Saturday, August 28, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 1

चित्र: अनुराग शर्मा
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सडक के बीच जहाँ तहाँ पड़े कचरे और सड़क के किनारे लगे क़ूड़े के ढेरों की महक के बीच भिनभिनाती बड़ी-बड़ी मक्खियाँ। आवारा कुत्तों की चहलकदमी के बीच किसी अलौकिक शांति के धारक, घंटों तक एक ही जगह पर गर्दभासन में चुपचाप खडे गदहे। कच्चे खरंजे के मार्ग के दोनों ओर दोयम दर्ज़े की लाल-भूरी ईंटों से बनी टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ दीवारें, बेतरतीब मकान और उनमें ज़बर्दस्ती बनाई हुई टेढ़ी-बुकची दुकानें। दरवाज़े पर बंधी बकरियाँ और राह में गोबर करती भैंसें। बेवजह माँ और बहन की गालियाँ बकते संस्कारहीन लोग। गन्दला पसीना टपकाते, बिना नहाये आदमी-औरतों के बीच आवाज़ लगाकर सामान बेचते इक्का दुक्का रेहड़ी वाले।

लेकिन नई सराय की पहचान इन बातों से नहीं थी। उसकी विशेषता थे विभिन्न प्रकार के नामपट्ट। वास्तविकता से दूर किसी कल्पनालोक में विचरती तख्तियाँ। उदाहरण के लिये भुल्ले की आटे की चक्की पर अग्रवाल फ्लोर मिल की तख्ती, धोबी के ठेले पर “दुनिया गोल ड्राई क्लीनर्स” का बोर्ड, भूरे कम्पाउंडर की दुकान पर डॉ. विष-वास एफ.आर.ऐस.ऐच. की पट्टी और इस्त्री वाले कल्याण के खोखे पर पुता हुआ दिल्ली प्रैस का नाम। गिल्लो मौसी कहती हैं कि पच्चीस साल पहले भी नई सराय इतनी ही पुरानी लगती थी। उनके शब्दों में ऐसी पुरानी-धुरानी और टूटी-फूटी बस्ती का नाम “नई” सराय तो किसी बौराये मतकटे ने ही रखा होगा।

ऐसी प्राचीन नई सराय के विरामपुरे में मेरा पैतृक घर था। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर वहाँ जाना होता था बाबा-दादी से मिलने के बहाने। पुरानी “नई सराय” का नाम भले ही विरोधाभासी हो, विरामपुरा मुहल्ला अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करता था। यहाँ पर ज़िन्दगी मानो ज़िन्दगी से थककर विश्राम करने आती थी। अधिकांश घरों के युवा बेटे-बेटी पढ़ने-लिखने या दो जून की रोटियाँ कमाने के उद्देश्य से देश भर के बड़े नगरों की ओर निकले हुए थे। कुछेक नौजवान देशरक्षा का प्रण लेकर दुर्गम वनों और अजेय पर्वतों में डटे हुए थे। अपने व्यक्तिगत जीवन से निर्लिप्त उन गौरवान्वित सैनिकों के बच्चे अपनी गृहकार्य में कुशल, पर बच्चों के पालन पोषण में अल्पशिक्षित माताओं के भरोसे ऐंचकताने कपड़े पहने विरामपुरे की धूल भरी गलियों के झुरमुट में कन्चे खेलते और घरेलू गालियाँ सीखते या उनका अभ्यास करते हुए मिल जाते थे।कुछ घरों में इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करते बच्चे भी थे। और कुछ घरों में इनसे कुछ बड़े बच्चे रोज़गार समाचार और नागरिक सेवा परीक्षा के गैस पेपर्स में अपना भविष्य ढूँढते थे। गर्मियों की छुट्टियों में हम जैसे प्रवासी पक्षी भी लगभग हर घर में दिख जाते थे। तो भी यदि मैं कहूँ कि कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे तो शायद गलत न होगा।

[क्रमशः]

Friday, August 27, 2010

सुनो कहानी के सौ सप्ताह

मित्रों,

लगभग दो वर्ष पहले मैंने "आवाज़" पर "सुनो कहानी" कार्यक्रम के अंतर्गत कहानी पढने का सिलसिला आरम्भ किया था। उसके बाद बहुत से साथी जुडे। अभी भी नये लोग जुड रहे हैं। पुराने तो हैं ही। पिछ्ले पुस्तक मेले में सुनो कहानी कार्यक्रम में से प्रेमचन्द की चुनिन्दा कहानियों का ऑडिओ ऐलबम भी रिलीज़ हुआ था। श्रोताओंके प्रेम के चलते समय का पता ही नहीं चला। आज "सुनो कहानी" कार्यक्रम ने अपना पहला शतक लगाया है। इस शुभ अवसर पर सभी श्रोताओं को "आवाज़" की टीम की ओर से "सुधा अरोडा जी की कहानी "रहोगी तुम वही" प्रस्तुत की जा रही है दूरदर्शन, रंगमंच और सिनेमा के कुशल अभिनेता "राजेन्द्र गुप्ता" के स्वर में।

आप सब का हार्दिक आभार!
~अनुराग शर्मा

Wednesday, August 18, 2010

चोर - कहानी [भाग 4]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
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मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दांत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
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“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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[भाग 1] [भाग 2] [भाग 3] अब आगे की कहानी:
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“कल रात एक सफेद कमीज़ यहाँ टांगी थी, तुमने देखी क्या?” सुबह दफ्तर जाते समय जब कमीज़ नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।

“वह तो भैया ले गये।“

“भैया? भैया कब आये?”

“केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आये थे। जिन्होंने मुझे राखी बांधी थी।“

“मेरी कमीज़ उस राक्षस को कहाँ फिट आयेगी?” पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज़ पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि ट्रिपल के भैया मेरी कमीज़ से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से गुज़रा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, “ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?”

मेरा सामान गायब होने की शुरूआत भले ही कमीज़ से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेसलैट तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।

शाम को जब दफ्तर से थका हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज़ तलब लगी। रास्ते भर दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अन्दर घुसते ही ब्रीफकेस दरवाज़े पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर “हार की जीत” वाले पंडित सुदर्शन के गीत “तेरी गठरी में लागा चोर...” का रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता के नाते मैंने कहा, “जय राम जी की!”

”सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ” केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज़ और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।

“खायेगा हीरो?” उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।

“राम राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” तश्तरी पर नज़र पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।

“दीदीऽऽऽ” वह मेरी बात को अनसुनी करके ज़ोर से चिल्लाया।

जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचतीं, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।

“मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा” मैंने गुस्से में कहा।

“मैने तो आपके खाने को कभी बुरा भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते हैं?”

“भैया, मैं आपके लिये खाना बनाती हूँ अभी ...” बहन ने भाई को प्यार से समझाया।

“मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है” वह रिरिआया, “बल्कि खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि आम लेट कर खाने में कोई बुराई नहीं है”।

“ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार और शरणागत-वात्सल्य का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य है” कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर केकेके को खिला देंगी।

चाय की तो बात ही छोड़िये उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।

और मैं अपने ही घर से “बड़े बेआबरू होकर...” गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चांदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों से लिखे हुए नाम “श्रीनगर” की चमक श्रीहीन लग रही थी।

[समाप्त]

यूँ ही याद आ गये, अली सिकन्दर "जिगर" मुरादाबादी साहब के अल्फाज़:
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है