Wednesday, January 9, 2013

इंडिया बनाम भारत बनाम महाभारत ...

मशरिक़, भारत, इंडिया, और हिंदुस्तान
ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ...
अपराध इतना शर्मनाक था कि कुछ बोलते नहीं बन रहा था। इस घटना ने लोगों को ऐसी गहरी चोट पहुँचाई कि कभी न बोलने वाले भी कराह उठे। सारा देश तो मुखरित हुआ ही देश के बाहर भी लोगों ने इस घटना का सार्वजनिक विरोध किया। फिर भी कई लोग ऐसा बोले कि सुन कर तन बदन में आग लग गई।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली मे "निर्भया" के विरुद्ध हुए दानवी कृत्य को "भारत बनाम इंडिया" का परिणाम बताया तो समाजवादी पार्टी के अबू आजमी भी फटाफट उनके समर्थन में आ खड़े हुए। अबू आजमी ने कहा कि महिलाओं को कुछ ज्यादा ही आजादी दे दी गई है। ऐसी आजादी शहरों में ज्यादा है। इसी वजह से यौन-अपराध की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति अविवाहित महिलाओं को गैर मर्दो के साथ घूमने की अनुमति नहीं देती है। अबू आजमी ने कहा कि जहाँ वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव कम है वहाँ ऐसे मामले भी कम हैं।

ये हैं देश के राष्ट्रपति के सपूत!
इससे पहले राष्ट्रपति के पुत्र एवं कॉंग्रेस के सांसद अभिजीत मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में शामिल महिलाओं को अत्यधिक रंगी पुती बताकर विवाद खड़ा कर दिया। जनता की तीव्र प्रतिक्रिया के बाद अभिजीत ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली। इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पहले बेतुके और संवेदनहीन बयान देकर फिर उनके लिए माफी भी मांग चुके हैं। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय सलाहकार अशोक सिंघल ने भी अपराध का ठीकरा महिलाओं के सिर फोड़ते हुए पाश्चात्य जीवन शैली को ही दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न का जिम्मेदार ठहराकर अमेरिका की नकल पर अपनाए गए रहन-सहन को खतरे की घंटी बताया।

इंडिया कहें, हिंदुस्तान कहें या भारत, सच्चाई यह है कि ये अपराध इसलिए होते हैं कि भारत भर में प्रशासन जैसी कोई चीज़ नहीं है। हर तरफ रिश्वतखोरी, लालच, दुश्चरित्र और अव्यवस्था का बोलबाला है। जिस पश्चिमी संस्कृति को हमारे नेता गाली देते नहीं थकते वहाँ एक आम आदमी अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार को छूए बिना आराम से गुज़ार सकता है। उन देशों में अकेली लड़कियाँ आधी रात में भी घर से बाहर निकलने से नहीं डरतीं जबकि सीता-सावित्री (और नूरजहाँ?) के देश में लड़कियाँ दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। मैंने गाँव और शहर दोनों खूब देखे हैं और मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में तो कानून नाम का जीव उतना भी नहीं दिखता जितना शहरों में। वर्ष 1983 से 2009 के बीच बलात्कार के दोषी पाये गए दुष्कर्म-आरोपियों में तीन-चौथाई मामले ग्रामीण क्षेत्र के थे। देश भर में केवल बलात्कार के ही हजारों मामले अभी भी न्याय के इंतज़ार में लटके हुए हैं।
अहल्या द्रौपदी तारा सीता मंदोदरी तथा
पंचकन्‍या स्‍मरेन्नित्‍यं महापातकनाशनम्‌
भारत में राजनीति तो पहले ही इतनी बदनाम है कि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नमूनों में से किसी से भी संतुलित कथन की कोई उम्मीद शायद ही किसी को रही हो। ऐसे संजीदा मौके पर भी ऐसी बातें करने वालों को न तो भारत के बारे में पता है न पश्चिम के बारे में, न नारियों के बारे में, न अपराधियों के, और न ही व्यवस्था के बारे में कोई अंदाज़ा है। तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं से महिलाओं या पुरुषों की आज़ादी की बात की तो अपेक्षा भी करना एक घटिया मज़ाक जैसा है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, विशेषकर महिलाओं के प्रति ऐसी सोच इन लोगों की मानसिकता के पिछड़ेपन के अलावा क्या दर्शा सकती है? लेकिन जले पर सबसे ज़्यादा नमक छिड़का अपने को भारतीय संस्कृति का प्रचारक बताने वाले बाबा आसाराम ने। आसाराम ने एक हाथ से ताली न बजने की बात कहकर मृतका का अपमान तो किया ही, बलात्‍कारियों के लिए कड़े कानून का भी इस आधार पर विरोध किया कि कानून का दुरुपयोग हो सकता है। आधुनिक बाबाओं का पक्षधर तो मैं कभी नहीं था लेकिन इस निर्दय और बचकाने बयान के बाद तो उनके भक्तों की आँखें भी खुल जानी चाहिए।
घटना के लिए वे शराबी पाँच-छह लोग ही दोषी नहीं थे। ताली दोनों हाथों से बजती है। छात्रा अपने आप को बचाने के लिए किसी को भाई बना लेती, पैर पड़ती और बचने की कोशिश करती। ~आसाराम बापू
पश्चिम, मग़रिब, या वैस्ट
पश्चिमी संस्कृति में रिश्वत लेकर गलत पता लिखाकर बसों के परमिट नहीं बनते, न ही पुलिस नियमित रूप से हफ्ता वसूलकर इन हत्यारों को सड़क पर ऑटो या बस लेकर बेफिक्री से घूमने देती है। न तो वहाँ लड़कियों को घर से बाहर कदम रखते हुए सहमना पड़ता हैं और न ही उनके प्रति अपराध होने पर राजनीतिक और धार्मिक नेता अपराध रोकने के बजाय उल्टे उन्हें ही सीख देने निकल पड़ते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। पश्चिमी देशों के कानून के अनुसार सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति दिखने पर पुलिस को सूचना न देना गंभीर अपराध है। कई राज्यों में पीड़ित की यथासंभव सहायता करना भी अपेक्षित है। इसके उलट भारत में अधिकांश दुर्घटनाग्रस्त लोग दुर्घटना से कम बल्कि दूसरे लोगों की बेशर्मी और पुलिस के निकम्मेपन के कारण ही मरते हैं। खुदा न खास्ता पुलिस घटनास्थल पर पीड़ित के जीवित रहते हुए पहुँच भी जाये तो अव्वल तो वह आपातस्थिति के लिए प्रशिक्षित और तैयार ही नहीं होती है, ऊपर से उसके पास "हमारे क्षेत्र में नहीं" का बहाना तैयार रहता है। किसी व्यक्ति को आपातकालीन सहायता देने वाले व्यक्ति को कोई कानूनी अडचन या खतरा नहीं हो यह तय करने के लिए भारत या इंडिया के कानून और कानून के रखवालों का पता नहीं लेकिन पश्चिमी देशों में "गुड समैरिटन लॉं" के नियम उनके सम्मान और सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं।

