पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
...
मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दांत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
...
“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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[भाग 1] [भाग 2] [भाग 3] अब आगे की कहानी:
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“कल रात एक सफेद कमीज़ यहाँ टांगी थी, तुमने देखी क्या?” सुबह दफ्तर जाते समय जब कमीज़ नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।
“वह तो भैया ले गये।“
“भैया? भैया कब आये?”
“केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आये थे। जिन्होंने मुझे राखी बांधी थी।“
“मेरी कमीज़ उस राक्षस को कहाँ फिट आयेगी?” पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज़ पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि ट्रिपल के भैया मेरी कमीज़ से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से गुज़रा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, “ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?”
मेरा सामान गायब होने की शुरूआत भले ही कमीज़ से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेसलैट तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।
शाम को जब दफ्तर से थका हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज़ तलब लगी। रास्ते भर दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अन्दर घुसते ही ब्रीफकेस दरवाज़े पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर “हार की जीत” वाले पंडित सुदर्शन के गीत “तेरी गठरी में लागा चोर...” का रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता के नाते मैंने कहा, “जय राम जी की!”
”सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ” केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज़ और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।
“खायेगा हीरो?” उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।
“राम राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” तश्तरी पर नज़र पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।
“दीदीऽऽऽ” वह मेरी बात को अनसुनी करके ज़ोर से चिल्लाया।
जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचतीं, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।
“मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा” मैंने गुस्से में कहा।
“मैने तो आपके खाने को कभी बुरा भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते हैं?”
“भैया, मैं आपके लिये खाना बनाती हूँ अभी ...” बहन ने भाई को प्यार से समझाया।
“मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है” वह रिरिआया, “बल्कि खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि आम लेट कर खाने में कोई बुराई नहीं है”।
“ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार और शरणागत-वात्सल्य का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य है” कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर केकेके को खिला देंगी।
चाय की तो बात ही छोड़िये उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।
और मैं अपने ही घर से “बड़े बेआबरू होकर...” गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चांदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों से लिखे हुए नाम “श्रीनगर” की चमक श्रीहीन लग रही थी।
[समाप्त]
यूँ ही याद आ गये, अली सिकन्दर "जिगर" मुरादाबादी साहब के अल्फाज़:
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है
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मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दांत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
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“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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[भाग 1] [भाग 2] [भाग 3] अब आगे की कहानी:
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“कल रात एक सफेद कमीज़ यहाँ टांगी थी, तुमने देखी क्या?” सुबह दफ्तर जाते समय जब कमीज़ नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।
“वह तो भैया ले गये।“
“भैया? भैया कब आये?”
“केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आये थे। जिन्होंने मुझे राखी बांधी थी।“
“मेरी कमीज़ उस राक्षस को कहाँ फिट आयेगी?” पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज़ पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि ट्रिपल के भैया मेरी कमीज़ से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से गुज़रा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, “ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?”
मेरा सामान गायब होने की शुरूआत भले ही कमीज़ से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेसलैट तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।
शाम को जब दफ्तर से थका हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज़ तलब लगी। रास्ते भर दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अन्दर घुसते ही ब्रीफकेस दरवाज़े पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर “हार की जीत” वाले पंडित सुदर्शन के गीत “तेरी गठरी में लागा चोर...” का रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता के नाते मैंने कहा, “जय राम जी की!”
”सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ” केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज़ और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।
“खायेगा हीरो?” उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।
“राम राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” तश्तरी पर नज़र पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।
“दीदीऽऽऽ” वह मेरी बात को अनसुनी करके ज़ोर से चिल्लाया।
जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचतीं, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।
“मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा” मैंने गुस्से में कहा।
“मैने तो आपके खाने को कभी बुरा भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते हैं?”
“भैया, मैं आपके लिये खाना बनाती हूँ अभी ...” बहन ने भाई को प्यार से समझाया।
“मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है” वह रिरिआया, “बल्कि खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि आम लेट कर खाने में कोई बुराई नहीं है”।
“ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार और शरणागत-वात्सल्य का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य है” कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर केकेके को खिला देंगी।
चाय की तो बात ही छोड़िये उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।
और मैं अपने ही घर से “बड़े बेआबरू होकर...” गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चांदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों से लिखे हुए नाम “श्रीनगर” की चमक श्रीहीन लग रही थी।
[समाप्त]
यूँ ही याद आ गये, अली सिकन्दर "जिगर" मुरादाबादी साहब के अल्फाज़:
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है