Monday, July 18, 2011

शहीदों को तो बख्श दो - 5. यही बाकी निशाँ होगा

बहे बहरे-फ़ना में जल्द या रब लाश "बिस्मिल" की
कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शम्शीर क़ातिल की
समझकर फूंकना इसकी ज़रा ए दागे नाकामी
बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजड़े हुए दिल से
~ पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल
सरदार भगत सिंह
"शहीदों को तो बख्श दो" की पिछली कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉङ्ग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉङ्ग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉङ्ग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था। तब स्वाधीनता सेनानियों का विरोध करने और बाद में चीन हमले का समर्थन करने वाले आज भी अनेक क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक कहकर उनका अपमान करते रहे हैं।

महात्मा गांधी
वही लोग आजकल भगतसिंह के चित्रों को लाल रंगकर माओ और लेनिन जैसे नरसंहारक तानाशाहों के साथ लगा रहे हैं। भारत की स्वतन्त्रता में अपना सर्वस्व न्योछवर करने वाले क्रांतिकारियों के योगदान को भुलाकर भगतसिंह द्वारा लिखे गये एक तथाकथित पत्र को उछाला जा रहा है। साथ ही ऐसे आलेख लिखे जा रहे हैं जिनसे ऐसा झूठा सन्देश भेजा जा रहा है मानो आस्तिक लोग भगतसिंह के प्रति शत्रुवत हों। "शहीद भगतसिंह दोजख में?" जैसे भड़काने वाले शीर्षक के साथ एक बार फिर यही प्रयास किया गया है। उस आलेख पर भगतसिंह के उद्धृत पत्र के बारे में जानकारी मांगने पर पहले लम्बी गोल-मोल बहस करने के बाद मुकद्दमा करने की सलाह दी गयी है।
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शहीदत्रयी पोस्टर - 1933
पिछली कड़ियाँ

1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
3. मैं नास्तिक क्यों हूँ?
4. बौखलाहट अकारण है?

दिनेशराय द्विवेदी का आलेख: "भगतसिंह दोजख में?"
दिनेशराय द्विवेदी का प्रश्न: क्या नास्तिक होने से भगतसिंह नर्क में होंगे?"

आइये चलते हैं, प्रश्न के उत्तर ढूंढने:-
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मैं व्यक्तिगत जीवन में विश्वास रखता था परंतु अब (मृत्युदण्ड की घोषणा पर) यह भावना मेरे दिलो-दिमाग़ से निकल गयी है1
~ सरदार भगतसिंह
वकील साहब, आपने भले ही मेरे सवाल का जवाब न दिया हो, मैं आपके प्रश्न का उत्तर अवश्य दूंगा। हाँ, यह जवाब देने में मुझे तकलीफ़ बहुत हो रही है क्योंकि मैं आपका आदर करता हूँ और साथ ही निस्वार्थ कार्य करने वाले चिंतकों, वैज्ञानिकों, संतजनों, क्रांतिकारियों आदि को जाति-धर्म, देश-काल, आस्था-अनास्था से ऊपर रखता हूँ। उन्हें अपने-पराये की ढेरियों में छाँटना या उनकी आस्था-अनास्था का लाभ अपनी विचारधारा के प्रचार के लिये उठाना तो दूर, ऐसा करते आलेखों का उत्तर देना भी मेरे लिये सहज नहीं है। फिर भी चूँकि जवाब देना आवश्यक है इसलिये एक भारतवंशी होने का कर्तव्य समझकर यह प्रयास कर रहा हूँ, ध्यान से सुनिये मेरा जवाब चार बिंदुओं में।

