Thursday, July 26, 2012

मियाँमार की चीख-पुकार

सदाबहार मौसम वाले भाई संजय अनेजा ने खाचिड़ी की कहानी सुनाकर बचपन की याद दिला दी। अपना बचपन उतना धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा था, शायद इसीलिये बचपन की चार सबसे पुरानी यादें उस जगह (रामपुर) की हैं जिसका नाम ही देश के एक आदर्श व्यक्तित्व "पुरुषोत्तम" के नाम पर है। इन यादों में से एक मन्दिर, एक गुरुद्वारा और एक पुस्तकालय की है। चौथी अपने एक हमउम्र मित्र के साथ शाम के समय पुलिया पर बैठकर समवेत स्वर में "बम बम भोले" कहने की है। श्रावणमास में "बम बम" भजने का आनन्द ही और है लेकिन लगता है कि मेरी जन्मभूमि अब उतनी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही।

आज भी याद है कि बरेली में दिन का आरम्भ ही मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से होता था। अज़ान ही नहीं बल्कि अलस्सुबह उनपर धार्मिक गायन प्रारम्भ हो जाता था। आकाशवाणी रामपुर पर भी सुबह आने वाले धार्मिक गीतों के कार्यक्रम में कम से कम एक मुस्लिम भजन भी होता ही था। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय समान रूप से जातियों में विभाजित थे। हमारी गली में ब्राह्मण, बनिये और कायस्थ रहते थे। उस गली के अलावा हर ओर विभिन्न जातियों के मुसलमान रहा करते थे। भिश्ती, नाई, दर्ज़ी, बढई, घोसी, क़साई, राजपूत, और न जाने क्या-क्या? मुसलमानों के बीच कई जातियाँ - जिन्हें वे ज़ात कहते थे - ऐसी भी थीं जो हिन्दुओं में होती भी नहीं थीं। उस ज़माने में कुछ जातियों ने धर्म की दीवार तोड़कर जाति-सम्बन्धी अंतर्धार्मिक संगठन बनाने के प्रयास भी किये थे मगर मज़हब की दीवार शायद बहुत मजबूत है। अगर ऐसा न होता तो इस सावन पर बरेली के शाहाबाद मुहल्ले में साल में बस एक बार शिव के भजन बजाये जाने पर दिन में पाँच बार लाउडस्पीकरों पर नमाज़ पढने वाला वर्ग भड़कता क्यों? हर साल अपना समय बदलने वाला रमज़ान क्या हज़ारों साल से अपनी जगह टिके सावन को रोक देगा? यह कौन सी सोच है? यह क्या होता जा रहा है मेरे शहर को?

मेरा शहर? यह आग तो हर जगह लगी हुई है। बरेली के बाद फैज़ाबाद में दंगा होने की खबरें आईं। लेकिन जो खबर अपना ड्यू नहीं पा सकी वह थी असम में बंगलाभाषी मुसलमानों द्वारा हज़ारों मूलनिवासियों के गाँव के गाँव फूंक डालने की। ऐसा कैसे हो जाता है जब किसी क्षेत्र के मूल निवासी अपने ही देश, गाँव, घर में असुरक्षित हो जाते हैं? दूसरी भाषा, धर्म, प्रदेश और देश के लोग बाहर से आकर जो चाहे कर सकते हैं? और यह पहली बार तो नहीं है जब बंगाली मुसलमानों ने सामूहिक रूप से असमी आदिवासियों के साथ इस तरह का कृत्य किया है।

लगभग इसी प्रकार की हिंसा का विलोमरूप महाराष्ट्र में हिन्दीभाषियों के विरुद्ध हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला था। हर समुदाय दूसरे समुदाय से आशंकित है। लेकिन इस आशंका के बीच भी कुछ समुदाय ऐसे क्यों हैं कि वे हिंसक भी हैं और फिर अपने को सताया हुआ भी बताते रहते हैं?

श्रावण के पहले सोमवार पर श्रीनगर के एक प्राचीन शिव मन्दिर में अर्चना करते दलाई लामा का एक चित्र इंटरनैट पर आने के मिनटों बाद ही मुसलमान नामों की प्रोफ़ाइलों से उनके ऊपर गाली-गलौज शुरू हो गई। कई गालीकारों ने म्यानमार के दंगों में मुसलिम क्षति की बात भी की थी। यह बात समझ आती है कि कम्युनिस्ट चीन के साये में पल रहे म्यानमार के तानाशाही शासन में न जाने कब से सताये जा रहे बौद्धों के दमन के समय मुँह सिये बैठे लोग मुसलमानों की बात आते ही मुखर हो गये लेकिन इस मामले से बिल्कुल असम्बद्ध दलाई लामा को विलेन बनाने का प्रयास किसने शुरू किया यह बात समझ नहीं आती। अपने देश में भी राष्ट्रीय समस्याओं से आँख मून्दकर अमन का राग अलापने वाले लोग अब म्यानमार में मुसलमानों के इन्वॉल्व होते ही मियाँमार-मियाँमार चिल्लाना शुरू हो गये हैं।

अवनीश कुमार देव
हिंसा-प्रतिहिंसा ग़लत है, निन्दनीय है। पर ऐसा क्यों होता है कि अपनी हिंसक मनोवृत्ति और हिंसक प्रतीकों को दूसरों से मनवाने की ज़िद लिये बैठे लोगों से भरे समुदाय को दुनिया भर में बस अपने धर्म के पालकों के प्रति हुआ अन्याय ही दिखता है? कोई आँख इतनी बदरंग कैसे हो सकती है? वैसे हिंसा और धर्म का एक और सम्बन्ध भी है। जहाँ एक वर्ग धर्मान्ध होकर हिंसा कर रहा है वहीं हिंसक-विचारधारा वाला एक दूसरा वर्ग किसी भी धर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। अपने को मज़दूरों का प्रतिनिधि बताने वाली इस विचारधारा ने अब तक न जाने कितने देशों में कम्युनिज़्म लाने के नाम पर इंसानों को कीड़ों-मकौड़ों की तरह कुचला है। ऐसे ही लोगों ने पिछले दिनों मनेसर में हिंसा का वह नंगा नाच किया है जिसकी किसी सभ्य समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मारुति सुज़ूकी के मानव संसाधन महाप्रबन्धक अवनीश कुमार देव को मनेसर परिसर के अंदर चल रही वार्ता के दौरान जिस प्रकार जीवित जलाया गया उससे आसुरी शक्तियों के मन का मैल और उसका बड़ा खतरा एक बार फिर जगज़ाहिर हुआ है।

दिल्ली में मेट्रो स्टेशन के लिये गहरी खुदाई होने पर मृद्भांडों की खबर मिलते ही मुस्लिम समुदाय सभी नियम कानूनों को ताक़ पे रखकर, नियमों और न्यायालय के आदेश का खुला उल्लंघन करके न केवल सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है बल्कि वहाँ रातों-रात एक नई मस्जिद भी बना दी जाती है। तब सिकन्दर बख्त का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इस देश में बहुसंख्यक समाज डरकर रहता है क्योंकि अपने को अल्पसंख्यक कहने वालों ने देश के टुकड़े तक कर दिये और बहुसंख्यक उसे रोक भी न सके। तथाकथित अल्पसंख्यक और भी बहुत कुछ कर रहे हैं। मज़े की बात यह है कि यह "अल्पसंख्यक" वर्ग जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और विभिन्न जनजातियों आदि जैसा अल्पसंख्यक नहीं है। विविधता भरे इस देश में यह समुदाय हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ा बहुसंख्यक है।

समाज में हिंसा और असंतोष बढता जा रहा है इतना तो समझ में आता है। लेकिन दुख इस बात का है कि प्रशासन और व्यवस्था नफ़रत के इस ज़हरीले साँप को इतनी ढील क्यों दे रही है? समय रहते इसे काबू में किया जाये। रस्सी को इतना ढीला मत छोड़ो कि पूरा ढांचा ही भरभराकर गिर जाये। एक बार लोगों के मन में यह बात आ गयी कि प्रशासन के निकम्मेपन के चलते जनता को अपनी, अपने परिवार, देश, धर्म, संस्कृति, इंफ़्रास्ट्रक्चर, व्यवसाय की ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर खुद ही उठानी है तो आज के अनुशासनप्रिय लोग भी आत्मरक्षा के लिये प्रत्याघात पर उतर आयेंगे और फिर हालात काफ़ी खराब हो सकते हैं।
गिरा के दीवारें जलाया मकाँ जो, मुड़ के जो देखा लगा अपना अपना
कोई वर्ग सताया हुआ क्यों होता है? लोग पीढियों तक क्यों रोते हैं? किसके किये का फल किसे मिलता है? लीबिया, सीरिया, ईराक़, ईरान, सूडान, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं, बल्कि पख्तून फ़्रंटियर, पाक कब्ज़े वाला कश्मीर, बलूचिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश का हाल भी देखिये। जो लोग आज़ादी से पहले भारत तोड़ने के मंसूबे बांध रहे थे, उनकी औलादें आज भी उनकी करनी को और अपनी क़िस्मत को रो रही हैं। कम लोगों को याद होगा कि बाद में पाकिस्तानी दमन के प्रतीक बने शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत तोड़कर पाकिस्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रकृति कैसे काम करती है, मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है कि स्वार्थी की दृष्टि संकीर्ण ही नहीं आत्मघातक भी होती है। जो लोग आज़ादी के दशकों बाद भी इस देश में आग लगाने के प्रयासों में लगे हैं उनकी कितनी आगामी पीढियाँ कितना रोयेंगी इसका अन्दाज़ भी उन्हें समय रहते ही लग जाये तो बेहतर है। जो लोग इतिहास की ग़लतियों से सबक़ नहीं लेते उन्हें वह सब फिर से भोगना पड़ता ही है।