भारत की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अक्सर हमारी पारिवारिक व्यवस्था और बड़ों के सम्मान का उदाहरण ज़रूर देते हैं। अपने से बड़ों के पाँव पड़ना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। अब ये बड़े किसी भी रूप में हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बंगाल या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हों या कॉंग्रेस की अध्यक्षा, पाँव पड़नेवालों की कतार देखी जा सकती है। बड़े-बड़े बाबा गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरु के पाँव पड़े रहने का पुण्य त्यागकर अपने शिष्यों को अपना चरणामृत उपलब्ध कराने में जुट जाते हैं। बच्चे बचपन से यही देखकर बड़े होते हैं कि बड़े के पाँव पड़ना और छोटे का कान मरोड़ना सहज-स्वीकार्य है। ताकतवर के सामने निर्बल का झुकना सामान्य बात बन जाती है। पश्चिम में इस प्रकार की हिरार्की को चुनौती मिलना सामान्य बात है। मेरे कई अध्यापक मुझे इसलिए नापसंद करते थे क्योंकि मैं वह सवाल पूछ लेता था जिसके लिए वे पहले से तैयार नहीं होते थे। यकीन मानिए भारत में यह आसान नहीं था। लेकिन यहां पश्चिम में यह हर कक्षा में होता है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यहाँ सहज स्वीकार्य है, ठीक उसी रूप में जिसमें हमारे मनीषियों ने कल्पना की थी। सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है। (अनुवाद आभार: अजित वडनेरकर)

पश्चिमी संस्कृति बच्चों की सुरक्षा पर कितनी गंभीर है इसकी झलक हम लोग पिछले दिनों देख ही चुके हैं जब नॉर्वे में दो भारतीय दम्पति अपने बच्चों के साथ समुचित व्यवहार न करने के आरोप में चर्चा में थे। रोज़ सुबह दफ्तर जाते हुए देखता हूँ कि चुंगी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की स्कूल बस खड़ी हो तो सड़क के दोनों ओर का ट्रैफिक तब तक पूर्णतया रुका रहता है जब तक कि सभी बच्चे सुरक्षित चढ़-उतर न जाएँ। लेकिन इसी "पश्चिमी" संस्कृति की दण्ड व्यवस्था में कई गुनाह ऐसे भी हैं जिनके साबित होने पर नाबालिग अपराधियों को बालिग मानकर भी मुकदमा चलाया जा सकता है और बहुत सी स्थितियों में ऐसा हुआ भी है। बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं, शताब्दी पुराने क़ानूनों मे बदलाव की ज़रूरत है। वोट देने की उम्र बदलवाने को तो राजनेता फटाफट आगे आते हैं, बाकी क्षेत्रों मे वय-सुधार क्यों नहीं? चिंतन हो, वार्ता हो, सुधार भी हो। निर्भया के प्रति हुए अपराध के बाद तो ऐसे सुधारों कि आवश्यकता को नकारने का कोई बहाना नहीं बचता है।