आज़ाद हिन्द फ़ौज़ सिंगापुर का शहीद स्मारक
* पहले तो यह कि यह अकाट्य तथ्य है कि भगतसिंह लम्बे समय तक सिख थे, शायद आर्यसमाजी भी थे, और लगभग बीस वर्ष की आयु तक निश्चित रूप से आस्तिक थे। अगर भगवान की कृपा से आपका तथाकथित पत्र सच सिद्ध हो जाय तब भी इतना ही माना जा सकता है कि बाद के एकाध वर्षों में वे नास्तिक हो गये थे, लेकिन धर्मविरोधी कभी नहीं। अर्थ यह हुआ कि अपने जीवन के अधिकांश भाग में वे आस्तिक थे। तब (आस्तिक रहते हुए) क्या वे कोई कमतर इंसान थे? वे एक स्वतंत्रमना विचारक थे, आस्तिक थे और आस्तिक होते हुए भी ईश्वर के प्रति अपनी स्थापित धारणा को सहजता से तोड़ सके जो कि एक बुद्धिमान व्यक्ति का गुण है। बुद्धिमान व्यक्ति आस्तिक हों या नास्तिक, बुद्धिमान ही रहते हैं, और उनके प्रतिलोम किसी भी पक्ष में हों, रट्टू तोते की तरह कुछ सीखते नहीं। एक पुरानी भारतीय कहावत है, चमचे किसी भी दाल में पडे हों, उसका स्वाद नहीं ले सकते। ज्ञानी लोग हमेशा बदलने को तैयार रहते हैं। विचारवान लोगों की यही पहचान है, वे सीखते हैं, बदलते हैं, मगर अपने और दूसरों के बीच आस्तिक-नास्तिक या किसी अन्य भेद की दीवार नहीं खड़ी करते। कम्युनिस्टों का “माय वे, ऑर हाइवे” या “मेरी मान या गोली खा” का सिद्धांत बुज़दिलों और कमअक्लों के बीच चलता होगा परंतु वीर और बुद्धिमानों के बीच यह तानाशाही विचार कहीं टिकता नहीं है। अपने खुद के बीच ही बीसियों फ़िरके बनाने वाला कम्युनिस्ट मज़हब “पुत्रोहम पृथिव्या” मानने वाले किसी उदारमना व्यक्तित्व के मन को कहाँ समझ पायेगा?

महामना - क्रांतिकारियों के आदर्श व शुभेच्छु
भोले-भाले नास्तिकों की आड़ में छिपे कुछ खुर्राँट धर्मद्रोहियों को पहचानकर आज मैं शायद नास्तिकों के समूह में गिना जाना पसन्द भले न करूँ परंतु आस्था को मैं आज भी व्यक्तिगत विषय ही समझता हूँ। सरदार भगतसिंह 23 वर्ष की अल्पायु में शहीद हो गये और तब तक वे सिख, आर्यसमाजी, आस्तिक, नास्तिक सभी हो चुके थे। रमता जोगी, बहता पानी ... । यदि वे आगे जीवित रहते तो क्या होते, क्या सोचते, क्या मानते और क्या करते यह किसी के भी अनुमान का विषय हो सकता है। इतना पक्का है कि वे जो भी होते, अपनी व्यक्तिगत आस्था (या अनास्था) को न दूसरों पर थोपते और न ही उसका प्रयोग अपने को बेहतर और दूसरों को नीचा दिखाने में करते। आप अपनी आस्था के लिये उनका, मेरा और अन्य किसी भी ऐसे व्यक्ति का अपमान करने को दृढप्रतिज्ञ हैं जो आपसे असहमत है। कम्युनिज़्म जैसी नियंत्रणवादी विचारधाराओं के प्रवर्तकों के लिये यह स्वाभाविक भी है। परंतु स्वतंत्र चिंतक, देशप्रेमी और स्वतंत्रता सेनानी ऐसा कभी नहीं करते। जब आस्तिक थे तब भी नहीं किया और यदि नास्तिक होते तब भी नहीं करते। ज्ञातव्य है कि वे जब आज़ाद के साथ रहे, उनकी प्रार्थना में सादर सम्मिलित होते थे। आपके हिसाब से तो तब वे नास्तिक थे।


कानपुर में संरक्षक - विद्यार्थी

* दूसरी बात यह कि भगतसिंह की जान बचाने के लिये जान लड़ाने वाले महामना मदन मोहन मालवीय जैसे जिन महापुरुषों का ज़िक्र पहले किया गया है उनकी आस्था किसी से छिपी नहीं है। भगतसिंह जिस 'समाजवादी' संगठन के सदस्य थे उसके संस्थापक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल "बोल्शेविकों की करतूत" और "दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन" जैसी पुस्तकों के लेखक-अनुवादक होते हुए भी एक कम्युनिस्ट नहीं, बल्कि त्रिकाल सन्ध्या करने वाले एक आस्तिक थे। उसी समाजवादी संगठन के एक सदस्य ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। और उसी समाजवादी संगठन का पुनर्गठन करने वाले और हिन्दू धर्म में अपनी आस्था के लिये प्रसिद्ध "पन्डितजी" चन्द्रशेखर "आज़ाद" जिस दिन इस संसार से "आज़ाद" हुए उस दिन पुलिस मुठभेड से ठीक पहले वे भगतसिंह की जान बचाने की गरज से ही जगह-जगह अपनी सायकिल दौड़ा रहे थे। और तो और, जिन लाला लाजपत राय की मौत का बदला भगतसिंह ने लिया और हँसते हँसते फ़ाँसी चढ़े वे पंजाब केसरी कोई नास्तिक न होकर आर्य समाज और हिन्दू महासभा से सम्बद्ध थे।

