Thursday, August 14, 2008

आजादी की बधाई (मुक्त या मुफ्त)

आज का दिन हम सब के लिए गौरव का दिन है। आज के दिन ही शहीदों का खून रंग लाया था और हमारा देश वर्षों की परतंत्रता से मुक्त हुआ था। इस शुभ दिन पर आप सब को बधाई।

बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि देश की आजादी के बाद जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने पहली बार स्वतंत्र भारत की सेना को संबोधित किया तब उन्होंने एक बड़ी सभा के सामने पहली बार हिन्दी में बोला।

आज़ादी के अवसर पर दिए जाने वाले भाषण में हमारे स्वतंत्र देश की सेना की नयी भूमिका का ज़िक्र करते हुए उन्होंने यह संदेश देना चाहा कि अब हम स्वतंत्र हैं। कहा जाता है कि अपने पहले हिन्दी भाषण में उन्होंने कहा, "आज हम सब मुफ्त हो गए हैं, मैं भी मुफ्त हूँ और आप भी मुफ्त हैं।"

स्पष्ट है कि उन्होंने अनजाने में ही अंग्रेजी के फ्री (free) का अर्थ मुक्त, आज़ाद या स्वतंत्र करने के बजाय मुफ्त कर दिया था।

Tuesday, August 12, 2008

मैं एक भारतीय

शाम छः बजे के करीब कुछ दोस्तों के साथ नेहरू प्लेस में दफ्तर के बाहर खड़ा चाय पकौड़ोोंोकक का आनंद ले रहा था कि एक सज्जन पास आकर मुझसे कुछ बात करने लगे। मुझे तो समझ नहीं आया मगर जब कमलाकन्नन ने उनकी बात समझ कर उनसे बात करना शुरू किया तो लगा कि तमिलभाषी ही होंगे। कुछ देर बात करने के बाद मेरी तरफ़ मुखातिब होकर अंग्रेजी में क्षमा मांगते हुए चले गए। कमला कन्नन ने बाद में बताया कि न सिर्फ़ वे मुझे तमिल समझ रहे थे बल्कि उनका पूरा विश्वास था कि मैं कोयम्बत्तूर में उनके मोहल्ले में ही रह चुका हूँ।

बात आयी गयी हो गयी लेकिन मुझे कुछ और मिलती-जुलती घटनाओं की याद दिला गयी। बैंगलूरू में मुझे देखते ही कुछ ज्यादा ही गोरे-चिट्टे लोगों के समूह में से एक बहुत खुशमिजाज़ बुजुर्ग लगभग दौड़ते हुए से मेरे पास आए और हाथ मिलाकर कुछ कहा जो मेरी समझ में नहीं आया। कई वर्षों से कर्णाटक जाना होता था मगर कभी कन्नड़ भाषा सीखने की कोशिश भी नहीं की, संयोग भी नहीं बना। मुझे शर्मिंदगी के साथ उन महाशय से कहना पडा कि मैं उनकी भाषा नहीं समझता हूँ। तब उन्होंने निराश भाव से अंग्रेजी में पूछा कि क्या मैं कश्मीरी नहीं हूँ। और मैंने सच बताकर उनका दिल सचमुच ही तोड़ दिया।

बरेली में मेरे सहपाठियों की शिकायत थी कि मेरी भाषा आम न होकर काफी संस्कृतनिष्ठ है जबकि जम्मू में हमारे सिख पड़ोसी मेरी साफ़ उर्दू जुबान की तारीफ़ करते नहीं थकते थे। लेकिन भाषा के इस विरोधाभास के बावजूद इन दोनों ही जगहों पर लोगों ने हमेशा मुझे स्थानीय ही माना।

लगभग चार महीने के लिए लुधियाना में भी रहा। होटल के एक नेपाली कर्मचारी ने यूँ ही बातों में पूछा कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ तो मैंने भी उस पर ही सवाल फैंक दिया, "अंदाज़ लगाओ।" उसके जवाब ने मुझे आश्चर्यचकित नहीं किया, "मुझे तो आप अपने नेपाल के ही लगते हैं।"

धीरे-धीरे मुझे पता लग गया कि मेरे साधारण से व्यक्तित्व को आसपास के माहौल में मिल जाने में आसानी होती है। इसलिए जब मुम्बई में एक लंबे-चौडे व्यक्ति ने एक अनजान भाषा में कुछ कहा तो मैं समझ गया कि यह भी मुझे अपने ही गाँव का समझ रहा है। मैंने अंग्रेजी में उसके प्रदेश का नाम पूछा तो उसने कहा कि वह तो मुझे अरबी समझा था मैं तो हिन्दी निकला।

यहाँ पिट्सबर्ग में लिफ्ट का इंतज़ार कर रहा था तो दो महिलाएँ आपस में बात करती हुई आयीं। वेशभूषा से मुसलमान लग रही थीं और उर्दू में बात कर रही थीं। उनमें से एक ने मुझसे पंजाबी उच्चारण की उर्दू में पूछा कि मैं कहाँ से हूँ। मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही दूसरी चहकी, "अपने पाकिस्तान से हैं, और कहाँ से होंगे?"

मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला, "मैं एक भारतीय।"

पुनश्च: मैंने हाल ही में जब यह कहानी अपने गुजराती मित्र को सुनाई तो वे मुझे दूसरे पैराग्राफ पर ही रोककर अनवरत हँसने लगे, "अरे, तुम्हें कश्मीरी कौन समझेगा? तुम तो पक्के गुजराती लगते हो।"

अनजाने लोग

(अनुराग शर्मा)



मेरे घर में मैं नहीं हूँ
बैठे हैं अनजाने लोग

मैं हूँ इक गुमनाम यहाँ
पर ये हैं जाने-माने लोग

दुख में परिजन साथ नहीं हैं
सब हैं बिन पहचाने लोग

झूठी हमदर्दी के बहाने
आए दिल को जलाने लोग

उसका जिक्र किये जाते हैं
मेरे दिल की न जाने लोग।