Monday, May 31, 2010

मनचाहे डाक टिकट

डाक टिकट इकट्ठा करने का शौक तो हम में से बहुत से लोगों को रहा होगा. थोड़ा बहुत मुझे भी है. बहुत से भारतीय टिकट और प्रथम दिवस आवरण अभी भी रखे हुए है. फ्रैंकिंग मशीन, ईमेल, कुरियर आदि सेवाओं के आ जाने से आजकल डाक टिकटों की ज़रुरत कम होती जा रही है. फिर भी कभी-कभी डाकघर का चक्कर लगा ही लेता हूँ. पिछले दिनों गया तो स्टंप्स.कॉम की और से बेचा जा रहा यह डब्बा उठा लाया. यह आपको अपने कम्प्युटर से अपनी मन-मर्जी के फोटो उपलोड करके उन्हें २० टिकटों की शीट पर छपने की सहूलियत देता है. छपे हुए टिकट स्टंप्स.कॉम द्वारा आपके घर भेज दिए जाते हैं. यह टिकट अमेरिका में डाक सेवा विभाग (USPS) द्वारा बनाए गए टिकटों के सामान ही स्वीकृत हैं. चाहे अपने परिवार के फोटो छापिये चाहे अपने इष्टदेव के. कुछ टिकट हमने भी बनाए. एक बानगी देखिये.


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा
Photos by Anurag Sharma]

Friday, May 28, 2010

NRI अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था

सर्व साधारण को सूचित किया जाता है कि जनता की बेहद मांग पर इत्तेफाक से कल हमारे इहाँ हमने खुद ही अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था जनहित में बना ली है. कांग्रेस बनी तो बाद में कांग्रेस आई (इंदिरा), कांग्रेस भाई (कामराज) और कांग्रेस देसाई (मोरारजी) में टूटी. जनता दल बना तो आजतक इतना टूटा कि पता ही नहीं चलता साबुत कब था. कम्युनिस्ट पार्टी तो मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्टालिनवाद, कास्त्रोवाद से लेकर नक्सलवाद, माओवाद, जिहादवाद और आतंकवाद तक हर रोज़ ही टूटती है.

इसी तरह जब अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लोगर संस्था टूटेगी तो पहले RI और NRI का भेद आयेगा. RI वाले गुट में तो वैसे भी प्रतियोगिता इतनी कड़ी है कि ढपोरशंख का नंबर भले ही आ जाय, अपना नंबर तो नहीं आ सकता है. इस मर्म को समझते हुए हम NRI वाले धड़े में शामिल हो गए हैं. अब संस्था बनी है तो पदाधिकारी भी चुने जायेंगे सो आप सब पर अति कृपा करते हुए किसी अन्य निरीह ब्लोगर को तकलीफ देने के बजाय हम खुद ही पूर्ण बहुमत से निर्विरोध उसके अध्यक्ष, संरक्षक, खजांची और अकेले कार्यकारी सदस्य चुन लिए गए हैं.

हम खुद ही सम्मलेन करेंगे, खुद ही उसमें भाग लेंगे. खुद ही उसमें सुझाव और भाषण देंगे और खुद ही उसकी रिपोर्ट और प्रेस विज्ञप्ति जारी करेंगे. पढेंगे भी खुद ही... नहीं यह ठीक नहीं है, पढने का काम मिलजुलकर करते हैं. रिपोर्ट लिखेंगे हम, पढ़ना आपको पड़ेगी. बल्कि अपने-अपने ब्लॉग पर लगानी भी पड़ेगी. चूंकि प्रश्न हिन्दी और हिन्दुस्तान की ब्लोगिंग का है इसलिए हिन्दुस्तान से बाहर करना पड़ेगा ताकि आपका विदेश भ्रमण भी हो जाय और आप माओवादियों के निर्दोष-मारण रेड-हंट अभियान की फ़िक्र किये बिना सम्मलेन में निर्भीक भागीदारी भी कर सकें.

हमारे सलाहकारों ने बताया है कि ब्लॉगर संस्था की एक ज़िम्मेदारी जनजागृति की होती है. और जनजागृति के लिए रेवड़ी बाँटने... नहीं-नहीं, पुरस्कार बाँटने की परम्परा भी होती है. हम भी बाँटेंगे. जितने लोग इस पोस्ट पर टिप्पणी लिखेंगे उन्हें टिप्पणी शिरोमणि पुरस्कार और जितने पसंद का चटका लगायेंगे उन्हें ब्लोग्वानी चटक चटका पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा. माफ़ कीजिये, इनाम में हम कुछ नकदी नहीं देंगे, अपनी लिखी बिना बिकी किताबों के बण्डल मुफ्त देंगे. आपको केवल अग्रिम डाक खर्च संस्था के खजाने में पहले से जमा कराना पडेगा.

