन-वार्ता या साक्षात्कार हो चुका था। हिन्दी ब्लॉग जगत के अधिकांश मठाधीशों का मुझसे कोई संपर्क नहीं था, मुझे तो उनसे जुड़ने की क्या आकांक्षा होती। ज़्यादातर से, 'कैसे कह दूँ के मुलाक़ात नहीं होती है, रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है' वाला संबंध था। सो वे किसी तीसरे की वाल पर आमने-सामने पड़ जाने के बावजूद अपने-अपने गुटों में सीमित रहकर मुझसे अलग ही रहे।

मेरी सूची में घूघूती-बासूती अकेली ऐसी व्यक्ति हैं जिन्हें मैंने पूर्ण अपरिचित होते हुए भी, उनका वास्तविक चित्र देखे बिना, उनका नाम तक पता न होते हुए भी खुद मैत्री अनुरोध भेजा। नारीवाद जैसे कुछ विषयों पर हमारे अनुभव, पृष्ठभूमि और निष्कर्ष आदि में अंतर होते हुए भी समस्त हिन्दी ब्लोगिंग में अगर कोई एक व्यक्ति विचारधारा में मुझे अपने सबसे निकट दिखा तो ये वे ही थीं। जानने वालों से भी अक्सर बचकर निकलने वाले किसी व्यक्ति के लिए किसी को जाने बिना इतना विश्वसनीय समझना सुनने में शायद अजीब लगे, लेकिन मेरे लिए यह भी सामान्य सी बात है।

किसी अन्जान व्यक्ति से मैत्री-अनुरोध आने पर मैंने कभी उनके स्टेटस/व्यवसाय/शिक्षा आदि पर ध्यान न देकर केवल इतना देखा कि समाज और मानवता के प्रति उनका दृष्टिकोण कैसा है। फिर पिछले दो वर्षों में वह समय आया जब उनमें से भी कुछ लोग अपनी खब्त के आधार पर कम करने शुरू किए। कई सिर्फ इसलिए गए क्योंकि वे अपने को ज़ोर-शोर से जिस उद्देश्य के लिए लड़ने वाला बताते थे उसी उद्देश्य का गला घोंटने वालों के कुकर्मों पर न केवल चुप थे बल्कि उनके साथ हाथ में हाथ डाले घूम रहे थे। तड़ीपार की कुछ क्रिया दूसरी ओर से भी हुई, खासकर नियंत्रणवादी विचारधाराओं के ऐसे प्रचारक जो अपनी असलियत बलपूर्वक छिपाए रखते हैं, मेरे साथ संवाद नहीं रख सके। व्हाट्सऐप पर आए मेसेजों को ब्लॉग पर चेप-चेपकर नवलखी साहित्यकार बने एक व्यक्ति द्वारा एक जाति-विशेष के विरुद्ध विषवमन करने पर जब मैंने उससे एक प्रश्न किया तो उसने अपने कुकृत्य की ज़िम्मेदारी किसी और पर डाली, कुछ बहाने बनाए फिर वे बहाने गलत साबित किए जाने पर वह पोस्ट तो हटा ली लेकिन तड़ से मुझे ब्लॉक कर दिया। अच्छी बात ये हुई कि उस दिन के बाद उसने अपने ब्लॉग से वे लघुकथाएँ हटा दीं जिनका अन्यत्र स्वामित्व स्पष्ट था और कॉपीराइट की चोरी सिद्ध होने में कोई शंका नहीं थी। फेसबुक वाल से हटीं या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। कुछ लोगों को मैंने भी ब्लॉक किया है लेकिन उसका कारण कोई व्यक्तिगत परिवाद नहीं है। ऐसे किसी भी व्यक्ति से फेसबुक पर मेरा संवाद नहीं रहा है। बस उनके मन की स्थायी कड़वाहट पढ़-पढ़्कर मेरे मन में कभी खीझ उत्पन्न न हो इसीलिए उनसे बचना ही श्रेयस्कर समझा। इसके अलावा कुछ अन्य मित्रों का सूची से हटना ऐसा रहस्य है जहाँ न मुझे उन्हें हटाना याद है, न उन्हें मुझे हटाना। लंबे समय बाद जब हमारी मुलाक़ात हुई तो पता लगा कि एक दूसरे की सूची में नहीं हैं। अब मुझे लगता है कि शायद हम फेसबुक पर कभी मित्र रहे ही नहीं होंगे, और हमें ऑर्कुट की दोस्ती की वजह से यह गलतफहमी हुई होगी।

ऐसे मुक्तहस्त और उदार मित्र भी मिले जिन्होंने मित्रसूची से बाहर होने के बाद फिर से मैत्री अनुरोध भेजे और मैं अपनी भूल स्वीकारते हुए उनसे फिर जुड़ा। 2014 के अंत में जब बहुतेरे पाँच-हजारी हर तीसरे दिन "ऐसा किया तो लिस्ट से बाहर कर दूंगा/दूँगी", "कभी लाइक/कमेन्ट नहीं करते तो फ्रेंडशिप क्यों?" और "आज मैंने अपनी सूची इतनी हल्की की" के स्टेटस लगाने में व्यस्त थे, मैंने तय किया कि समय देकर पेंडिंग पड़े मित्रता अनुरोधों का अध्ययन करके उन सभी को स्वीकृत कर लूँगा जो किसी भी प्रकार का द्वेष फैलाने में नहीं जुटे हुए हैं। मित्र सूची में 'रिस्टरिक्टेड' विकल्प प्रदान करके फेसबुक ने यह काम और आसान कर दिया। मेरे नव वर्ष संकल्प का एक भाग यह भी था कि अंतर्जाल पर अक्सर सामने पड़ते रहे उन सभी लोगों को मित्रता अनुरोध भेजूँगा जो अपनी किसी भी सार्वजनिक या गुप्त गतिविधि के कारण मेरी अवांछित व्यक्ति (persona non grata) सूची में नहीं हैं।

आरंभ उन लोगों से करने की सोची जिन्हें मैंने ही यह सोचकर अनफ्रेंड किया था कि जिनसे व्यक्तिगत परिचय नहीं, मित्र-सूची में होने न होने से संवाद में कोई अंतर नहीं, वे मेरे पोस्ट्स पढ़कर मित्र सूची के बाहर रहते हुए भी कमेन्ट कर सकते हैं और मैं उनकी पोस्ट्स पर। सुखद आश्चर्य की बात है कि उनमें से अनेक तक मेरा निवेदन पहुँच भी न सका क्योंकि वे अभी भी फेसबुक की मित्र सीमा से आगे थे। उसके बाद उन लोगों का नंबर आया जिनसे किसी को कोई शिकायत नहीं, लेकिन मेरी उनसे मैत्री या परिचय का अब तक कोई मौका नहीं पड़ा। उन्हें शायद मेरे बारे में जानकारी न हो लेकिन मैंने कभी न कभी उन्हें पढ़ा, सुना हो। इनमें भी बहुत से अपनी मित्र-सीमा के कारण निवेदन पा न सके। जिन तक निवेदन पहुँचे उनमें से कुछ कई महीने बाद आज भी पेंडिंग हैं लेकिन अधिकांश की सूची में जुडने पर मुझे गर्व है। जो महान साहित्यकार मेरे निवेदन के बाद कट-पेस्ट कवियित्रियों से लेकर निश्चित-फेक सुकन्याओं के निवेदन लगातार स्वीकारते हुए भी मेरा निवेदन लंबित रखे रहे उन्हें कष्ट से बचाने के लिए मैं ही पीछे लौट आया। मैं अपनी सूची में अपने जैसे विश्वसनीय लोगों को ही रखना चाहता हूँ। और फेक-प्रोफाइल की खूबसूरती देखते ही निवेदन स्वीकार करना मेरी नज़र में उन साहित्यकारों की विश्वसनीयता भी कम करता है।

मैंने अभी भी मित्र निवेदन भेजना रोका नहीं है, और साथ ही आए हुए निवेदन स्वीकार कर रहा हूँ। दुविधा तब आती है जब निवेदक के प्रोफाइल पर चित्र, नाम, पता या कोई भी जानकारी सामने नहीं होती है। कई रिक्वेस्ट शायद ऐसी भी हैं जहाँ यूजर ने बिना देखे ही फेसबुक को अपनी कांटेक्ट लिस्ट में उपस्थित हर व्यक्ति को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने का विकल्प चुना होता है। ब्लॉगिंग के ऐसे साथी जो फेसबुक पर मेरे मित्र नहीं बने, कभी मेरे ब्लॉग पर नहीं आए, जब लिंक्डइन नेटवर्क पर मैत्री-निवेदन भेजते हैं तो अचंभा होता है।

खैर, ये थी मेरी सोशल मीडिया दास्ताँ। नए जमाने की नई दोस्ती के ये दौर चलते रहेंगे। मेरी दास्ताँ मेरे सोचने के तरीके से प्रभावित है। आपकी दास्ताँ आपके व्यक्तित्व की एक खिड़की खोलती है। मेरा अनुरोध यही है कि जब किसी व्यक्ति को मैत्री अनुरोध भेजें तो अपना संक्षिप्त परिचय भी भेज दें ताकि उन्हें स्वीकारने/अस्वीकारने में आसानी हो जाये। और जो लोग केवल अपना आभामंडल बढ़ाने के लिए निवेदन भेजते/स्वीकारते हैं, उन्हें याद रहे कि सूर्य को भी ग्रहण लगता है, वे तो अभी ठीक से चाँद-मियाँ भी नहीं हो पाये हैं। कभी-कभी अपने भक्तों की वाल पर भी झांक लें तो उनकी चाँदनी कम नहीं हो जाएगी।  

Friday, August 21, 2015

बुद्धू - लघुकथा

राज और रूमा के विवाह को सम्पन्न हुए कुछ महीने बीत चुके थे। पति-पत्नी दोनों शाम को छज्जे पर बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। मज़ाक की कोई बात चलने पर रूमा ने कहा, "अगर उस दिन रीना की शादी में आपने मुझे देखा ही न होता तब?"

"तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर तुम मुझे देखकर दीदी से बात नहीं करतीं, तो मुझे कैसे पता लगता?" राज ने कहा।

"क्या कैसे पता लगता?" आवाज़ में कुतूहल था।

"वही सब जो तुमने दीदी से कहा?"

"मैंने? कुछ भी तो नहीं। उनसे बस इतना पूछा था कि जलपान किया या नहीं। फिर वे बात करने लगीं।"

"क्या बात करने लगीं? तुमने उनसे मेरे बारे में क्या कहा?" राज कुछ सुनने को उतावला था।

"मैंने तो कुछ भी नहीं कहा था। वे खुद ही तुम्हारी बातें बताने लगी थीं" रूमा ने ठिठोली की।

"मुझे सब पता है, दीदी ने मुझे उसी दिन सारी बात बता दी थी।"

"अच्छा! क्या क्या बताया?"  

"जो कुछ भी तुमने मेरे बारे में कहा। ... वह लड़का जो आपके साथ आया था, वही जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें इतनी सुंदर हैं, लंबी नाक, चौड़ा माथा। इतना सभ्य, शांत सा, इस शहर के दंभी लड़कों से बिल्कुल अलग।"

"क्या? ये सब कहा दीदी ने तुमसे?"

"हाँ, सारी बात बता दी, एक एक शब्द।"

"लेकिन मैंने तो ये सब कहा ही नहीं। सोचा ज़रूर था, लगभग यही सब। लेकिन उनसे तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा।"

"सच? तब तो ये भी नहीं कहा होगा कि कद थोड़ा अधिक होता तो बिलकुल अमिताभ बच्चन होता, वैसे संजीव कुमार, धर्मेंद्र, शशि कपूर वगैरा को तो अभी भी मात कर रहा है।"

"बिल्कुल नहीं। हे भगवान! ये दीदी भी न ..."

"समझ गया दीदी की शरारत। बनाने को एक मैं ही मिला था?"

"एक मिनट, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुमने भी मेरे बारे में उनसे कुछ नहीं कहा हो?" 

"मैंने? मैं तो कभी किसी से कुछ कहता ही नहीं, उनसे कैसे कहता? ... और फिर, तुम्हें देखने के बाद तो मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था।"

"क्या? तुमने मेरी तारीफ़ में उनसे कुछ नहीं कहा था? इसका मतलब यह कि दीदी ने हम दोनों को ही  बुद्धू बना दिया।"

"कमाल की हैं दीदी भी। लेकिन इस मज़ाक के लिए मैं जीवन भर उनका आभारी रहूँगा।"

"मैं भी। दीदी ने गजब का बुद्धू  बनाया हमें।"

राज ने स्वगत ही कहा, "मेरी माइंड रीडर दीदी।" और दोनों अपनी-अपनी हसीन बेवकूफी पर एकसाथ हँस पड़े।

[समाप्त]

Saturday, August 15, 2015

हुतात्मा मदनलाल ढींगरा

ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मैं अपनी ही माँ से पुनर्जन्म लेता रहूँ और इसी पवित्र कार्य के लिए मृत्युवरण करता रहूँ ~ हुतात्मा मदनलाल ढींगरा
स्वतन्त्रता सेनानी मदन लाल ढींगरा
(18 सितंबर 1883 :: 17 अगस्त 1909)
17 अगस्त 1909 के दिन भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के ज्वलंत क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा को ब्रिटेन के भारत सचिव के विशेष राजनीतिक सलाहकार (political aide-de-camp to the Secretary of State for India) 61 वर्षीय अंग्रेज अधिकारी सर विलियम हट कर्ज़न वाईली (Sir William Hutt Curzon Wyllie) की हत्या के आरोप में फांसी पर लटकाकर मृत्युदंड दिया गया था। इन हुतात्मा का अंतिम संस्कार भी देश की धरती पर नहीं हो पाया लेकिन देशप्रेमियों के हृदय में उनकी याद आज भी अमिट है।