लाला लाजपत राय की मौत का बदला
* सरल शब्दों में कहूँ तो भगतसिंह ने एक आस्तिक की मौत का बदला लेने के लिये मृत्यु का वरण किया और एक आस्तिक के नेतृत्व में असेम्बली में बम फ़ेंका। नास्तिक कम्युनिस्टों ने उनके कामों से पल्ला झटकते हुए विदेशी सरकारों के साथ गुपचुप सहयोग किए। जबकि भगतसिंह की जान बचाने की सारी भागदौड़ आस्तिकों ने की और परम आस्तिक “आज़ाद” उनकी रक्षा के प्रयास में ही शहीद हुए। जेल में भी वे एक यज्ञोपवीतधारी आस्तिक “बिस्मिल” की जीवनी पढते थे। जेल से बाहर आये उनके सामान में कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो नहीं बल्कि गीता की प्रति आज भी मौज़ूद है। फिर उनकी तथाकथित अनास्था को दोज़ख/नर्क से जोडने वाला कोई आस्तिक नहीं देशद्रोही ही होगा। मैं कभी भी ऐसा नहीं करूँगा और न ही इसे आसानी से सह सकूँगा।

मैडम भीकाजी कामा
मतलब यह कि स्त्री हों या पुरुष, आस्तिक हों या नास्तिक सभी क्रांतिकारी उस समय भी "वसुधैव कुटुम्बकम" की धारणा वाले होते थे, किसी आयातित, नियंत्रणवादी, घटिया, फ़िरकापरस्त, संकीर्ण, स्वार्थी, और नियंत्रणवादी मनोवृत्ति के तो कभी नहीं। न वे तालिबानियों व कम्युनिस्टों की तरह दूसरे लोगों द्वारा धर्म-पालन के विरोधी थे और न ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता, व्यक्तिगत सम्पत्ति और मानवाधिकारों के। कम्युनिज़्म के टिपिकल अतिवादी सरकारी पूंजीवाद से भी उनका कोई लेनादेना नहीं था। भारतीय क्रांतिकारियों का क़द छोटा करके उनका अपमान करने का प्रयास करने वाले यह बातें भी आगे के लिये भी ध्यान में रखें।

बलप्रयोग से बचने की बात "काल्पनिक" अहिंसा है। हमारे नये आन्दोलन की प्रेरणा गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, लाफ़ायत, गैरीबाल्डी, रज़ा खाँ और लेनिन हैं। ~ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त (दिल्ली सेशंस कोर्ट का 8 जून 1929 का बयान)
* और अब अंतिम बात: भगतसिंह के पहले दोज़ख़ और फिर नर्क में जाने की बात कोई और आस्तिक या नास्तिक नहीं कर रहा है, वह तो आप कर रहे हैं। मैंने किसी आस्तिक या नास्तिक (धर्मविरोधी ऐक्सक्लूडिड) के ब्लॉग पर भगतसिंह के नर्क या दोज़ख जाने का वाक्यांश नहीं देखा। यह बात पहली बार आपके ब्लॉग पर ही देखी है। क्या आप स्पष्ट बतायेंगे कि आपसे पहले किस आस्तिक ने एक क्रांतिकारी के लिये ऐसी बात कही थी? आज़ाद ने, महामना ने, पंजाब केसरी ने, टिळक ने, विनोबा ने, गांधी ने या खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने? आपने अपने आलेख का जो शीर्षक (शहीद भगत सिंह दोज़ख में?) दिया है वह आस्तिकों और नास्तिकों के साथ-साथ शहीदे-आज़म एवम् अन्य क्रांतिकारियों और सम्पूर्ण भारत राष्ट्र के लिये भी सम्माननीय नहीं है। मैं नहीं जानता कि आपका प्रयोजन क्या था लेकिन यह स्पष्ट है कि एक द्वेषपूर्ण शीर्षक में सरदार भगतसिंह का नाम जोड़ना सही नहीं है।

