Thursday, September 2, 2010

अई अई आ त्सुकू-त्सुकू

(अनुराग शर्मा की त्सुकुबा जापान यात्रा संस्मरण)

सृजनगाथा पर जापान के अपने यात्रा संस्मरण में मैंने त्सुकुबा पर्वत की यात्रा का वर्णन किया था। इसी पर्वत की तलहटी में, टोक्यो से ५० किलोमीटर की दूरी पर शोध और तकनीकी विकास के उद्देश्य से सन १९६३ में त्सुकुबा विज्ञान नगर परियोजना ने जन्म लिया और १९८० तक यहाँ ४० से अधिक शोध, शिक्षा और तकनीकी संस्थानों की स्थापना हो गयी थी। जापान के भीड़भरे नगरों की छवि के विपरीत त्सुकूबा (つくば?) एक शांत सा नगर है जो भारत के किसी छावनी नगर जैसा शांत और स्वच्छ नज़र आता है।

त्सुकुबा विश्वविद्यालय सहित कई राष्ट्रीय जांच और शोध संस्थान यहाँ होने के कारण जापान के शोधार्थियों का ४० प्रतिशत आज त्सुकुबा में रहता है। त्सुकुबा में लगभग सवा सौ औद्योगिक संस्थानों की शोध इकाइयाँ कार्यरत हैं। सड़कों के जाल के बीच ३१ किलोमीटर लम्बे मार्ग केवल पैदल और साइकिल सवारों के लिए आरक्षित हैं। और इन सबके बीच बिखरे हुए ८८ पार्क कुल १०० हेक्टेयर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। ऐसे ही एक पार्क में मेरा सामना हुआ त्सुकुबा के अधिकारिक पक्षी त्सुकुत्सुकू (Tsuku-tsuku) से।

जापान में दो लिपियाँ एक साथ चलती हैं - कांजी और हिरागाना। कांजी लिपि चीन की लिपि का जापानी रूप है जबकि हिरागना जापानी है। नए नगरों के नाम हिरागना में ही लिखे जाते हैं। त्सुकुबा का नाम भी हिरागना में ही लिखा जाता है और यहाँ के अधिकारिक पक्षी का नाम त्सुकुत्सुकू जब हिरागना में लिखा जाए तो उसका अर्थ होता है असीमित विकास एवं समरसता।

सोचता हूँ कि भारत में यदि ज्ञान की नगरी के लिए कोई राजपक्षी चुना जाता तो वह क्या होता? राजहंस, शुक, सारिका, वक या कुछ और? परन्तु त्सुकुबा का त्सुकुत्सुकू नामक राजपक्षी है एक उल्लू। वैसे तो जापान में पशु-पक्षी अधिक नहीं दिखते हैं, उस पर उल्लू तो वैसे भी रात में ही निकलते हैं सो हमने वहां सचमुच का एक भी उल्लू नहीं देखा मगर फिर भी वे थे हर तरफ। दुकानों, पार्कों, रेल और बस के अड्डे पर - चित्र, मूर्ति और कलाकृतियों के रूप में त्सुकुत्सुकू हर ओर मौजूद था।

विश्व विद्यालय परिसर का एक पार्क तो ऐसा लगता था जैसे उसी को समर्पित हो। इस उपवन में विचरते हुए शायर की निम्न पंक्तियाँ स्वतः ही जुबां पर आ गईं: हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ताँ क्या होगा?

आइये देखें कुछ झलकियाँ त्सुकुबा के उलूकराज श्रीमान त्सुकुत्सुकू की।


1. परिवहन अड्डे पर श्रीमान त्सुकुत्सुकू

2. उलूकराज

3. विनम्र उल्लू

4. भोला उल्लू

5. दार्शनिक उल्लू

6. उल्लू परिवार

7. उल्लू के पट्ठे

8. जापान की दुकान में "मेड इन चाइना" उल्लू

9. और अंत में - दुनिया भर में प्रसिद्ध काठ के उल्लू

[Photographs by Anurag Sharma || सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा]

Wednesday, September 1, 2010

जन्माष्टमी और पर्युषण पर्व की शुभकामनायें!

