Friday, September 12, 2008

दूर के इतिहासकार

अरे भाई, इसमें इतना आश्चर्यचकित होने की क्या बात है? जब दूर के रिश्तेदार हो सकते हैं, दूर की नमस्ते हो सकती है, दूर के ढोल सुहावने हो सकते हैं तो फ़िर दूर के इतिहासकार क्यों नहीं हो सकते भला?

साहित्य नया हो सकता है, विज्ञान भी नया हो सकता है। दरअसल, कोई भी विषय नया हो सकता है मगर इतिहास के साथ यह त्रासदी है कि इतिहास नया नहीं हो सकता। इतिहास की इसी कमी को सुधारने के लिए आपकी सेवा में हाज़िर हुए हैं "दूर के इतिहासकार"। यह एकदम खालिस नया आइटम है। पहले नहीं होते थे।

पुराने ज़माने में अगर कोई इतिहासकार दूर का इतिहास लिखना चाहता भी था तो उसे पानी के जहाज़ की तलहटी में ठण्ड में ठिठुरते हुए तीन महीने की बासी रसद पर गुज़ारा करते हुए दूर देश जाना पड़ता था। सो वे सभी निकट की इतिहासकारी करने में ही भलाई समझते थे।

अब, आज के ज़माने की बात ही और है। कंप्यूटर, इन्टरनेट, विकिपीडिया, सभी कुछ तो मौजूद है आपकी मेज़ पर। कंप्युटर ऑन किया, कुछ अंग्रेजी में पढा, कुछ अनुवाद किया, कुछ विवाद किया - लो जी तैयार हो गया "दूर का इतिहास"। फ़िर भी पन्ना खाली रह गया तो थोड़ा समाजवाद-साम्यवाद भी कर लिया। समाजवाद मिलाने से इतिहास ज़्यादा कागजी हो जाता है, बिल्कुल कागजी बादाम की तरह। वरना इतिहास और पुराण में कोई ख़ास अंतर नहीं रह जाता है।

जहाँ एक कार्टून बनाना तक किसी मासूम की हत्या का कारण बन जाता हो वहाँ दूर का इतिहास लिखने का एक बड़ा फायदा यह भी है कि जान बची रहती है. बुजुर्गो ने कहा भी है -
जान है तो दुकान है,
वरना सब वीरान है.
नहीं समझ आया? अगर आसानी से समझ आ जाए तो सभी लोग नेतागिरी छोड़कर इतिहासकार ही न बन जाएँ? चलिए मैं समझाता हूँ, माना आप आसपास का इतिहास लिख रहे हैं और आपने लिख दिया कि पाकिस्तान एक अप्राकृतिक रूप से काट कर बनाया हुआ राष्ट्र है तो क्या हो सकता है? हो सकता है कि आप ऐके ४७ के निशाने पर आ जाएँ। दूर का इतिहासकार अपनी जान खतरे में नहीं डालता। वह पास की बात ही नहीं करता। वह तो ईरान-तूरान सब पार करके लिखेगा कि इस्राइल नाम की झील अप्राकृतिक है। अच्छा जी! इस्रायल एक झील नहीं समुद्र है? इतिहासकार मैं हूँ कि आप? यही तो समस्या है हम लोगों की कि किसी भी बात में एकमत नहीं होते हैं। अरे आज आप राजी-खुशी से मेरी बात मान लीजिये, कल तो मैं बयानबाजी, त्यागपत्र, धरना, पिकेटिंग, सम्मान-वापसी  कर के ख़ुद ही मनवा लूँगा।

देखिये आपके टोकने से हम ख़ास मुद्दे से भटक गए। मैं यह कह रहा था कि अपने आसपास की बात लिखने में जान का ख़तरा है इसलिए "दूर के इतिहासकार" दूर-दराज़ की, मतलब-बेमतलब की बात लिखते हैं। कभी-कभी दूर-दराज़ की बात में भी ख़तरा हो सकता है अगर वह आज की बात है। इसलिए हर दूर का इतिहासकार न सिर्फ़ किलोमीटर में दूर की बात लिखता है बल्कि घंटे और मिनट में भी दूर की बात ही लिखता है।

दूर के इतिहासकार होने के कई फायदे और भी हैं। जैसे कि आपकी गिनती बुद्धिजीविओं में होने लगती है. आप हर बात पर भाषण दे सकते है। चमकते रहें तो हो सकता है पत्रकार बन जाएँ। और अगर न बन सके तो कलाकार बन सकते हैं। और अगर वहाँ भी फिसड्डी रह गए तो असरदार बन जाईये। असरदार यानी कि बिना पोर्टफोलियो का वह नेता जिसकी छत्रछाया में सारे मंत्री पलते है।

तो फ़िर कब से शुरू कर रहे हैं अपना नया करियर?