मैंने शायद पहले कभी लिखा होगा कि विनम्रता क्या होती है इसे पूर्व के "पश्चिमी" देश जापान गए बिना समझना कठिन है। उसी जापान में जब मैंने अपनी एक अति विनम्र सहयोगी से यह जानना चाहा कि एक पूरा का पूरा राष्ट्र विनम्रता के सागर में किस तरह डूब सका तो उसने उसी विनम्रता के साथ बताया, "हम लोग तो एकदम जंगली थे ..."

"फिर?"

"फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुँची और हम बदल गए।"

मैं यही सोच रहा था कि भारतीय सभ्यता के प्रति इतना आदर रखने वाले व्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से बाहर आकर एक टैक्सी में बैठते होंगे तब जो सच्चाई उनके सामने आती होगी ... आगे कल्पना नहीं कर सका।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितंमुखं
तत्‌ त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये
सत्य का मुख स्वर्णिम पात्र से ढँका है, कृपया सत्य को उजागर करें।

आँख मूंदकर अपनी हर कमी, हर अपराध का दोष अंग्रेजों या पश्चिम को देने वालों ... बख्श दो इस महान देश को!

* संबन्धित कड़ियाँ *
- अहिसा परमो धर्मः
- कितने सवाल हैं लाजवाब?
- 2013 में आशा की किरण?
- बलात्कार, धर्म और भय

[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]

92 comments:

  1. आश्चर्य नहीं की पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता।
    कहा मैंने भी यही , बहुत थूक चुके दूसरी सभ्यता , संस्कारों को , अब एक नजर स्वयं पर भी डाले , यही सही समय है !

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  2. आपका यह आलेख पढकर दो काम कर रहा हूँ -

    पहला - इसे गूगल, ट्वीटर और फसे बुक पर साझा कर रहा हूँ।

    दूसरा - ईश्‍वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि वे सब लोग इसे पढ लें जो पश्चिम को सारा दोष दे रहे हैं।

    तीसरा और कोई काम करना मुझे तत्‍क्षण नहीं सूझा।

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  3. @ बड़े-बड़े बाबा गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरु के पाँव पड़े रहने का पुण्य त्यागकर अपने शिष्यों को अपना चरणामृत उपलब्ध कराने में जुट जाते हैं...


    इन साधुओं की बड़ी पूजा होती है देश में अनुराग भाई , इन विद्वानों ( गुरु ) और हम जैसे मूर्खों की कोई कमी नहीं इस देश में , भरे पड़े हैं ..
    बिना ज्ञान , गुरु को ढूँढने निकले, हज़ारों लोगों की भीड़ से,फायदा उठाने वाले,भी बहुतायत में हैं !
    दाढ़ी बढ़ा लो , और कुछ प्रभावी बोलना आना चाहिए, जिसे चाहो पटा लो !



    यह आलेख पढकर दो काम मैं भी कर रहा हूँ -

    पहला - इसे गूगल, ट्वीटर और फसे बुक पर साझा कर रहा हूँ।

    दूसरा - ईश्‍वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि वे सब लोग इसे पढ लें जो पश्चिम को सारा दोष दे रहे हैं।

    तीसरा और कोई काम करना मुझे भी नहीं सूझा...

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    1. आपका भी आभार सतीश जी!

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  4. सटीक और सार्थक लेख .... अपने दोष न देख कर दूसरों को लांछित करते रहते हैं ...

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  5. सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?

    यथार्थ अनुशीलन!!

    वस्तुतः जिसे पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण कहा जाता है वह उस संस्कृति को बिना समझे उपर उपर से अपनाया गया बेअक्ल नमूना होता है जैसे गंवार, सुधरे होने या दिखने का ढोंग रचता है।

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  6. हा-हा,,,,,,,,, यही तो दुर्भाग्य है,,,,,,,कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढें बन माही ! हमने तो बस अपनी बुराइयों का दोष दूसरों को देना ही सीखा, दूसरों ने हमसे हमारे घर में जो अच्छाइया थी उन्हें कबका ग्रहण कर लिया था !
    ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ..Jaan kee keemat inke liye kabhee jyaadaa mahtwpoorn nahee rahee.

