Monday, August 16, 2010

चोर - कहानी [भाग 3]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।

मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

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[भाग 1] [भाग 2] अब आगे की कहानी:
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उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जायेगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किये बिना इतने आराम से धराशायी हो जायेगा। जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बन्दा धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दण्डवत प्रणाम कर रहा था।

“ममाSSS, ... नहीं नहीं दीदी!” ज़मीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।

“मैं आपकी शरण में हूँ ममा, ... नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!” मुझपर एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, “कई दिन का भूखा हूँ दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो अच्छा होता... पुलिस वाले भूखे पेट पिटाई करेंगे तो दर्द ज़्यादा होगा।”

मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थीं। उनकी पीठ फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, “ये पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाउंगा। वरना अगर यहीं जम गया तो...” जैसे ही उसने श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर किसी कुशल अभिनेता की तरह दोनों हाथ जोड़कर मेरे सामने सर झुकाये घुटने के बल बैठकर रोने लगा।

“मुझे छोड़ दो! इतने ज़ालिम न बनो! मुझ ग़रीब पर रहम खाओ।” पत्नी के बैठक में आते ही रोन्दू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।

“इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो” माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज़ पर रखते हुए कहा, “मैं मिठाई और पानी लेकर अभी आयी।”

“दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है...” कहते कहते उसने अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बांधते हुए कहा, “जैसे कर्मावती ने हुमायूँ के बांधी थी, वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी एकता का प्रतीक बन गयी है।”

“आज से मेरी हिफाज़त का जिम्मा आपके ऊपर है” मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी शरारती मुस्कान पढ़ सकी थीं। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।

“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।

आगे की कहानी पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

यह कड़ी लिखते समय यूँ ही फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द याद आ गये, बांटना चाहता हूँ:

मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने यह राज़ खोला
के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
वहशतों के ज़माने गये
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
चारों तरफ देखता
मुझ से कहने लगा
अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहाँ से भी मिल जाये,
दौलत समेटो
गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।
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विनम्र निवेदन: क्षमाप्रार्थी हूँ। छोटे-छोटे खंडों को पढने से होने वाली आपकी असुविधा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु अभी उतना समय नहीं निकाल पा रहा हूँ कि एक बड़ी कड़ी लिख सकूँ। समय मिलते ही पूरा करूंगा। भाई संजय, आपका अनुरोध भी व्यस्तता के कारण ही पूरा नहीं हो सका है।
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21 comments:

  1. लगभग दो-सवा दो महीनों से जडवत् रहा। पढना और लिखना बन्‍द ही रहा।

    इस श्रृंखला की अब तक की तीनों कडियॉं पढ पाया। पाठक को अपने साथ बहा लिए जाने में तो आप निष्‍णात् हैं।

    प्‍याज खाने के प्रभाव की जिज्ञासा प्रत्‍येक कडी मे बढती गई। देखें, आगे क्‍या होता है।

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  2. कहानी के साथ फिराक साहब का उद्धहरण -क्या कहने!

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  3. प्याज के प्रति सच मे उत्सुकता बढा दी है। फिराक साहिब की पाँक्तियाँ पसंद आयी। धन्यवाद अगली कडी का इन्तज़ार।

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  4. बड़ा शातिर बंदा था एक दम सही जगह सही धागा बुना :)

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  5. जहाँ से भी मिल जाए दौलत समेटो ...
    ना बीबी ना बच्चा ...ना बाप बड़ा ना भैया ...
    कहानी के साथ क्या सटीक शब्द जोड़े हैं ...!

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  6. जहां से भी मिल जाये,
    दौलत समेटो

    - बेचारे चोर भाई यही तो कर रहे थे.

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  7. मुझे कल मेरा एक साथी मिला
    जिस ने यह राज़ खोला
    के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
    वहशतों के ज़माने गये
    फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
    चारों तरफ देखता
    मुझ से कहने लगा
    अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
    जहां से भी मिल जाये,
    दौलत समेटो
    गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।


    फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द यूं ही बांटते रहिये. आनंद आगया.

    रामराम.

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  8. अनुराग जी, मै दिन मै दो समय सालद खाता हुं, ओर उस मै प्याज बहुत होता है, अगर सालाद ना भी मिले तो प्याज जरुर खाता हुं, सच माने तो मुझे तो कोई भी डरावने सपने नही आते, हां सपने मै मुझे देख कर लोग भाग जाते है कि इस आदमी से प्याज की बदबू आती है, कभी कभी लहसन भी खा लेता हूं...:)
    आप की यह कहानी बहुत अच्छी लगी,अगर वो बंदा दोवारा आये तो उसे भी एक प्याज पकडा दे....

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  9. सरजी,
    एक कहावत याद आ गई, आजकी कड़ी पढ़कर-
    ’बहुओं हाथ चोर मरावे और चोर बहू के भाई।’

    ज्यूरी का अंदाज-ए-फ़ैसला पसंद आया।

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  10. मजे की कहानी और फिर फिराक साहब, बहुत खूब बधाई.

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  11. एक छोटा सा प्याज और इतना लम्बा प्रभाव..........जो भी हो बेहतरीन है.

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  12. एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !

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  13. हा हा हा ....जबरदस्त !!!!

    अगली कड़ी जल्द से जल्द...प्लीज !!!

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  14. लीजिये, उससे आत्मरक्षा से उसकी रक्षा तक।

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  15. बड़ी रोचक कहानी है. चोर तो बड़ा शातिर है और अहिंसक गृहस्थ !

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  16. प्रवाहपूर्ण एवं रोचक ।

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  17. इस अंक में कोई किरदार महफूज लग रहा है ....धन्य धन्य !

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  18. इस अंक में कोई किरदार महफूज लग रहा है ....धन्य धन्य !

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  19. @मो सम कौन
    आज की कहावत -
    ’बहुओं हाथ चोर मरावे और चोर बहू के भाई।’
    का अर्थ तो बताते जाओ!

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  20. सर जी,
    चोरों का एक ग्रुप कहीं चोरी करने गया। रेकी करने के बाद वो एक घर में गये और उस घर की बहू को उसके मायके के इलाके के होने का वास्ता देकर यही भाई बहन का रिश्ता जोड़ आये। गरीबी और भूख का वास्ता देकर बता भी दिया कि इसी घर में चोरी करने आने का इरादा है।
    रात में जब खटर पटर हुई तो निकम्मे आदमियों ने घर की बहू को ललकारा कि चोरों को डंडे से मारे, अब बहू तो चोरों की बहन थी, कैसे मारे?
    इसी बात पर ये कहावत बन गई कि जो बहू खुद चोरों की बहन बनी है, उससे चोरों को कैसे मरवाया जा सकता है।

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  21. अत्यन्त रुचिपूर्ण व प्रवाहपूर्ण कहानी !
    गजब की चोरी, गज़ब का चोर !

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