Wednesday, March 16, 2016

याद के बाद - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)


क्यों  ऐसी  बातें  करते  हो
ज़ालिम दुनिया से डरते हो

जो आग को देखके राख हुए
क्यों तपकर नहीं निखरते हो

बस एक ही था वह रूठ गया
अब किसके लिये संवरते हो

हर रोज़ बिछड़ जन मिलते हैं
तुम मिलकर रोज़ बिखरते हो

सब निर्भय होकर उड़ते हैं
तुम फिक्र में डूबते तिरते हो

जब दिल में आग सुलगती है
तुम भय की ठंड ठिठुरते हो

इक बार नज़र भर देखो तो
जिस राह से रोज़ गुज़रते हो

कल त्याग आज कल पाता है
तुम भूत में कितना ठहरते हो


Saturday, February 27, 2016

भूत, पिशाच और राक्षस - देवासुर संग्राम 8



इस शृंखला की पिछली कड़ियों में हमने देव और असुर के सम्बंध को समझने का प्रयास किया, देवताओं के शास्त्रीय लक्षणों की चर्चा की, और सुर और असुर के अंतर की पडताल की है। देव, देवता, और सुर जैसे शब्दों के अर्थ अब स्पष्ट हैं लेकिन लोग अक्सर असुर, दैत्य, दानव, राक्षस और पिशाच आदि शब्दों को समानार्थी मानते हुए जिस प्रकार उनका प्रयोग शैतानी ताकतों के लिये ही करते हैं, वह सही नहीं है। इन सभी शब्दों में सूक्ष्म लेकिन महत्त्वपूर्ण अंतर हैं। असुर शब्द तो सम्माननीय ही है और जैसा कि हमने पिछली कड़ियों में देखा, असुर तो सुरों के पूर्वज ही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सुर असुर की ही एक विकसित शाखा हैं। आइये आगे बढने से पहले आज तीन सम्बंधित शब्दों भूत, पिशाच और राक्षस पर दृष्टिपात करते हैं।

भूत 
सर्वभूत, या पंचभूत जैसे शब्दों में मूलतत्व की भावना छिपी है। संसार में जो कुछ भी दृष्टव्य है वह इन्हीं भूतों से बना है. भौतिक शब्द, भूत से ही सम्बंधित है। शरीर का भौतिक स्वरूप है लेकिन उसमें जीवन का संचरण हमें वास्तविक स्वरूप देता है। प्राणांत के बाद केवल देह यानि भौतिक तत्व अर्थात पंचभूत (या मूलभूत) ही बचते हैं. तो भूत का सामान्य अर्थ मृतक से ही लिया जाना चाहिये। जो अब जीवित नहीं है, वह भूतमात्र रहा है। शायद इसी कारण से केवल प्राणी ही नहीं, काल के प्रयोग में भी भूत अतीत को भी दर्शाता है। वर्तमान से अलग, विगत ही भूत है, जो था परंतु अब नहीं है

पिशाच
अंग्रेज़ी में अतीत के लिये एक शब्द है, पास्ट (past). संस्कृत का पश्च भी उसी का समानार्थी है। भारत को विश्वगुरु कहा जाता है तो उसके पीछे यह भावना है कि भारत ने हज़ारों वर्ष पहले समाज को ऐसे क्रांतिकारी कार्य सफलतापूर्वक कर दिखाये जिन्हें अपनाने के लिये शेष विश्व आज भी संघर्ष कर रहा है। समाज के एक बडे वर्ग को अहिंसक बनाना. कृषिकर्म, शाकाहार की प्रवृत्ति, अग्नि द्वारा अंतिम संस्कार, शर्करा की खोज, लहू में लौह के होने की जानकारी सहित उन्नत धातुकर्म, अंकपद्धति, गणित, तर्क, ज्योतिष, हीरे जैसे रत्न को शेष विश्व से परिचित कराना आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो भारतीय संस्कृति को विश्व की अन्य संस्कृतियों से अलग धरातल पर रखते हैं। स्पष्ट है कि यह समाज अपने समकालीनों से कहीं उन्नत थी। अहिंसक जीवनशैली का प्रकाश आने के बाद भी हमारे आस-पडोस के जो पिछडे समुदाय उस नए क्रांतिकारी दौर को न अपना सके, पिशाच (पश्च past पिछला, पिछड़ा) कहलाए। वैसे ही ‪देवनागरी‬ जैसी उन्नत ‪लिपि‬ के आगमन के समय जो लिपियाँ पश्च (past) हो गईं, ‪पैशाची‬ कहलाईं। कई पैशाची प्रचलन से बाहर हो गईं, कई आज भी मूल/परवर्धित रूप में जीवित हैं। पिशाच या पैशाची कोई भाषा, जाति, नस्ल या क्षेत्र नहीं, पिछडेपन का तत्सम है।

राक्षस
ऋषि पुलस्त्य के दो पौत्र क्रमशः यक्षों व राक्षसों के शासक बने। यक्ष समुदाय भी क्रूर माना गया है परंतु वे अतीव धनवान थे। पूजा-पाठ के अलावा जादू-टोने में विश्वास रखते थे। मनोविलास और पहेलियां पूछना उनका शौक था। सही उत्तर देने पर प्रसन्न होते थे और गलत उत्तर पर क्रूर दण्ड भी देते थे। रक्ष संस्कृति यक्ष संस्कृति से कई मायनों में भिन्न थी। जहाँ यक्ष अक्सर एकाकी भ्रमण के किस्सों में मिलते हैं वहीं रक्ष समूहों में आते हैं। यक्ष मानव समाज में मिलने में कठिनाई नहीं पाते वहीं रक्षगण युद्धप्रिय हैं। यक्षों के आदर्शवाक्य वयम् यक्षामः की तर्ज़ पर राक्षसों का आदर्श वाक्य वयम् रक्षामः था, जोकि उनके बारे में काफ़ी कुछ कह जाता है। वयं रक्षामः से तात्पर्य यही है कि वे अपनी रक्षा स्वयं अपने बलबूते पर करने का दावा कर रहे हैं। वे किसी दैवी सहारे की आवश्यकता नहीं समझते, और वे भौतिक बल को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। राक्षसी विचारधारा के कई समूह रहे होंगे लेकिन ब्राह्मण पिता और दैत्य माता की संतति राक्षसराज रावण द्वारा अपने लंकाधिपति भाई कुबेर से हथियाये लंका में शासित वर्ग सबसे प्रसिद्ध राक्षस समूह बना।

[क्रमशः]

Saturday, January 9, 2016

मेरा दर्द न जाने कोय - कविता

दर्द मेरा न वो ताउम्र कभी जान सके
बेपरवाही यही उनकी मुझे मार गई॥
तेरे मेरे आँसू की तासीर अलहदा है
बेआब  नमक सीला, वो दर्द से पैदा है
सब दर्द तेरे सच हैं सखी, मानता हूँ मैं
और उनके वजूहात को भी जानता हूँ मैं

पर उनके बहाने से जब टूटती हो तुम
बेवजहा बहुत मुझसे जो रूठती हो तुम

तुम मुझको जलाओ तो कोई बात नहीं है
अपनी उँगलियों को भी तो भूनती हो तुम

ये बात मेरे दिल को सदा चाक किए है
यूँ तुमसे कहीं ज़्यादा मैंने अश्क पिये हैं

मिटने से मेरे दर्द भी मिट जाये गर तेरा
तो सामने रखा है तेरे सुन यह सर मेरा

तेरे दर्द का मैं ही हूँ सबब जानता हूँ मैं
सब दर्द तेरे सच हैं सखी, मानता हूँ मैं।