पंजाब केसरी के घाव
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अवश्य है क्योंकि यहाँ कम्युनिज़्म नहीं, लोकतंत्र है। लेकिन जनता के पास सोचने समझने की शक्ति और अधिकार दोनों हैं। हज़ारों वर्षों के हमलों के बावज़ूद भारतीय जनमानस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कोई भी कभी छीन नहीं सका है और भारतभूमि पर ऐसा आगे भी कभी हो नहीं सकता, यह बात आज मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ। लेकिन साथ ही यह भी याद रहे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब एक ऐजेंडा के तहत जनता की आस्था और भावनाओं को चोट पहुँचाते रहना नहीं होता है। नज़रन्दाज़ करने वालों की सहनशीलता को उनकी कमज़ोरी समझना भलमनसाहत तो नहीं ही है, बुद्धिमानी भी नहीं है क्योंकि सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है। शहीद किसी पार्टी की बपौती नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के आदर्श हैं।
वन्दे मातरम्!

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सरदार भगत सिंह - कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
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  • हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में भगत सिंह का नाम "रणजीत" था। कानपुर के "प्रताप" में वे "बलवंत सिंह" के नाम से तथा दिल्ली के "अर्जुन" में "अर्जुन सिंह" के नाम से लिखते थे।
  • शहीद भगत सिंह ने जेल में रहते हुए अपने पिता से लोकमान्य टिळक की "गीता रहस्य" और नेपोलियन की जीवनी मंगवायी थीं।
  • शहीद भगत सिंह संग्रहालय में आज भी भगतसिंह से संबन्धित अन्य बहुत सी चीज़ों के साथ प्रथम लाहौर षडयंत्र काण्ड की एक प्रति, भगतसिंह की हस्तलिखित पंक्तियाँ, सॉंडर्स काण्ड से सम्बन्धित सामान और नृसिंहदेव शास्त्री की भगतसिंह द्वारा हस्ताक्षरित गीता की प्रति भी उपलब्ध है।
  • महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर भगतसिंह ने 1921 में स्कूल छोड़ दिया।
  • भगतसिंह ने लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन किया था।
  • लाहौर में लाला लाजपत राय के 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में सरदार भगतसिंह यशपाल, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से मिले।
  • लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक में अध्यक्ष दुर्गा भाभी स्वयं ही पुलिस अधीक्षक जेए स्कॉट को मारने का काम लेना चाहती थीं परंतु अन्य क्रांतिकारियों ने यह काम उन्हें देना स्वीकार नहीं किया।
  • मुकद्दमे के 457 गवाहों में से पाँच शहीदत्रयी के पूर्व-साथी थे: जय गोपाल, फणीन्द्र नाथ घोष, मनमोहन बनर्जी, हंसराज वोहरा, और ललित मुखर्जी।
  • बाद में क्रांतिकारी योगेन्द्र शुक्ल के भतीजे और क्रांतिकारी वैकुण्ठ शुक्ल (1907–1934) ने फ़णीन्द्रनाथ घोष की हत्या करके मृत्युदण्ड का वरण किया।
  • मोंटगोमरी के पुलिस प्रमुख खान बहादुर अब्दुल अज़ीज़ के अनुसार नौजवान भारत सभा के बाबू सिंह ने भगत सिंह के खिलाफ़ गवाही देने के लिये 1,000 रुपये की मांग की थी।
  • मुकद्दमे के पाँच अभियुक्तों को बरी किया गया था: आज्ञा राम, सुरेन्द्र पाण्डेय, अजय घोष, जतीन्द्र नाथ सान्याल और देसराज।
  • प्रेम दत्त और कुन्दन लाल को क्रमशः पाँच व सात वर्ष का कारावास हुआ। किशोरीलाल, महाबीर सिंह, बिजोय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव कपूर, और कमलनाथ तिवारी को आजीवन कारावास की सज़ा हुई।
  • 300 पृष्ठ के निर्णय में शहीदत्रयी को मृत्युदण्ड मिला और बटुकेश्वर दत्त को पहले ही आजीवन कारावास हुआ था।
  • सुखदेव ने गांधी जी को एक खुला पत्र लिखा जिसे उनके भाई मथुरादास ने महादेव देसाई को पहुँचाया। गांधी जी ने सुखदेव की इच्छा के अनुसार उस पत्र का उत्तर एक जनसभा में दिया था।