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    1. अफसोस तो यही है गोदियाल जी ... कोई चोरी करे तो उसकी संस्कारहीनता, लेकिन चोरी के बाद सीनाजोरी करना ...

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  7. kya dosharopan se aasan kaam kuchh ho sakta tha wahi sab ne kiya , jisake munh me jo aaya usi par dosh madha

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    1. और यह आलेख भी तो एकांगी है...यहाँ भी सब कथनी मात्र कर रहे हैं ..जिसके मन में जो आया वह कह रहा है ....सत्य,व्याख्या, तर्क के बिना.....

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    2. निचे आप की टिप्पणी पढ़ी आप की बात तो और भी एकांगी .सत्य,व्याख्या, तर्क के बिना है उसका क्या करे , आप जो बाते कर रहे है , लगता है बस सस्ती हॉलीवुड फिल्ल्मे देख कर कह रहे है ।

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  8. वाह.बेह्तरीन अभिव्यक्ति .

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  9. ऐसे में कबीर बहुत याद आते हैं बुरा जो देखन मैं चला, दूसरों पर ऊंगलियाँ उठाने से पहले हमें खुद अपने गिरेबान में जरूर झाँकना चाहिए। इस समय में यह पोस्ट बहुत जरूरी थी जब लोगों के मन में हाल ही में घटी घटनाओं को लेकर मंथन का दौर चल रहा है।

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  10. इन देशों से तो बहुत कुछ अच्छा भी सीखा जा सकता है..... दोषारोपण की आदत हमारे स्वाभाव का हिस्सा बन गयी है ....

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  11. बडी सटीकता से आपने बहुत कुछ कह दिया. आपसे ऐसे ही आलेख की उम्मीद थी.

    हम लोगों में यह आदत है कि हर बुरी बात के लिये दोष दूसरों के मत्थे बिना सोचे समझे मढ देना. और यही कुछ हो रहा है, क्या बाबा और क्या अबाबा. सभी लगे हैं अपनी रोटी सेकने. पश्चिम तक पहुंचने में हमे अभी काफ़ी समय लग जायेगा. हम सिर्फ़ अपनी पुरानी सभ्यता पर झूंठा अभिमान करते आ रहें हैं. आखिर कब हम सपनों से बाहर निकलेंगें?

    रामराम.

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  12. आपसे यही उम्मीद थी। इस जरूरी आलेख के लिए आभार।

    इस विषय में अपने विचार मैं एक कविता में लिख चुका हूँ उसकी मूल बातें ये रही..

    यह हमारी सामंतवादी सोच है जो महिलाओं को कभी घर से बाहर निकलते, काम करते, अपने पैरों पर खड़े होकर मन मर्जी से जीवन जीते नहीं देखना चाहती। यह सोच कभी हाथी पर, कभी पोथी पर. कभी नोटों की बड़ी गठरी पर सवार हो सीने पर मूंग दलने चली आती है।


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  13. शासन , अनुशासन और कानून के पालन के बारे में हमें विदेशों से सीखने की ज़रुरत है।
    लेकिन यहाँ तो ढोंगी और पाखंडी गुरुओं को ज्यादा पूजा जाता है।
    सुधरने की आवश्यकता है।

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  14. कबूतर की तरह ऑंख बंद करके पश्‍चि‍म को जुति‍या देना, कुछ लोगों के लि‍ए अफ़ारा हल्‍का करने का तरीका भर है

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  15. बेह्तरीन प्रस्तुति....... जो लोग स्वयं को समाज का सभ्य नागरिक मानते हैं वे ही ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं..........

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    1. तो क्या वे अमाज के सभी नागरिक नहीं है...विद्वान् नहीं हैं....देश का एक बड़ा भाग उन्हें विद्वान् मानता है ..क्यों ..उनकी बात क्यों नहीं सुनेंगे आप ....उनकी बात क्यों गलत है ..सिर्फ इसलिए कि वे भारतीय बात कहते हैं और नक़ल की संस्कृति को ण अपनाने को कहते हैं जो २-४% अंग्रेज़ीदां लोग कहते फिरते हैं....

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  16. आभार आपका - नतमस्तक हूँ ।

    संस्कृति की बातें करने वाले, और पश्चिम को कोसने वाले, न अपनी संस्कृति को जानते हैं, न पश्चिम की संस्कृति को । बस , मन में कीचड भरी है - तो वही उगल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं ।

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  17. प्रणाम इससे आगे कुछ भी कहने में असमर्थता लग रही है क्योकि किम कर्तव्य विमूढ़ हूँ।

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  18. क्या कहूँ ..सब मेरे मन की बातें लिख दीं आपने.