किसका पाकिस्तान, किसका हिन्दुस्तान, किसकी धरती, किसका देश
(पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार)
सम्बन्धित कड़ियाँ
* जावेद मामू - कहानी
* क़ौमी एकता - लघुकथा
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* मैजस्टिक मूंछें - चिंतन
* खजूर की गुलामी - शीबा असलम फ़हमी
* जामा मस्जिद में दलाई लामा - मानसिक हलचल
* मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन ऑफ असम [मूसा]

Wednesday, July 18, 2012

1857 के महानायक मंगल पांडे

19 जुलाई सन 1827 को बलिया जिले के नगवा ग्राम में जानकी देवी एवं सुदृष्टि पाण्डेय् के घर उस बालक का जन्म हुआ था जो कि भारत के इतिहास में एक नया अध्याय लिखने वाला था। इस यशस्वी बालक का नाम रखा गया मंगल पाण्डेय। कुछ् सन्दर्भों में उनका जन्मस्थल अवध की अकबरपुर तहसील के सुरहुरपुर ग्राम (अब ज़िला अम्बेडकरनगर का एक भाग) बताया गया है और उनके माता-पिता के नाम क्रमशः अभय रानी और दिवाकर पाण्डेय। इन सन्दर्भों के अनुसार फ़ैज़ाबाद के दुगावाँ-रहीमपुर के मूल निवासी पण्डित दिवाकर पाण्डेय सुरहुरपुर स्थित अपनी ससुराल में बस गये थे। कुछ अन्य स्थानों पर उनकी जन्मतिथि भी 30 जनवरी 1831 दर्शाई गई है। इन सन्दर्भों की सत्यता के बारे में मैं अभी निश्चित नहीं हूँ। यदि आपको कोई जानकारी हो तो स्वागत है।

प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रथम सेनानी मंगल पाण्डेय सन 1849 में 22 वर्ष की उम्र में ईस्ट इंडिया कम्पनी की बेंगाल नेटिव इंफ़ैंट्री की 34वीं रेजीमेंट में सिपाही (बैच नम्बर 1446) भर्ती हो गये थे। ब्रिटिश सेना के कई गोरे अधिकारियों की तरह 34वीं इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर भी ईसाई धर्म का प्रचारक था। अनेक ब्रिटिश अधिकारियों की पत्नियाँ, या वे स्वयं बाइबिल के हिन्दी अनुवादों को फारसी और भारतीय लिपियों में छपाकर सिपाहियों को बाँट रहे थे। ईसाई धर्म अपनाने वाले सिपाहियों को अनेक लाभ और रियायतों का प्रलोभन दिया जा रहा था। उस समय सरकारी प्रश्रय में जिस प्रकार यूरोप और अमेरिका के पादरी बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करने के लिये भारत में प्रचलित धर्मों का अपमान कर रहे थे, उससे ऐसी शंकाओं को काफ़ी बल मिला कि गोरों का एक उद्देश्य भारतीय संस्कृति का नाश करने का है। अमेरिका से आये पादरियों ने सरकारी आतिथ्य के बल पर रोहिलखंड में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। फ़तहपुर के अंग्रेज़ कमिश्नर ने नगर के चार द्वारों पर खम्भे लगवाकर उन पर हिन्दी और उर्दू में दस कमेन्डमेंट्स खुदवा दिए थे। सेना में सिपाहियों की नैतिक-धार्मिक भावनाओं का अनादर किया जाने लगा था। इन हरकतों से भारतीय सिपाहियों को लगने लगा कि अंग्रेज अधिकारी उनका धर्म भ्रष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे।

सेना में जब ‘एनफील्ड पी-53’ राइफल में नई किस्म के कारतूसों का प्रयोग शुरू हुआ तो भारतीयों को बहुत कष्ट हुआ क्योंकि इन गोलियों को चिकना रखने वाली ग्रीज़ दरअसल पशु वसा थी और गोली को बन्दूक में डालने से पहले उसके पैकेट को दांत से काटकर खोलना पड़ता था। अधिकांश भारतीय सैनिक तो सामान्य परिस्थितियों में पशुवसा को हाथ से भी नहीं छूते, दाँत से काटने की तो बात ही और है। हिन्दू ही नहीं, मुसलमान सैनिक भी उद्विग्न थे क्योंकि चर्बी तो सुअर की भी हो सकती थी - अंग्रजों को तो किसी भी पशु की चर्बी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। कुल मिलाकर सैनिकों के लिये यह कारतूस काफ़ी रोष का विषय बन गये। सेना में ऐसी खबरें फैली कि अंग्रेजों ने भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए जानबूझकर इन कारतूसों में गाय तथा सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया है।