  • मथुरादास थापर का विश्वास था कि क्रांतिकारियों का साथी और हिन्दी लेखक यशपाल एक पुलिस मुखबिर था।
  • यशपाल ने अपने संस्मरण में मुखबिरी के शक़ पर चुपके से भगवतीचरण वोहरा के सामान की तलाशी लेने की बात कही है और आज़ाद की मृत्यु के बाद अपने को संगठन का चीफ़ बताया है। 
  • सरदार भगतसिंह से केवल एक वर्ष बड़े महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद उनके संरक्षक और प्रगाढ़ मित्र बन गये थे। लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिये सुखदेव व राजगुरु के साथ किया गया 'सांडर्स हत्याकाण्ड' उन्हीं के निर्देशन और संचालन में बना संयुक्त कार्यक्रम था।
  • भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त द्वारा 8 अप्रैल 1929 को किया गया असेंबली बम काण्ड भी चन्द्रशेखर आज़ाद की अध्यक्षता में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (पहले "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन") के तत्वावधान में ही हुआ।
  • चन्द्रशेखर आज़ाद असेम्बली में बम फ़ेंकने के पक्ष में नहीं थे परंतु HRSA के सेनापति होने के बावजूद उन्होंने अपने साथियों की इच्छा को माना। तब भी वे बम फ़ेंककर गिरफ़्तार हो जाने के विरोधी रहे और असेम्बली के बाहर कार लेकर क्रांतिकारियों का इंतज़ार भी करते रहे थे। काश उनके साथी उनकी बात मान लेते!
  • चन्द्रशेखर आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई जो भगवतीचरण वोहरा की असमय मृत्यु हो जाने के कारण असफल रही।
  • चन्द्रशेखर आज़ाद के अनुरोध पर इन्हीं क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा ने 'दि फिलॉसफी ऑफ़ बम' आलेख तैयार किया था।
  • "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन" के संस्थापक पण्डित रामप्रसाद "बिस्मिल" लिखित "मेरा रंग दे बसंती चोला" सरदार भगतसिंह का प्रिय गीत था।
  • तीनों क्रांतिकारियों की जान बचाने के लिये नेताजी बोस, पंडित नेहरू, महामना जैसे नेता लगातार प्रयास कर रहे थे।
  • अपने वकील प्राणनाथ मेहता से अंतिम मुलाक़ात में अपनी इच्छा पूछे जाने पर भगत सिंह ने कहा था, "मैं इस देश में पुनर्जन्म लेना चाहता हूँ ताकि (इसकी) सेवा कर सकूँ।2" साथ ही उन्होंने पण्डित नेहरू और नेताजी बोस का धन्यवाद भी दिया।
  • अपने साथियों के बचाने के प्रयास में सब ओर से निराश होकर 27 फरवरी 1931 को चन्द्रशेखर "आज़ाद" इलाहाबाद में "आनन्द भवन" गये थे और वहाँ से निकलने के बाद एक मुखबिर की निशानदेही पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया था। उसी दिन आज़ाद इस दुनिया से आज़ाद हो गये थे। इस प्रकार वे भगतसिंह से पहले ही शहीद हो गये। ऐसा लगता है कि उनके देहावसान पर क्रांतिकारियों के पक्ष में उमड़ी जन-भावनाओं को देखकर ही ब्रिटिश प्रशासन ने शहीद-त्रयी की फ़ांसी समय से पहले देने का निर्णय लिया था।
मानव जीवन की पवित्रता के प्रति हमारी पूर्ण श्रद्धा है, हम मानव जीवन को पवित्र मानते हैं ...3
~ सरदार भगतसिंह
[समाप्त]

1मार्टिर - कुलदीप नय्यर [कम्युनिस्ट विचारों के उलट, भारतीय क्रांतिकारी सदैव व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक रहे हैं। ब्रिटिश शासन से उनकी लडाई में राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ मानसिक और वैचारिक स्वतंत्रता की बात भी प्रमुख थी।]
2मार्टिर - कुलदीप नय्यर [ध्यान दीजिये, भगतसिंह अपने लिये पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं, उसका विरोध नहीं, उनके सामान में गीता मौजूद है, कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो नहीं।]
3शहीद भगत सिंह: क्रांति में एक प्रयोग - कुलदीप नय्यर (मानव-रक्त से सनी कम्युनिस्ट क्रांतियों के विपरीत भगत सिंह मानव जीवन की पवित्रता के प्रति अपनी पूर्ण श्रद्धा व्यक्त कर रहे हैं।)

[मुद्रित सामग्री विभिन्न स्रोतों से देशभक्त मित्रों की सहायता से साभार ली गयी है। पत्रों के चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: FDC Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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शहीदों को तो बख्श दो
* भगतसिंह के घर की तीर्थयात्रा
* जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
* The making of the revolutionary
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* जिन्होंने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा
* काकोरी काण्ड
* The Trial of Bhagat Singh - India Law Journal
* Partial list of people executed by British India

25 comments:

  1. leek se hat kar chalne
    ki koshish me
    yah varg oundhe munh
    girne me hi vishvaas rakhta hai ||

    ise to bhagvaan ka sahara nahi balki tinke ke sahaare ki hamesha se jarurat rahi hai ||

    ye aastik hain inki aastha ke kendr aur bhagvan cheen aue ruus me hain |

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  2. "शहीद किसी पार्टी की बपौती नहीं बल्कि वे सम्पूर्ण राष्ट्र के आदर्श हैं "

    बिलकुल सही लिखा है आपने .....

    सरदार भगत सिंह जैसे 'भारत माता के अमर सपूत ' के लिए इस तरह के अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कोई मानसिक दिवालिया ही कर सकता है |

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  3. सबसे पहले तो कोई भी क्रांतिकारी किसी धर्म विशेस से सम्व्बंधित हो कर अपनी जान नहीं गवाई थी बल्कि देश प्रेम प्रमुख था ! इन देश प्रेमियों पर दाग नहीं लगाया जाय तो ही अच्छा है ! इन्हें प्रणाम ! आप की प्रस्तुति सुन्दर रही !

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  4. सटीक नीर क्षीर विभाजन!! सत्यपरक निष्कर्ष!!
    कुत्सित मंशाएं अनावृत!! सार्थक योगदान!!
    आभार!!

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  5. २३ साल की उम्र मे अमर हो जाना कोई मामूली बात नही .

    शहीदो को किसी दायरे मे बान्धना उनकी शहादत का अपमान है

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  6. इस मानसिकता का क्या किया जाए कि किसी का भी नाम लेकर, कुछ भी कह कर , अपनी बात को भार दिया जाए ?

    अनुराग जी जो आप प्रयास कर रहे हैं , आपकी देशभक्ति की भी मैं भूरी भूरी प्रशंसा करती हूँ |

    वन्दे मातरम |

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  7. इन बातों को मन से महसूसें या याद रखें , यह तो छोडिये ... इतने विस्तार में ये ऐतिहासिक तथ्य किन्तों को ज्ञात हैं ???? यह बड़ा प्रश्न है..

    बहरहाल ..आपने जो पुनीत कार्य किया है न...शब्दों में आभार व्यक्त नहीं किया जा सकता...

    ऐसी पोस्टें धरोहर हैं....

    साधुवाद आपका....

    ह्रदय से आभार...

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  8. बहे बहरे-फ़ना में जल्द या रब लाश "बिस्मिल" की
    कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शम्शीर क़ातिल की
    समझकर फूंकना इसकी ज़रा ए दागे नाकामी
    बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजड़े हुए दिल से

    रामप्रसाद बिस्मिल जी को नमन...

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  9. राष्ट्रधर्म की रस्सी से रेशे निकाल कर चिन्हित करने से तो शहीदों के साथ न्याय नहीं होगा।

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  10. अनुराग सर में अनुभूत हूँ...... आपकी लेखनी पर और ज्ञान पर.

    भारत भूमि ....... कर्म भूमि ..... और आज सेकुलर भूमि और उन लोगो की भूमि कि ..

    लोग आते गए और कारवाँ बनता गया...

    भीड़ .......
    और भीड़ तंत्र .... जो बन गया लोकतंत्र ...

    धरी रह गयी इस धरती के लिए की गयी शहादत..

    एक अनुपम कार्य कर रहे हैं आप .... क्रांतिकारियों विशेषकर...... भगत, आजाद और राम प्रसाद के बारे में लिखकर.... भावी पीड़ी के लिए एक गाइड लाईन का कार्य करेगी ये पोस्ट शृंखला.....

    साधुवाद.... और भविष्य के लिए शुभकामनाएं.....

