Wednesday, December 17, 2008

मर्म - कविता

जीवन का जो मर्म समझते
लम्बी तान सदा सोते न

दुनियादारी अपनाते तो
हम भी ऐसे हम होते न

तत्व एक कोयले हीरे में
रख कोयला हीरा खोते न

फल ज़हरीले दिख पाते तो
बीज कनक के यूँ बोते न

यदि सार्थक कर पाते दिन तो
रातों को उठकर रोते न।
(अनुराग शर्मा)

Sunday, December 14, 2008

काश - कविता

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एकाकीपन के निर्मम मरु में
मैं असहाय खड़ा पछताता
कोई आता

दुःख के सागर में डूबा
मैं ज्यों ही ऊपर उतराता
कोई आता

घोर व्यथा अवसाद में डूबे
पीड़ित हिय को वृथा आस दिखलाता
कोई आता

आँसू की अविरल धारा
बहने से रोक नही पाता*
कोई आता

मेरा जीवन रक्षक बन जाता
कोई आता।

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Saturday, December 13, 2008

बहाना - कविता

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हमसे झगड़ा तो इक बहाना था
आ चुका जितना उसको आना था

वो तो कब से तैयार बैठा था
गोया बेकार सब मनाना था

घर की ईंटें भी ले गया संग में
सिर्फ़ फुटपाथ पर ठिकाना था

जेब सदियों से अपनी खाली थी
मेरा क्या था जो अब गंवाना था

हम थे नाज़ुक मिज़ाज़ पहले से
उसके बस का कहाँ रुलाना था।

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