इन दिनों देश में नई हलचल दिख रही थी। छावनियों में कमल और गाँवों में रोटियाँ बँटने लगी थीं। कुछ बैरकों में छिटपुट आग लगने की घटनायें हुईं। जनरल हीयरसे जैसे एकाध ब्रिटिश अधिकारियों ने पशुवसा वाले कारतूस लाने के खतरों के प्रति अगाह करने का असफल प्रयास भी किया। अम्बाला छावनी के कप्तान एडवर्ड मार्टिन्यू ने तो अपने अधिकारियों से वार्ता के समय क्रोधित होकर इन कारतूसों को विनाश की अग्नि ही बताया था लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि, दिल्ली से लन्दन तक सत्ता के अहंकार में डूबे किसी सक्षम अधिकारी ने ऐसे विवेकी विचार पर ध्यान नहीं दिया।

26 फरवरी 1857 को ये कारतूस पहली बार प्रयोग होने का समय आने पर जब बेरहामपुर की 19 वीं नेटिव इंफ़ैंट्री ने साफ़ मना कर दिया तो उन सैनिकों की भावनाओं पर ध्यान देने के बजाय उन सबको बैरकपुर लाकर बेइज़्ज़त किया गया। इस घटना से क्षुब्ध मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च सन् 1857 को बैरकपुर में अपने साथियों को इस कृत्य के विरोध के लिये ललकारा और घोड़े पर अपनी ओर आते अंग्रेज़ अधिकारियों पर गोली चलाई। अधिकारियों के नज़दीक आने पर मंगल पाण्डेय ने उनपर तलवार से हमला भी किया। उनकी गिरफ्तारी और कोर्ट मार्शल हुआ। छह अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई।

This article was originally written by 
Anurag Sharma for pittpat.blogspot.com
मंगल पाण्डे की फांसी के लिए 18 अप्रैल की तारीख तय हुई लेकिन यह समाचार पाते ही कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ असंतोष भड़क उठा जिसके मद्देनज़र अंग्रेज़ों ने उन्हें आठ अप्रैल (8 अप्रैल 1857) को ही फाँसी चढ़ा दिया। 21 अप्रैल को उस टुकड़ी के प्रमुख ईश्वरी प्रसाद को भी फाँसी चढ़ा दिया। अंग्रेज़ों के अनुसार ईश्वरी प्रसाद ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार न करके आदेश का उल्लंघन किया था। इस विद्रोह के चिह्न मिटाने के उद्देश्य से चौंतीसवीं इंफ़ैंट्री को ही भंग कर दिया गया। इस घटनाक्रम की जानकारी मिलने पर अंग्रेज़ों के अन्दाज़े के विपरीत भारतीय सैनिकों में भय के स्थान पर विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। लगभग इसी समय नाना साहेब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई भी अंग्रेज़ों के खिलाफ़ मैदान में थे। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के प्रथम नायक बनने का श्रेय मंगल पाण्डेय् को मिला।

एक भारतीय सिपाही मंगल पाण्डेय का साहस मुग़ल साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसे दो बडे साम्राज्यों का काल सिद्ध हुआ जिनका डंका कभी विश्व के अधिकांश भाग में बजता था। यद्यपि एक वर्ष से अधिक चले संघर्ष में अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाने और अनेक वीरों के प्राणोत्सर्ग के बाद अंततः हम यह लड़ाई हार गये लेकिन मंगल पाण्डेय और अन्य हुतात्माओं के बलिदान व्यर्थ नहीं गये। 1857 में भड़की क्रांति की यही चिंगारी 90 वर्षों के बाद 1947 में भारत की पूर्ण-स्वतंत्रता का सबब बनी। स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों ने सर्वस्व त्याग के उत्कृष्ट उदाहरण हमारे सामने रखे हैं। आज़ाद हवा में साँस लेते हुए हम सदा उनके ऋणी रहेंगे जिन्होंने दासता की बेड़ियाँ तोड़ते-तोड़ते प्राण त्याग दिये।

[आलेख: अनुराग शर्मा; चित्र: इंटरनैट से साभार]
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Sunday, July 15, 2012

सावन का महीना - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)

पवन करे सोर ...
वृष्टि यहाँ
वृष्टि वहाँ

हँसता हुआ
भीगे जहाँ

खोजूँ जिसे
छिपता कहाँ

बढता रहे
दर्द ए निहाँ

मंज़िल मेरी
वो है जहाँ

-=<>=-
चार पंक्तियाँ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" के "पावस गीत" से
दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काले सजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी!