Sunday, June 13, 2010

देव लक्षण - देवासुर संग्राम ७


उत देव अवहितम देव उन्नयथा पुनः
उतागश्चक्रुषम देव देव जीवयथा पुनः

हे देवों, गिरे हुओं को फिर उठाओ!
(ऋग्वेद १०|१३७|१)

देव (और दिव्य) शब्द का मूल "द" में दया, दान, और (इन्द्रिय) दमन छिपे हैं। कुछ लोग देव के मूल मे दिव या द्यु (द्युति और विद्युत वाला) मानते है जिसका अर्थ है तेज, प्रकाश, चमक। ग्रीक भाषा का थेओस, उर्दू का देओ, अंग्रेज़ी के डिवाइन (और शायद डेविल भी) इसी से निकले हुए प्रतीत होते हैं। भारतीय संस्कृति में देव एक अलग नैतिक और प्रशासनिक समूह होते हुए भी एक समूह से ज़्यादा प्रवृत्तियों का प्रतीक है। तभी तो "मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, आचार्यदेवो भवः सम्भव हुआ है। यह तीनों देव हमारे जीवनदाता और पथ-प्रदर्शक होते हैं। यही नहीं, मानवों के बीच में एक पूरे वर्ण को ही देवतुल्य मान लिया जाना इस बात को दृढ करता है कि देव शब्द वृत्तिमूलक है, जातिमूलक नहीं।

देव का एक और अर्थ है देनेवाला। असुर, दानव, मानव आदि सभी अपनी कामना पूर्ति के लिये देवों से ही वर मांगते रहे हैं। ब्राह्मण यदि ज्ञानदाता न होता तो कभी देव नहीं कहलाता। सर्वेषामेव दानानाम् ब्रह्मदानम् विशिष्यते! ग्रंथों की कहानियाँ ऐसे गरीब ब्राहमणों के उल्लेख से भरी पडी हैं जिनमें पराक्रम से अपने लिये धन सम्पदा कमाने की भरपूर बुद्धि और शक्ति थी परंतु उन्होने कुछ और ही मार्ग चुना।

द्यु के एक अन्य अर्थ के अनुसार देव उल्लसितमन और उत्सवप्रिय हैं। स्वर्गलोक में सदा कला, संगीत, उत्सव चलता रह्ता है। वहां शोक और उदासी के लिये कोई स्थान नहीं है। देव पराक्रमी वीर हैं। जैसे असुर जीना और चलना जानते हैं वैसे ही जिलाना और चलाना देव प्रकृति है।

असुर शब्द का अर्थ बुरा नही है यह हम पिछ्ली कड़ियों में देख चुके हैं। परंतु पारसी ग्रंथो में देव के प्रयोग के बारे में क्या? पारसी ग्रंथ इल्म-ए-क्ष्नूम (आशिष का विज्ञान) डेविल और देओ वाले विपरीत अर्थों को एक अलग प्रकाश में देखता है। इसके अनुसार अवेस्ता के बुरे देव द्यु से भिन्न "दब" मूल से बने हैं जिसका अर्थ है छल। अर्थात देव और देओ (giant) अलग-अलग शब्द है।

आइये अब ज़रा देखें कि निरीश्वरवादी धाराओं के देव कैसे दिखते हैं:
अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुरा:
सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः।
आदितेया दिविषदो लेखा अदितिनन्दनाः
आदित्या ऋभवोस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः।
बहिर्मुखाः ऋतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः
वृन्दारका दैवतानिम पुंसि वा देवतास्त्रियाम।

[अमरकोश स्वर्गाधिकान्ड - 7-79]

संसार के पहले थिज़ॉरस ग्रंथ अमरकोश के अनुसार देव स्वस्थ, तेजस्वी, निर्भीक, ज्ञानी, वीर और चिर-युवा हैं। वे मृतभोजी न होकर अमृत्व की ओर अग्रसर हैं। वे सुन्दर लेखक है और तेजस्वी वाणी से मिथ्या सिद्धांतों का खन्डन करने वाले हैं। इसके साथ ही वे आमोदप्रिय, सृजनशील और क्रियाशील हैं।

कुल मिलाकर, देव वे हैं जो निस्वार्थ भाव से सर्वस्व देने के लिये तैय्यार हैं परंतु ऐसा वे अपने स्वभाव से प्रसन्न्मन होकर करते हैं न कि बाद में शिकवा करने, कीमत वसूलने या शोषण का रोना रोने के लिये। वे सृजन और निर्माणकारी हैं। जीवन का आदर करने वाले और शाकाहारी (अमृतान्धसः) हैं तथा तेजस्वी वाणी के साथ-साथ उपयोगी लेखनकार्य में समर्थ हैं। इस सबके साथ वे स्वस्थ, चिरयुवा और निर्भीक भी हैं। वे आदितेया: हैं अर्थात बन्धनोँ से मुक्त हैँ। अगली कड़ी में हम देखेंगे असुरों के समानार्थी समझे जाने वाले भूत, पिशाच और राक्षस का अर्थ।

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Saturday, June 12, 2010

एक अंतर-राष्ट्रीय वाहन

भारत में भले ही कुछ नगरों के प्रशासन को रिक्शे और रिक्शा चालक अपनी शान में गुस्ताखी लग रहे हों परन्तु अमेरिका के कुछ शहरों में रिक्शा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है. यहाँ प्रस्तुत हैं दो बड़े नगरों न्यू योर्क व वाशिंगटन डीसी से रिक्शा के चित्र:


श्री रत्न सिंह शेखावत जी ने बैट्री चलित रिक्शा के बारे में सुन्दर आलेख लिखा है, ज़रूर देखिये.


सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा
[Rickshaw in USA: Photos of by Anurag Sharma]

बोनसाई बनाएं - क्विक ट्यूटोरियल

बोनसाई के चित्रों की मेरी पिछली पोस्ट पर अपेक्षित प्रतिक्रियाएँ आयीं. कुछ लोगों को चित्र पसंद आये. सुलभ जायसवाल और भारतीय नागरिक ने बोनसाई कैसे बनाए जाते हैं यह जानना चाहा. रंजना जी को एक उड़िया फिल्म की याद आयी. मैं उनकी दया भावना की कद्र करता हूँ इसलिए कोई सफाई देने की गुस्ताखी नहीं करूंगा. भूतदया एक दुर्लभ सदगुण है और जिनके मन में भी है उनके लिए मेरे मन में बड़ा आदर है.
बोनसाई पर एक क्विक ट्यूटोरियल(भारतीय नागरिक के अनुरोध पर त्वरित कुंजी)
पौधे:
याद रखिये कि सच्चे बोनसाई पौधे नहीं वृक्ष हैं इसलिए उस जाति के पौधे चुनिए जो वृक्ष बन सकते हैं. मध्यम ऊंचाई के वृक्ष या झाडी आदर्श हैं. फाइकस जाति (अंज़ीर, वट, पीपल, गूलर, पाकड़ आदि) के वृक्षों की जड़ें प्राकृतिक रूप से उथली होती हैं इसलिए वे बोनसाई के लिए अच्छे प्रत्याशी हैं. मैंने बहुत से पेड़ जैसे चीड, कटहल, मौलश्री आदि दिल्ली में सफलता से उगाये थे - यह सभी वृक्ष भारत के मैदानी क्षेत्रों में आराम से रह जाते हैं. अमरुद, आम, अनार, स्ट्राबेरी आदि की प्राकृतिक रूप से छोटी नस्लें आसानी से मिल जाते हैं, उन्हें लगाएँ. लखनऊ में बौटेनिकल गार्डन के बाहर बहुत से पौधे मिलते हैं. अन्य नगरों में भी पौधशालाएँ मिल ही जायेंगी.

मृदा:
किताबों में अक्सर मिट्टी को कृमिरहित करने की बात कही गयी होती है मगर मैंने हमेशा बाग़ की मिट्टी का प्रयोग पत्तों और गोबर की खाद के साथ किया है. इतना ध्यान रहे कि पत्ते और गोबर की सड़न प्रक्रिया गमले में रखने से पहले ही पूरी हो चुकी हो. भारत में नीम के पत्तों की खाद मिलती है. उसका प्रयोग भी किया जा सकता है.

1995 - पिताजी तीन बोनसाई के साथ - फलित अनार, पाकड़, जूनिपर

ध्यान रहे:
जड़ों पर ज़रा सी धूप या हवा लगने भर से एक छोटा पौधा मर सकता है. जब भी मिट्टी बदलें, जड़ें काटें या पहली बार बर्तन में लगाएँ तो पौधे की जड़ों पर मिट्टी जमी रहने दें और या तो उसे गीले कपड़े में या पानी की बाल्टी/कनस्तर में रखें. ऐसे सारे काम शाम को ही करें ताकि बदलने के तुरंत बाद कड़ी धूप या गर्मी से बचाव हो सके. मिट्टी को मॉस घास या सूखी साधारण घास से ढंके रहने से मिट्टी की नमी देर तक रहती है. जड़ों में पानी कभी न ठहरने दें. शुरूआत में अधिकाँश पौधे जड़ें गलने से मरते हैं न कि मिट्टी सूखने से.

पात्र:
ऐसा हो कि उसमें कुछ पानी डालने पर मिट्टी इस तरह न बहने पाए कि जड़ें खुल जाएँ. शुरूआत बड़े बर्तन या गमले से से करें. अपना अनुभव और पौधे की दृढ़ता बढ़ने के बाद बर्तन छोटा कर सकते हैं. कहावत भी है पेड़ बड़ा और बर्तन छोटे.

श्रीगणेश:
अब आते हैं सबसे ख़ास मुद्दे पर, यानी बोनसाई का पुंसवन संस्कार. एक बोनसाई की शुरुआत आप बीज से भी कर सकते हैं. खासकर जिस तरह गर्मियों के दिनों में इधर-उधर बिखरी आम की गुठलियों में से बिरवे निकलते रहते हैं या दीवारों की दरारों में पीपल आदि उगते हैं - वे इस्तेमाल में लाये जा सकते हैं. मैं बोनसाई के लिए गुठली का प्रयोग तभी करता हूँ जब तैयार पौध मिलना असंभव सा हो. जैसे दिल्ली में हमने चीड़ एवं कटहल तथा पिट्सबर्ग में लीची बीजों से उगाई थी. अगर बीज से उगाने की मजबूरी हो तो पहले पौधे को ज़मीन पर पनपने दीजिये क्योंकि छोटे बर्तन में वर्षों तक वे पौधे जैसे ही रह जाते हैं और वृक्ष सरीखे नहीं दिखते हैं.

त्वरित-बोनसाई:
पौधशाला से एक-दो इंच मोटे व्यास के तने का पौधा गमले (या जड़ की थैली) सहित लाइये. उस पर अच्छी तरह जल का छिडकाव करें. बड़ी डंडियाँ सफाई से काटकर (कुतरकर नहीं - छाल न छिले) कुछेक डंडियाँ रहने दीजिये. जड़ को मिट्टी समेत निकालकर सबसे दूर वाली जड़ों को उँगलियों से कंघी जैसी करके तेज़ कैंची से काट दें. छाया में रहें और जितनी जल्दी संभव हो नए बर्तन में लगाकर जड़ों को मिट्टी से पूर्णतया ढँक दें. ध्यान रहे कि बची हुई जड़ें इस प्रक्रिया में मुड़ें या टूटें नहीं.

देखरेख:
उसी प्रजाति के किसी बड़े वृक्ष की तरह ही उसके छोटे रूप को भी पूरी धूप चाहिए यानी जैसा पौधा वैसी धूप. खाद और जल की मात्रा पौधे और बर्तन के आकार के अनुपात में ही हो, कुछ कम चल जायेगी मगर ज़्यादा उसे मार सकती है. आवश्यकतानुसार अतिरिक्त डंडियों की छंटाई समय-समय पर करते रहें. पत्तों की धूल गीले और साफ़ रुमाल से हटा सकते हैं परन्तु ध्यान रहे कि पत्तों पर किसी तरह की चिकनाई न लगे, आपकी त्वचा की भी नहीं. हर एकाध साल में पौधे को गमले से निकालकर अतिरिक्त जड़ों को सफाई से काट दें और इस प्रकार खाली हुए स्थान को खाद और मिट्टी के मिश्रण से भर दें.

गुरु की सीख:
बलरामपुर में रहने वाले हमारे गुरुजी किसी का किस्सा सुनाते हैं जो न बढ़ने वाले, या बीमार हो रहे पौधों को फटकार देते थे, "दो दिन में ठीक नहीं हुए तो उखाड़ फेंकेंगे." अधिकाँश पौधे डर के मारे सुधर जाते थे.

शुभस्य शीघ्रम:
बस शुरू हो जाइए, और अपनी प्रगति बताइये. हाँ यदि जामुन की बोनसाई (और वृक्ष भी) लगाते हैं तो मुझे बड़ी खुशी होगी. यहाँ आने के बाद जामुन देखने को आँखें तरस गयी हैं.

स्ट्राबेरी का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Strawberry photo by Anurag Sharma