Wednesday, September 10, 2008

ब्रिटिश जेल का प्रयोग

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य पोषक आहार के मानव मन और प्रवृत्ति पर प्रभाव की संक्षिप्त समीक्षा करना है। लेख में वर्णित अध्ययन अपराध घटाने के उद्देश्य से इंग्लॅण्ड की जेलों में किए गए थे। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

सन २००२ में इंग्लॅण्ड में सज़ा भुगत रहे २३० अपराधियों पर एक अनोखा प्रयोग किया गया। प्रशासन ने उनके भोजन को पौष्टिक बनाने के प्रयास किए। ऐलेस्बरी युवा अपराधी संस्थान (Aylesbury young offenders' institution, Buckinghamshire ) में कैद १८ से २१ वर्ष की आयु के इन अपराधियों को भोजन में नियमित रूप से आवश्यक विटामिन व खनिज की गोलियाँ दी जाने लगीं। भोजन और अपराध का वैज्ञानिक सम्बन्ध ढूँढने के उद्देश्य से किए गए अपनी तरह के पहले इस प्रयोग में अपराधियों में से कुछ को झूठी गोलियाँ भी दी गयीं। प्रयोगों से पता लगा कि पौष्टिक भोजन पाने वाले कैदियों की अपराधी मनोवृत्ति में सुधार आया और जेल के अन्दर हिंसक घटनाओं में काफी कमी आयी। अध्ययन के प्रमुख कर्ता-धर्ता श्री बर्नार्ड गेश्च (Bernard Gesch) का कहना है कि देश के नौनिहालों को गोभी, गाज़र और ताज़ी सब्जियाँ खिलाने से अपराधों की संख्या में भारी कमी लाई जा सकती है। इस अध्ययन में अपराधों में ३७% कमी अंकित की गयी थी।

हौलैंड व अमेरिका की जेलों में हुए समान प्रकृति के अध्ययनों से भी मिलते-जुलते नतीजे ही सामने आए। फल-सब्जी-विटामिन की गोली आदि दिए जाने पर अपराधियों की मनोवृत्ति सहज होने लगी और उनकी खुराक में हॉट-डॉग व मुर्गा वापस लाने पर हिंसा ने दुबारा छलाँग लगाई। अधिक मीठे व मैदा का प्रयोग भी हानिप्रद ही था। खनिज और अम्लीय-वसा की आपूर्ति ने कैदियों की सोच को काफी सुधारा।

सन २००५ में आठ से १७ साल तक के अमेरिकन बच्चों के मनोविज्ञान के बारे में किए गए अध्ययनों से भी लगभग यही बात सामने आयी। वहाँ भी खनिज व अम्लीय-वसा की कमी और मीठे व मैदा की अधिकता को हानिप्रद पाया गया। इस अध्ययन में एक चौंकाने वाली बात सामने आयी और वह थी कि बहुत से बच्चों के व्यवहार में विकार का कारण यह था कि उन्हें उच्च श्रेणी का प्रोटीन नहीं मिल पाता था। इन बच्चों के परिवार जन इस भ्रम में थे कि उनके द्वारा खाए जाने वाले मांस से उन्हें पर्याप्त प्रोटीन मिल रहा है। जबकि सच्चाई यह थी कि यह बच्चे सोया, चावल, स्पिरुलिना आदि शाकाहारी स्रोतों में पाये जाने वाले उच्च श्रेणी के प्रोटीन से वंचित थे। उच्च श्रेणी के शाकाहारी प्रोटीन की कमी के अलावा जस्ते की कमी भी अपराध की ओर प्रवृत्त होने का एक कारण समझी गयी।

सन्दर्भ: http://www.naturalnews.com/006194.html
सन्दर्भ: http://www.telegraph.co.uk/news/1398340/Cabbages-make-prisoners-go-straight.html

Tuesday, September 9, 2008

शाकाहार और हत्या

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ४
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग , भाग २ एवं भाग 3 पढ़ें]

प्राचीन भारत में गौमांस भक्षण के समर्थन में एक प्रमुख तर्क "हठ योग प्रदीपिका" में से दिया जाता है। गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा पंद्रहवीं शती में लिखा हुआ यह ग्रन्थ संस्कृति, इतिहास या भोजन के बारे में नहीं है इतना तो इसके नाम से ही पता लग जाता है। पहली बात तो यह कि पंद्रहवीं शताब्दी में लिखे ग्रन्थ से प्राचीन भारत की स्थिति, संस्कृति या विचारधारा को नहीं सिद्ध किया जा सकता है। तो भी आईये हम "हठ योग प्रदीपिका" पर नज़र डालकर देखें कि सत्य क्या है। निम्न श्लोक को उधृत कर के लोगों से कहा जाता है कि गौमांस सामान्य था - विशेषकर योगी व ब्राह्मणों में। योग-मुद्राओं से सम्बंधित अध्याय तीन के श्लोक 47 से:

गोमांसं भक्ष्हयेन्नित्यं पिबेदमर-वारुणीम
कुलीनं तमहं मन्ये छेतरे कुल-घातकाः

इस श्लोक का अर्थ करते हुए ऐसा कहा जाता है की कुलीन लोग गौमांस व सोमरस का नित्य सेवन करते हैं और न करने वाले तो कुल-घातक हैं। गौमांस-भक्षण की ऐसी अफवाहें फैलाने वाले कभी भी इस श्लोक के अगले श्लोक का ज़िक्र नहीं करते जिसमें इस तथाकथित गौमांस की प्रकृति का खुलासा किया गया है:

गो-शब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि
गो-मांस-भक्ष्हणं तत्तु महा-पातक-नाशनम (अध्याय 3 - श्लोक 48)

गो अर्थात जिह्वा को ऊपर ले जाकर और फिर पीछे की ओर मोड़कर तालू में लगाकर महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। यहाँ पर गो जिह्वा है और गोमांस एक मुद्रा हैऔर अमर जल जिह्वा का रस है। आश्चर्य होता है कि लोग भारतीय ग्रंथों में हर तरफ भरे हुए अहिंसा, दया और मानवता के सिद्धांतों को छोड़ ग्रंथों में मुश्किल से एकाध जगह आए प्रतीकात्मक वाक्यों के अर्थ का अनर्थ कर के उसका दुरूपयोग अपने कुतर्कों के लिए करते हैं.

लिए बहुत समय दे दिया जिह्वा-चर्चा को, आइये अब एक नज़र डालते हैं पिछली बार के शाकाहार सम्बन्धी शब्दों के अर्थ पर। "शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का अब तक केवल एक ही उत्तर आया है। जैसा कि मैंने पहले कहा था, इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है। आजकल पौधों के लिए रूढ़ हुआ संस्कृत के शब्द शस्य का मूल है शस जिसका अर्थ है काटना या हत्या करना। हथियारों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द शस्त्र भी "शस" से ही निकला है। वनस्पति का काटने से क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह शस्य के अर्थ से स्पष्ट है। शस्य वह है जिसकी हत्या की जा सकती है अर्थात, वनस्पति मे से जिनको हम भोजन के लिए काट सकते हैं वे शस्य हैं। इस शब्द से वनस्पति मे जीवन का आभास भी मिलता है और प्राणी-हिंसा की मनादी भी। कहा जाता है कि शस्य शब्द ने ही जगदीश चंद्र बासु को वनस्पति में जीवन की उपस्थिति सिद्ध करने को प्रेरित किया था।

मांस शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं - मुझे ज़्यादा नहीं पता मगर मनु स्मृति के अनुसार एक अर्थ:
मांस: = मम + स: = मुझे + यह = यह मुझे वही करेगा जो मैं इसे कर रहा हूँ = मैंने इसे खाया तो यह मुझे खायेगा।

यह अर्थ कर्म-फल के सिद्धांत के भी बिल्कुल अनुकूल बैठता है। संत कबीर के शब्दों में इसी बात को निम्न दोहे में प्रकट किया गया है:

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।

तो भइया अब आप जो चाहे सो खाओ, हमें तो बख्शो इस जंजाल से। हाँ, अब यह मत कहना कि हमने आपको आगाह नहीं किया था।

चलते चलते एक सवाल: अस्त्र और शस्त्र में क्या अन्तर है?

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में से कुछ ऐसे मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिसकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।