    हाँ एक लिंक दे रखा है अपने इस पोस्ट में ... जहां ऐसे इस्लामिक विद्वान अपनी पहुँच आसानी से बनाए - कृपया ऐसा लिंक मत दीजिए.... इस निवेदन है..... क्या है कि कई शब्द ही इतने महत्ता रखते है कि देखते ही घृणा हो जाती है.......

    प्रणाम .

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  11. अब तो लोग भगत सिंह ही नहीं गांधी के नाम पर सभी खेल खेल रहे हैं :(

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  12. शाहजहांपुर में पार्क तो है लेकिन बिस्मिल का घर खोजने पर भी नहीं मिलता... अशफाक साहब के घर के बारे में अवश्य पढ़ा था कि वह खंडहर बन चुका है... धन्य हैं हम और धन्य थे वे..

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  13. शान्‍त रस से शुरु हुई लेखमाला का समापन बहुत ही तीखा हुआ है। आपने अपनी ओर से भले ही 'समाप्‍त' कर दिया हो किन्‍तु मुझे यह 'अल्‍प विराम' लग रहा है। कुल मिलाकर (यउि यह सचमुच में 'समाप्‍त' है तो) एक सारगर्भित लेखमाला मेरे संग्रह में शामिल हो गई है।

    'दिनमान' के प्रकाशन के प्रारम्भिक दिनों में उसके मुखपृष्‍ठ पर छपा होता था - 'आप इससे असहमत हो सकते हैं किन्‍तु इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।' यह उक्ति इस लेखमाला पर भी लागू होती है।

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  14. विष्णु जी,

    जैसा कि मैंने कहा कि यह लेख लिखते समय मुझे काफ़ी तकलीफ हुई है परंतु कुछ बातें कही जानी ज़रूरी हो गयी थीं। इस बहाने मेरी पहचान अपने उस पक्ष से हुई जिससे मैं अब तक अपरिचित था।

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  15. deepak baaba se sahmat - aise link ke shabd bhi is lekh me - bata nahi sakti kaisee bhavna hui yah shabd padh kar

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  16. शहीद किसी पार्टी की बपौती नहीं, वे पूरे राष्ट्र के धरोहर हैं।

    बिल्कुल सही कथन है आपका।

    सरदार भगत सिंह के बारे में कुछ नई जानकारियां मिलीं।

    आभार आपका।

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  17. आपके लेख से अक्षरतः सहमत हूँ ...
    शहीदों ने जो कुर्बानियां दी हैं वो किसी भी आम इंसान के बस की नहीं और आज के सत्ता लोलुप लोगों के बस की तो बिलकुल ही नहीं ....
    किसी भी शहीद को इस नजरिये से देखने वाला दिमाग से दिवालिया ही हो सकता है ... कुछ नेता/लोग बहुत सोची समझी मीटि के तेहत ऐसा करने का प्रयास कर रहे हैं जो शर्मनाक है ...

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  18. बहुत कुछ सोचने समझने पर विवश करती है यह पोस्ट !

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  19. संपूर्ण माला पढ़ी; सारगर्भित और झकझोरने वाला लेखन है!
    अल्प विराम समझकर और अधिक पढ़ने की चाह लिए हैं, कृपया आगे भी देश-प्रेम से ओतप्रोत और लेख पढ़वाएं...

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  20. बहुत सार्थक सन्देश !

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  21. sallute to all of him.....

    hardik pranam.

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  22. पाँचों खंड पढ़ डाले...बहुत बढ़िया लेख...
    मुझे नहीं पता मरने के बाद स्वर्ग या नर्क मिलाने का क्या "criterion" है....पर मैं नास्तिक नहीं हूँ...मेरे ख्याल से अगर कोई खुद में आस्था रखता है तो वो आस्तिक है...आस्तिक होना पूजा करना नहीं है...ये तो वो आस्था है जो दिल में रहती है (काफी लोग मुझसे सहमत नहीं होंगे..ना ही मै उन्हें "Force" करूँगा)...
    भगत सिंह महँ थे, हैं और हमेशा रहेंगे...और उनके आदर्श मेरे लिए वही रहेंगे चाहे कोई उन्हें नास्तिक साबित कर दे या आस्तिक बता दे...

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  23. @शहीद किसी पार्टी की बपौती नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के आदर्श हैं।
    वन्दे मातरम्!...
    विचारोत्तेजक और संग्रहणीय पोस्ट ,बहुत धन्यवाद आपको.

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  24. सुन्दर जानकारी ।

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मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।