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  19. ....प्रभावपूर्ण विवेचन !

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  20. अपने को सबसे महान् ,सर्वश्रेष्ठ समझनेवाले जकड़ी मानसिकता के लोग किसी से कुछ सीखने में शान घटेगी उनकी !

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  21. अनुराग जी! जब हमारे यहाँ हिन्दी दिवस के समारोह होते थे तो अधिकतर वक्ता अंग्रेज़ी को गालियाँ देकर, अपना हिन्दी प्रेम दर्शाकर चले जाते थे. जबकि मैं सबसे पहले अंग्रेज़ी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता था, जिस भाषा के विद्वान डॉक्टर बच्चन, फ़िराक और बेढब बनारसी रहे. हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यही है कि अपनी अकर्मण्यता का ठीकरा किसी के सिर फोड़ दो. और ऐसे में पश्चिमी सभ्यता का मर्सिया पढकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लो.
    एक निर्धन, निर्वस्त्र स्त्री को जिसके फटे कपड़ों से उसका अर्द्ध-नग्न शरीर झाँक रहा होता है, ऐसे दीदे फाडकर देखते हैं लोग कि बस नज़रों से कच्चा चबा जायेंगे. अब उन सभी सुधारक, नेता, धर्मगुरुओं से कोई पूछे कि उस औरत ने कौन से पश्चिमी लिबास पहन रखे थे. बजाय इसके उसके तन पर वस्त्र पहनाएं या अपनी नज़र झुका लें (अगर मदद नहीं कर सकते तो).. मगर पता नहीं किस सभ्यता के अनुकरण में वो उसे घूरे चले जाते हैं.
    पिछले दिनों हुए बलात्कार की चर्चा जे साथ ही कई घटनाएँ सामने आईं... मगर जिसका ज़िक्र भी किसी ने नहीं किया वो घटनाएं उन सभ्यता के पहरेदारों के सामने लाने की आवश्यकता है.. रेलवे स्टेशन पर न जाने कितनी ऐसी मनोदुर्बल महिलायें हैं जिनके साथ प्रतिदिन बलात्कार होता है और वे बेचारी समझ भी नहीं पातीं कि उनके साथ क्या हो रहा है. सरकार उनके बंध्याकरण का प्रबंध कर उन्हें छोड़ देती है. ये कौन सी पश्चिमी सभ्यता से पनपी है प्रकृति!!
    बहुत सधा हुआ आलेख है अनुराग जी. एक उंगली दूसरों की तरफ उठाकर वे ये भूल जाते हैं कि चार अपनी तरफ भी उठी हुयी है. और तो और, एक और पहलू तो आपने छुआ भी नहीं- सबों ने कहा कि यह एक पाशविक कृत्य है. लेकिन कोई जीव-विज्ञानी यह बताएगा कि आखिर किस पशु में इस प्रकार के लक्षण पाए जाते हैं!!

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    1. जी, मानसिक, शारीरिक, चारित्रिक दुर्बलताये समाज को खाये जा रही हैं। आपने जिस स्टेशन-बंध्याकारण की बात की, अगर ऐसा हो रहा है, तब तो बहुत ही शर्म की बात है,अभी तक मैंने तिब्बत मे चीनियों द्वारा ही ऐसे कुकृत्य किए जाने के बारे मेन पढ़ा था।

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  22. मेरा प्रश्न ये है, व्यावहारिक रूप में क्या होना चाहिये कि ऐसा न हो?

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    1. - भावनात्मक अनुशासन, प्रशासन, न्याय, विधान बनाते समय मानवता को सर्वोच्च शिखर पर रखना, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक व्यवस्था का संतुलन, जीवन का आदर, सक्षम और सच्चरित्र नेतृत्व, आज की समस्याओं का हल आज के परिप्रेक्ष्य मे देखने का प्रयास, वसुधैव कुटुंबकम की तर्ज़ पर हमारी समस्याओं का हल यदि वसुधा पर अन्यत्र खोजा जा चुका है तो उसे मुदितमन से स्वीकार करना, अपनाना (उदाहरण - हिन्दू विवाह पद्धति मे तलाक और इस्लाम में एक-विवाह, ईसाइयों मे दत्तक संतति आदि) ....
      - फिरकापरस्ती, निहित स्वार्थ, लोभ, उत्कोच, अपराधी, असामाजिक मनोवृत्ति का दमन या नियंत्रण ...
      - नागरिक समानता, सब के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य (सब मतलब "सब")
      - स्थानीय समस्याओं के हल के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग, राष्ट्रीय समस्याओं के लिए राष्ट्र भर का
      - समस्याओं का रोना रोने के बजाय उनके हल का प्रयास - जैसे नदी के पानी पर राज्यों के झगड़े के बजाय जल-नियमन के कारगर तरीके ढूँढने और अपनाने का प्रयास
      ... समस्याएँ बड़ी हैं तो सुझाव भी लंबे ही होंगे, हर बात का हल मैं या आप पहले से जानते ही हों, यह भी ज़रूरी नहीं, लेकिन हल निकालने के प्रयास या मगजपच्ची में यदि अच्छे, बुद्धिमान और सक्षम (तीनों खूबियाँ एक साथ होना अनिवार्य शर्त है) लोग शामिल हो सकें तो सबका भला ही होगा ...