हम अच्छी ब्लॉग रचनाओं को पुस्तकों का रूप देकर प्रकाशित भी करायेंगे. अब जैसा कि आप को पता है कि हर अच्छी ब्लॉग रचना हमारी ही होती है सो किताब पर नाम हमारा ही होगा. क्या कहा? आप मुकदमा करेंगे? तो भैय्या हमने पहले ही वकील रख लिए हैं. आप क्या समझते थे कि आपका दिया हुआ चन्दा हम सारा का सारा खुद खा जायेंगे? वकीलों को भी देना पड़ता है और सिक्योरिटी को भी.

अब इतनी बड़ी संस्था चलाने के लिए कुछ पैसा भी चाहिए न, सो वसूली का काम चौराहे के अनुभवी ट्रैफिक सिपाहियों को दे दिया गया है - अच्छी उगाही की उम्मीद है. हमारी एकल संस्था का नारा है - सारे ब्लॉगर एक हो - संगठन में शक्ति है! सबको एक होना ही पड़ेगा और एक होकर हमें ही वोट देना पडेगा. जितने नहीं देंगे उनके DNS सर्वर की पहुँच गूगल तक बंद करा दी जायेगी. फिर लिखें खुदी, पढ़ें खुदी और टिप्पणी करें खुदी.

जोर जुल्म की टक्कर पर ब्लॉगर हड़ताल करायेंगे!
कोई आये चाहे न आये सम्मलेन अवश्य सजायेंगे!

तो ब्लॉगर समाज, देर किस बात की है, फॉर्म बनाओ, छापो और भेज दो, टिप्पणी की फॉर्म में.

Thursday, May 27, 2010

माय नेम इज खान [कहानी]

अट्ठारह घंटे तक एक ही स्थिति में बैठे रहना कितनी बड़ी सजी है इसे वही बयान कर सकता है जिसने भारत से अमेरिका का हवाई सफ़र इकोनोमी क्लास में किया हो. अपन तो इस असुविधा से इतनी बार गुज़र चुके हैं कि अब यह सामान्य सी बात लगती है. मुश्किल होती है परदेस में हवाई अड्डे पर उतरने के बाद आव्रजन कार्यवाही के लिए लम्बी पंक्ति में लगना.

आम तौर पर कर्मचारी काफी सभ्य और विनम्र होते हैं. खासकर भारतीय होने का फायदा तो हमेशा ही मिल जाता है. कई बार लोग नमस्ते कहकर अभिवादन भी कर चुके हैं. फिर भी, हम लोग ठहरे हिन्दुस्तानी. वर्दी वाले को देखकर ही दिल में धुक-धुक सी होने लगती है. खैर वह सब तो आसानी से निबट गया. अब एक और जांच बाकी थी. हुआ यह कि इस बार साम्बाशिवं जी ने बेलपत्र लाने को कहा था जो हमने दिल्ली में कक्कड़ साहब के पेड़ से तोड़कर एक थैले में रख लिए थे. यहाँ आकर डिक्लेर किये तो पता लगा कि आगे अपने घर की फ्लाईट पकड़ने से पहले फूल-पत्ती-जैव विभाग की जांच और क्लियरेंस ज़रूरी है. अरे वाह, यहाँ तो अपना भारतीय बन्दा दिखाई दे रहा है. चलो काम फ़टाफ़ट हो जाएगा.

नेम प्लीज़

शर्मा

कैसे हैं शर्मा जी? नेपाल से कि हिन्दुस्तान से?

दिल में आया कहूं कि हिन्दी बोल रहा है और पासपोर्ट देखकर भी देश नहीं पहचानता, कमाल का आदमी है. मगर फिर बात वहीं आ गयी कि हुज्जतियों से बचकर ही रहना चाहिए, खासकर जब वे अधिकारी हों.

कितने साल से हैं यहाँ?

कोई सात-आठ साल से

सात या आठ

हूँ... सात साल आठ महीने...

तो ऐसा कहिये न.

कब गए थे हिन्दुस्तान?

एक महीना पहले.

अब कब जायेंगे?

पता नहीं... अभी तो आये हैं.

हाँ यहाँ आके वहाँ कौन जाना चाहेगा?

भंग पीते हैं क्या?

नहीं तो!

तो ये पत्ते किसलिए लाये हैं? क्या देसी बकरी पाली हुई है?

किसी ने पूजा के लिए मंगाए हैं.

नशीले हैं?

नहीं बेल के हैं

कौन सी बेल?

एक फल होता है. थोड़ा जल्दी कर लीजिये, मेरी फ्लाईट निकल जायेगी.

एक घंटे की हुज्जत के बाद साहब को दया आ गयी.

चलो छोड़ दे रहा हूँ आपको. क्या याद करेंगे किस नरमदिल अफसर से पाला पडा था.

फ्लाईट तो निकल चुकी थी. चलते-चलते मैंने पूछा, "क्या नाम है आपका? भारत में कहाँ से हैं आप?"

"माय नेम इज खान... सलीम खान! इस्लामाबाद से."
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इस व्यंग्य का ऑडियो आवाज़ पर उपलब्ध है. सुनने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें.