Sunday, August 15, 2010

चोर - कहानी [भाग 2]

चोर - कहानी [भाग 1] में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
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अब आगे की कहानी:
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मैंने तकिये के नीचे से तमंचा उठाया और अन्धेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाज़ा बेआवाज़ बन्द करके वापस आने लगा। इतनी देर में आँखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं। देखा कि बैठक के एक कोने में कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थीं।

काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक मोटे-ताज़े पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ स्वर्ण आभूषण, चान्दी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिये तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। आज के ज़माने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो असम्भव है। और यहाँ एक यह खुदा का बन्दा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किये बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शान्ति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।

अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाणपत्र देने नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दीं। सभ्यता का तकाज़ा मानते हुए मैं भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैंने तुमसे शादी को हाँ की थी।”

“अत्ता मी काय करा?” ये मेरी बचपन की काफी अजीब आदत है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो अनजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।

“क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बांधकर थाने लेकर जाओ।”

“हाँ यही ठीक है” पत्नी की बात मेरी समझ में आ गयी। एक हाथ में तमंचा लिये दूसरे हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।”

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Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ! [इस्पात नगरी से- 28]

हमारा गणतंत्र फले फूले और हम सब भारत माता की सच्ची सेवा में अपना तन मन धन लगा सकें और मन, वचन, कर्म से सत्य के मार्ग पर चलें। सैनिकों की तरह आतंकवादियों का सामना करते हुए जीवनदान न भी कर सकें तो ब्लड बैंक जाकर रक्तदान तो कर ही सकें। सीमा पर लड़ न सकें किंतु इतना ध्यान तो रख ही सकते हैं कि ब्लॉग पर लगाये हुए मानचित्र में देश की सीमायें प्रामाणिक और आधिकारिक हों। अमानवीयता के विभिन्न रूपों से दो-दो हाथ करने का अवसर न भी मिले मगर उनका महिमामंडन तो रोक ही सकें। अपने को कभी भी क्षुद्र न समझें, कवि ने ठीक ही कहा है, "जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार..."

तो उठिये, देश के नवनिर्माण का व्रत लीजिये और जुट जाइये काम में!

एक बार फिर हार्दिक शुभकामनायें!
वन्दे मातरम! जय भारत!

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी भारत मेडल  

पिट्सबर्ग में भारत का राष्ट्रीय ध्वज

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

Tuesday, August 10, 2010

चोर - कहानी

प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। पहले तो इतनी तेज़ महक, ऊपर से आँख में आँसू भी लाता है। जैसे तैसे खा भी लूँ तो मुझे पचता नहीं है। अन्य कई दुष्प्रभाव भी है। गला सूख जाता है और रात में बुरे-बुरे सपने आते हैं। एक बार प्याज़ खाकर सोया तो देखा कि दस सिर वाली एक विशालकाय मकड़ी मुझे अपने जाल में लपेट रही है।

एक अन्य बार जब प्याज़ खाया तो सपना देखा कि सड़क पर हर तरफ अफ़रातफ़री मची हुई है. ठेले वाले, दुकानदार आदि जान बचाकर भाग रहे हैं। सुना है कि माओवादियों की सरकार बन गयी है और सभी दुकानदारों और ठेला मालिकों को पूंजीवादी अनुसूची में डाल दिया गया है। सरकारी घोषणा में उन्हें अपनी सब चल-अचल सम्पत्ति छोड़कर देश से भागने के लिये 24 घंटे की मोहलत दी गयी है। दो कमरे से अधिक बड़े मकानों को उसमें रहने वाले शोषकों समेत जलाया जा रहा है। सरकारी कब्रिस्तान की लम्बी कतारों में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते शांतचित्त मुर्दों के बीच की ऊँच-नीच मिटाने के उद्देश्य से उनके कफन एक से लाल रंग में रंगे जा रहे हैं। रेल की पटरियाँ, मन्दिर-मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे तोड़े जा रहे हैं। सिगार, हँसिये और हथौड़े मुफ्त बंट रहे हैं और अफ़ीम के खेत काटकर पार्टी मुख्यालय में जमा किये जा रहे हैं। सभी किसान मज़दूरों को अपना नाम पता और चश्मे के नम्बर सहित पूरी व्यक्तिगत जानकारी दो दिन के भीतर पोलित ब्यूरो के गोदाम में जमा करवानी है। कितने ही बूढ़े किसानों ने घबराकर अपने चश्मे तोड़कर नहर में बहा दिये हैं कि कहीं उन्हें पढ़ा-लिखा और खतरनाक समझकर गोली न मार दी जाये। आंख खुलने पर भी मन में अजीब सी दहशत बनी रही। कई बार सोचा कि सुरक्षा की दृष्टि से अपना नाम भगवानदास से बदलकर लेनिन पोलपोट ज़ेडॉङ्ग जैसा कुछ रख लूँ।

पिछ्ली बार का प्याज़ी सपना और भी डरावना था। मैंने देखा कि हॉलीवुड की हीरोइन दूरी शिक्षित वृन्दावन गार्डन में “धक धक करने लगा” गा रही है। अब आप कहेंगे कि दूरी शिक्षित वाला सपना डरावना कैसे हुआ, तो मित्र सपने में वह अकेली नहीं थी। उसके हाथ में हाथ डाले अरबी चोगे में कैनवस का घोडा लिये हुए नंगे पैरों वाला एक बूढ़ा भी था। ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह टोफू सैन था। जब तक मैं पास पहुँचा, टोफू ने अपने साँप जैसे अस्थिविहीन हाथ से दूरी की कमर को लपेट लिया था। दूरी की तेज़ नज़रों ने दूर से ही मुझे आते हुए देख लिया था। किसी अल्हड़ की तरह शरमाते हुए उसने उंगलियों से अपना दुपट्टा उमेठना शुरू कर दिया। वह कुछ कहने लगी मगर पता नहीं शर्म के कारण या अचानक रेतीले हो गये उस बाग में फैलती मुर्दार ऊँट की गन्ध की वजह से वह ऐसे हकलाने लगी कि मैं उसकी बात ज़रा भी समझ न सका।

जब मैंने अपना सुपर साइज़ हीयरिंग एड लगाया तो समझ में आया कि वह अपने पति फाइटर फ़ेणे को तलाक देने की बात कर रही थी। मुझे गहरा धक्का लगा मगर वह कहने लगी कि वह भारत की हरियाली और खुलेपन से तंग आकर टोफू के साथ किसी सूखे रेगिस्तान में भागकर ताउम्र उसके पांव की जूती बनकर सम्मानजनक जीवन बिताना चाहती है।

“लेकिन फाइटर फेणे तो इतना भला है” मैं अभी भी झटका खाये हुए था।

“टोफू जैसा हैंडसम तो नहीं है न!” वह इठलाकर बोली।

“टोफू और सुन्दर? यह कब से हो गया?” मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी, “उसके मुँह में तो दांत भी नहीं हैं।”

“यह तो सोने में सुहागा है” वह कुटिलता से मुस्कुराई।

मैं कुछ कहता कि श्रीमती जी बिना कोई अग्रिम सूचना दिये अचानक ही प्रकट हो गयीं। मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। मुल्ला दो प्याज़ी सपनों में ऐसी डरावनी बातें तो होती ही रहती हैं।

“घर का दरवाज़ा बन्द नहीं किया था क्या?” श्रीमती जी बहुत धीरे से बोलीं।

“फुसफुसा क्यों रही हो सिंहनी जी? तुम्हारी दहाड़ को क्या हुआ? गले में खिचखिच?”

वे फिर से फुसफुसाईं, “श्शशशश! आधी रात है और घर के दरवाज़े भट्टे से खुले हैं, इसका मतलब है कि कोई घर में घुसा है।”

अब मैं पूर्णतया जागृत था।

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