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    2. परफ़ेक्ट सोसायटी शायद किताबों के अलावा कहीं और होती ही नहीं होगी। कुछ न कुछ कमी हर तरफ़ होती है, लेकिन उसे दूर करने की कोशिश होनी चाहिये और उसकी शुरुआत खुद से ही हम करेंगे तो बेहतर होगा। वर्तमान में हम अपने कृत्यों और व्यक्तव्यों को कैसे भी तर्कसंगत और न्यायसंगत सिद्ध करने में ज्यादा मेह्नत कर रहे हैं।


      @ अच्छे, बुद्धिमान और सक्षम (तीनों खूबियाँ एक साथ होना अनिवार्य शर्त है) लोग शामिल हो सकें तो सबका भला ही होगा ...

      यहीं आकर बात बनते बनते रह जाती है:) एक कहावत याद आती है ’आठ कन्नौजिये और नौ चूल्हे’



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    3. बात सही है बंधु, काम कठिन है - लेकिन भागीरथ के गंगा या परशुराम के ब्रह्मपुत्र उतारने जितना कठिन भी नहीं ... जिस दिन थान लोगे, काम हो जाएगा!

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    4. karnaa chaahein to aise log bahut hain jinme yah teenon khoobiyan maujood hain saath me, lekin karnaa koi nahi chahta,

      aur jo karnaa chaahe use khench kar rokne ko aur us ke tareeke par hansne ko sab taiyaar ho jaate hain |

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  23. धन्यवाद रविकर जी!

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  24. परिवर्तन - शब्द कहना,चाहना और खुद से शुरू करना - बहुत फर्क है . और क्या कहूँ !

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  25. अपना दोष भी दूसरों के माथे मढ़ कर कैसे कोई सर उठा कर रह लेता है ? शर्म भी नहीं आती है उन्हें..

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  26. एक दम बेहूदा मूर्खतापूर्ण आलेख है ...
    -------क्या आपको ज्ञात है कि अमेरिका में अधिकाँश राज्यों में सिर्फ विवाहिता महिला का रेप ही रेप माना जाता है ...कुंवारी से नहीं( कुंवारी वहां होती ही नहीं ) रेप माना को रेप ही नहीं जाता जिसका अभी हाल में ही भारतीय मूल की नेता ने विरोध किया है और परिवर्तन लाने की बात हो रही है..
    ---- पश्चिम की बच्चों की संस्कृति भी आप-हम देख चुके हैं कुछ वर्षों में ही ६०-६१ बार बच्चे स्कूलों में गोलियां चलाकर साथियों को मार चुके हैं...`
    ----- आप को पता है कि अमेरिका में रिश्वत देकर काम कराने को वैध माना जाता है ...
    ---- प्रत्येक स्थान पर टिप ( वह भी रिश्वत ही है ) को देना आवश्यक माना जाता है अपितु ओफीसिअल रूप में ही टिप ले ली जाती है...

    ----- ये अक्ल के दुष्मन पश्चिम के नकलची ..कब सुधरेंगे ...अपनी सभ्यता पर चलेंगे ताकि देश सुधरे....

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    1. @अमेरिका में अधिकाँश राज्यों में सिर्फ विवाहिता महिला का रेप ही रेप माना जाता है ...
      - मुझे नहीं पता कि ऐसी अफवाहें किस चंडूखाने से शुरू होती हैं और किस किस्म के मक्कार लोग इन्हें 'सत्यमेव जयते' के देश में फैलाते हैं। अपनी जानकारी का स्रोत भी बता दीजिये, पता तो लगे कि असत्य की मिल लगी कहाँ है।

      @ कुंवारी वहां होती ही नहीं ...
      - आपकी मानसिकता इस पंक्ति में सामने आ ही गई। अपना यही बयान लेकर अपनी पसंद के किसी भी जिम्मेदार मनोचिकित्सक/न्यायाधीश आदि के पास चले जाइए और सच/झूठ या मूर्खता/बुद्धिमता में अंतर कर पाने की आपकी क्षमता का अंदाज़ खुद ही लग जाएगा।