 मदनलाल ढींगरा का जन्म 18 सितंबर, 1883 को अमृतसर में हुआ माना जाता है। उनके पिता रायसाहब डॉ दित्तामल ब्रिटिश सरकार में एक सिविल सर्जन थे। प्रतिष्ठित और सम्पन्न परिवार धन और शिक्षा के हिसाब से उस समय के उच्च वर्ग में गिना जाता था। पिता अपने खान-पान और रहन-सहन में पूरे अंग्रेज़ थे जबकि उनकी माँ भारतीय संस्कारों में रहने वाली शाकाहारी महिला थीं। अफसोस की बात है कि ढूँढने पर भी उनका नाम मुझे अब तक कहीं मिला नहीं। अंग्रेजों के विश्वासपात्र पिता के बेटे मदनलाल को जब भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों से सम्बन्ध रखने के आरोप में लाहौर में विद्यालय से निकाल दिया गया, तो उनके पिता ने मदनलाल से नाता तोड लिया। पढ़ने में आता है कि उन दिनों मदनलाल ने क्लर्क, मजदूर, और तांगा-चालक के व्यवसाय किए। बाद में पंजाब छोडकर कुछ दिन उन्होंने मुम्बई में भी काम किया। अपने बड़े भाई बिहारीलाल ढींगरा (तत्कालीन जींद रियासत के प्रधानमंत्री) की सलाह और आर्थिक सहयोग से सन् 1906 में वे उच्च शिक्षा के लिए 'यूनिवर्सिटी कॉलेज' लंदन में यांत्रिक प्रौद्योगिकी में प्रवेश लेने इंगलेंड चले गये।

लंडन टाइम्स, 19 अगस्त 1909 (सौजन्य: executedtoday.com) 
 लंदन में वे विनायक दामोदर "वीर" सावरकर सहित अन्य देशभक्तों के संपर्क में आए और हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी लिया। वे भारतीय विद्यार्थियों के संगठनों 'अभिनव भारत मंडल' और 'इंडिया हाउस' के सदस्य बने। जब भारत से खुदीराम बोस जैसे किशोर सहित अनेक देशभक्तों को फाँसी दिए जाने के समाचार ब्रिटेन पहुँचे तो भारतीय छात्रों के हृदय ब्रिटिश क्रूरता के प्रति क्षोभ से भर गए। मदनलाल ढींगरा ने भी बदला लेने की एक योजना बना ली।

 1 जुलाई 1909 को लंदन के जहाँगीर हाल में 'इंडियन नेशनल एसोसिएशन' तथा 'इंस्टीट्युट आफ इम्पीरियल स्टडीज' द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह कार्यक्रम में मदनलाल ढींगरा भी पहुँचे। समारोह का मुख्य अतिथि ब्रिटिश अधिकारी सर वायली अपने भारत विरोधी रवैये के लिए कुख्यात था। मदनलाल ने उस पर अपने रिवाल्वर से गोलियां चला दीं। वाइली की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गई। उसे बचाने के प्रयास में एक पारसी डॉक्टर कोवासजी लाल काका की भी मृत्यु हो गई। कहते हैं कि वाइली को गोली मारने के बाद मदनलाल ने आत्महत्या का प्रयास भी किया लेकिन पकड लिये गए। वायली हत्याकांड की सुनवाई पुराने बेली कोर्ट लंदन में हुई। एक भारतीय नागरिक के ऊपर ब्रिटिश न्यायालय की वैधता को नकारते हुए मदनलाल ढींगरा ने अपनी पैरवी के लिए कोई वकील करने से इंकार कर दिया। 23 जुलाई को इस एकपक्षीय मुकदमे में उन्हें मृत्युदण्ड सुनाया गया जोकि 17 अगस्त सन् 1909 को पैटनविली जेल में फांसी देकर पूरा किया गया। कहते हैं कि मदनलाल ने ब्रिटिश जज को मृत्युदंड के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि वे अपने देशवासियों के बेहतर कल के लिए मरना चाहते हैं।

 मंगल पाण्डेय को अपना आदर्श मानने वाले हुतात्मा मदनलाल ढींगरा को ऊधमसिंह, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, और कर्तार सिंह सारभा जैसे क्रांतिकारी अपना आदर्श मानते थे।

 हमारे स्वर्णिम आज की आशा में अगणित देशभक्तों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। आज हम उन्हें केवल श्रद्धांजलि और आदर ही दे सकते हैं लेकिन यह भी सच है कि उनकी प्रेरणा से हम आने वाली पीढ़ियों के लिए भारत और विश्व को आज से अधिक बेहतर भी बना सकते हैं।

मदनलाल ढींगरा के जीवन के नाट्यरूपांतर का एक अंश
संबन्धित कड़ियाँ
प्रेरणादायक जीवन चरित्र
हुतात्मा खुदीराम बोस
चापेकर बंधु - प्रथम क्रांतिकारी
1857 के महानायक मंगल पाण्डेय
शहीदों को तो बख्श दो
मदन लाल ढींगरा - अङ्ग्रेज़ी विकीपीडिया पर