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिः ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥



वृन्दावन में भगवान के चित्र लिये एक बालगोपाल

[Photo by Anurag Sharma - चित्र अनुराग शर्मा]

Saturday, August 28, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 2

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]


नोएडा के इस अपार्ट्मेंट की शामें इसी तरह गुज़रती थीं। बैठक में एक साथ बैठे ये तीनों मित्र ईर, बीर और फत्ते, रात के खाने की तैयारी करते करते अपने दिन भर के अनुभव एक दूसरे के साथ बांटते थे। बीच-बीच में एक दूसरे के हाल पर टीका-टिप्पणियाँ भी होती थीं।

तीनों में सबसे बडा फत्ते यानि फतहसिंह पास के ही अट्टा गाँव से था। किसान परिवार का बेटा। वकालत पढ़कर पहले तो दिल्ली के एक मशहूर वकील का सहायक बना और फिर आयकर विभाग में निरीक्षक हो गया। घर में पैसे की कमी पहले भी नहीं थी, अब तो अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

ईर यानि अरविन्द कल्याणपुर कर्नाटक से था। पतला दुबला भला सा लड़का, बुद्धि और हास्य बोध का संगम। गणित में स्नातकोत्तर और संस्कृत का विद्वान। लम्बा कद, चौड़ा माथा, गौरांग और सुदर्शन। कमी ढूंढने निकलें तो शायद इतनी ही मिले कि सफाई के मामले में कभी-कभी थोड़ा सनक जाता था। उसकी उपस्थिति में किसी को भी जूते उतारे बिना घर में घुसने की इजाज़त नहीं है, फत्ते को भी नहीं जोकि दरअसल इस घर का मालिक है। ईर वैसे दिल का बहुत साफ है। सहायक स्तर की परीक्षा पास करके केन्द्रीय सचिवालय में नौकरी करने पहली बार उत्तर भारत के दर्शन करने अकेला आया है। इससे पहले उत्तर के नाम पर बचपन में अपने दादा-दादी के साथ तीर्थ यात्रा पर ही आया था। दिल्ली-नोएडा के बारे में सामान्य ज्ञान इतना विस्तृत है कि जंतर मंतर को अघोरपंथ का केन्द्र समझता था।

तीसरे बचे बीर यानी वीर सिंह! इतनी जल्दी भूल गये। वही जो इस कथा के आरम्भ में आपको नई सराय के विरामपुरे के अपने पैतृक निवास का वृत्तांत सुना रहे थे। उम्र में इन तीनों में सबसे छोटे, बाकी दोनों के स्नेह से लबालब भरे हुए। उस स्नेह का पूरा लाभ भी उठाते हैं। सबकी सुनते हैं मगर अपने दिल की कम ही बताते हैं। एक सरकारी बैंक में अधिकारी बनकर आये हैं। अब तीन अलग अलग ग्रहों के यह प्राणी एक साथ रहने कैसे आ गये इसकी भी एक लम्बी कहानी है मगर अभी मैं आपको उसमें नहीं उलझाऊँगा। फिलहाल खाना खाकर बड़े वाले दोनों वीरसिंह को कुछ सामाजिक होने का पाठ पढा रहे हैं और पृष्ठभूमि में पीनाज़ मसानी की आवाज़ में वीरसिंह का प्रिय गीत चल रहा है:

नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में

वैसे तो वीरसिंह केवल मुकेश के रोने धोने वाले गीत ही सुनते हैं मगर इस एक गीत से उन्हें विशेष लगाव है। बाकी दोनों मित्र उत्सुकता से इस का कारण जानना चाहते हैं। आज वीरसिंह ने उनके अनुरोध को मानकर वह कहानी सुनाना शुरू किया है और इस बहाने हमें भी विरामपुरा यात्रा पर लिये जा रहे हैं।
[क्रमशः]


आवाज़ पर "सुनो कहानी" का सौवाँ अंक: सुधा अरोड़ा की "रहोगी तुम वही", रंगमंच, दूरदर्शन और सार्थक सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकार राजेन्द्र गुप्ता की ज़ुबानी