      @ पश्चिम की बच्चों की संस्कृति ...
      - आंकड़े देखकर बात कीजिये - भारत में दुनिया भर से अधिक हत्यायेँ होती हैं, अमेरिका क्या चीज़ है। यह आलेख देखिये: अहिसा परमो धर्मः
      @ अमेरिका में रिश्वत देकर काम कराने को वैध माना जाता है
      - फिर वही झूठ, यह आलेख देखिये: बुरे काम का बुरा नतीज़ा

      @ प्रत्येक स्थान पर टिप ( वह भी रिश्वत ही है ) को देना आवश्यक माना जाता है
      - टिप/बख्शीश और ब्राइब/रिश्वत का अंतर न जानते हों, इतने मासूम तो नहीं हैं आप

      -- सोच रहा हूँ कि बित्ते भर की टिप्पणी में इत्ते सारे झूठ क्यों हैं, क्या ये किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता की मजबूरी है?

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    2. डॉ श्याम जी के हर अर्थ-हीन और बेबुनियाद आरोप का उत्तर तो स्मार्ट जी दे ही चुके हैं ।

      जैसा मैंने कहा - "संस्कृति की बातें करने वाले, और पश्चिम को कोसने वाले, न अपनी संस्कृति को जानते हैं, न पश्चिम की संस्कृति को । बस , मन में कीचड भरी है - तो वही उगल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं ।"

      अपने देश के कानून को नहीं जान पाए जो अब तक, अपनी संस्कृति को नहीं जान पाए, वे अमेरिका के क़ानून हम सब को पढ़ाने आये हैं ? स्रोत बताइये डॉ श्याम जी कि यह सब जानकारियाँ आपको कहाँ से मिली हैं ?

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    3. डॉ श्याम,
      किस गधे ने आपको ये सब बता दिया है ?
      सच तो ये है कि आप ही अपने आप में एक ज्वलंत उदहारण हैं, जिसे न पश्चिम का ज्ञान है न ही कोई समझ ...
      आपको पश्चिमी सभ्यता की जानकारी नहीं है इतना तो आपकी टिप्पणियों से पता चल ही जाता था, लेकिन इतने मूढ़-मति हैं आप ये पहली बार मालूम हुआ है मुझे ...
      अब मैं भली-भांति समझ गयी कि आपके जैसे लोग ही पश्चिम को बिना मतलब दोष देते रहते हैं।
      अपनी अक्ल पर से पर्दा हटाइये जनाब, क्योंकि आपने बहुत बड़ी-बड़ी बातें कह दीं हैं, जिनका न कोई ओर है न छोर ...
      भगवान् न करे कि कभी आपको इन देशों में आकर रहना पड़े क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो आप अपनी नज़रों में ऐसे गिरेंगे की खड़े होने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहेगी
      इतना ही कहूँगी ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे।

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    4. गज़ब बात है, भारतीय कितने आत्केंद्रित हैं। रात दिन इसी मुगालते में रहते हैं कि उनसे बेहतर कोई नहीं, शायद 'कूप मण्डूक' जैसे भाव ऐसे ही लोगों के लिए बनाया गया है। दुनिया बहुत बड़ी है और महान संस्कृतियों की कमी नहीं है, आप इटली चले जाएँ, फ़्रांस चले जाएँ, इथोपिया जैसे गरीब से गरीब मुल्क की अपनी समृद्ध संस्कृति है , जो अनुकरणीय है। लेकिन बिना मतलब अपनी संस्कृति, जो अब लुप्त प्राय है का ढिंढोरा पीटना भारतीयों का प्रिय शगल है ... डॉ श्याम, डॉ क्यों बने वैद्यराज ही बन जाते और आयुर्वेद का प्रसार ही करते, कम से कम हमारे ऋषि-मुनियों का भला हो जाता, डॉ बनकर उन्होंने पश्चिम को ही आत्मसात किया है ....
      इस तरह की बकवास न ही करें तो बेहतर होगा क्योंकि पश्चिम की कन्याओं के लिए ये कहना ही सबका कौमार्य भंग रहता है, बहुत बड़ा दोषारोपण है, सम्हल कर बात करना डॉ साहेब के हित में होगा।

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    5. @ पश्चिम की कन्याओं के लिए ये कहना ही सबका कौमार्य भंग रहता है, बहुत बड़ा दोषारोपण है, सम्हल कर बात करना डॉ साहेब के हित में होगा।

      हाँ - और बिना कन्याओं को जाने उन पर इतने गंभीर अनर्गल आरोप - बल्कि आरोप नहीं, निर्णय - जड़ देने वाले लोग स्वयं को सुसंस्कृत मानते हैं , और दूसरों को संस्कारहीन कहते हैं :( ।

      शर्म भी आती है और क्रोध भी - किन्तु किया क्या जाए ? ऐसी अनर्गल बातें कहने का अधिकार इन्हें "भारतीय सिस्टम" ही दे रहा है - यह हमारी ही कमी है कि ऐसे मिथ्या आरोपण करने वालों के लिए दंड का प्रावधान नहीं है - नहीं तो ये विष वृक्ष उसी नन्ही स्थिति में उखाड़ दिए जाते - और इतने बढ़ते ही नहीं की खुले रूप में भयंकर अनाचार हो पाते । किन्तु अफ़सोस - अपने आप को संस्कृति के रक्षक कहने वाले लोग खुद ही ऐसे शाब्दिक व्यभिचार में लिप्त रहते हैं ....

      जिस भारतीय संस्कृति की ये दुहाई दे रहे हैं - उसी संस्कृति में राम ने रावण से युद्ध जीत लेने पर भी उनके परिवार के स्त्रियों को पूरा सम्मान दिया , मंदोदरी आदि पर कोई आक्षेप / आघात नहीं हुए । रावण से इतना भीषण वैर रहा होने होने के बावजूद भी । और ये आज के अपने आप को राम के अनुयायी समझने वाले लोग, उन मासूम अनजान "पश्चिमी" कन्याओं के चरित्र पर ऐसे भीषण आघात कर रहे हैं , बिना लज्जित हुए ।

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  27. "मैंने शायद पहले कभी लिखा होगा कि विनम्रता क्या होती है इसे पूर्व के "पश्चिमी" देश जापान गए बिना समझना कठिन है। उसी जापान में जब मैंने अपनी एक अति विनम्र सहयोगी से यह जानना चाहा कि एक पूरा का पूरा राष्ट्र विनम्रता के सागर में किस तरह डूब सका तो उसने उसी विनम्रता के साथ बताया, "हम लोग तो एकदम जंगली थे ..."

    "फिर?"

    "फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुंची और हम बदल गए।"....."

    ---- बस यही सत्य तथ्य है---- वे हमसे सीख गए ..हम पश्चिम से सीख रहे हैं ---अपनी बातें छोड़कर ...इसीलिये इस देश का यह हाल हो रहा है ....
    ------अब भी आप न समझें तो ..भगवान ही बचाए पश्चिम के अंध-पिट्ठू पढ़े-लिखे मूर्खों से इस देश को.....

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    1. बस यही सत्य तथ्य है---- वे हमसे सीख गए ..हम पश्चिम से सीख रहे हैं ---अपनी बातें छोड़कर ...इसीलिये इस देश का यह हाल हो रहा है ....

      इस बात से मैं भी सहमत लेकिन आपकी भाषा से असहमत।


      पढ़े लिखे मूर्ख फ़िर चाहे वो पूरब के ही अंध पिट्ठू क्यूँ न हों, वो भी इस देश के दुश्मन ही हैं।

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    2. डा. श्याम गुप्त जी,

      अगर जापान ने भारत से विनम्रता सीख ली तो क्या हमारी संस्कृति में विनम्रता समाप्त हो जानी चाहिए? कहते है ज्ञान तो बांटने से बढ़ता है, पश्चिम हमसे ऐसा किस प्रकार सीख गए कि हमारे संस्कारो का स्टॉक ही समाप्त हो जाय। यह हमारा प्रलाप ही है कि लोग हमसे विनम्रता सीख ले गए इसलिए संस्कार व विनय से हम दरीद्र हो गए!! वास्तविक मूर्खता तो इस सोच में है। आपको नहीं लगता कि इस सोच में सुसंस्कृत न बने रहने के बहाने मात्र है?

      @बस यही सत्य तथ्य है---- वे हमसे सीख गए ..हम पश्चिम से सीख रहे हैं ---अपनी बातें छोड़कर ...इसीलिये इस देश का यह हाल हो रहा है ....
      - इस बात में आपको नहीं लगता कि पश्चिम 'गुण-ग्राहक' है और हम 'दोष-ग्राहक', यदि दोष-ग्राहकता हमारी संस्कृति का स्वभाव है तो हमसे बड़ा कौन मूर्ख हो सकता है।
      प्रस्तुत आलेख को आप पश्चिम परस्ती समझ रहे है जबकि यह आलेख गहरे से हमारी कमियों, कमजोरियों की खोज खबर लेकर चिंतन को सही दिशा देने का प्रयास कर रहा है ताकि हम बीमारी की जड़ पहचान सकें।
      जो आप कह रहे है वह बात तो लेखक गम्भीरता से रेखांकित करते है- "सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?"

      इसलिए डा. श्याम गुप्त जी, जल्दबाजी में कुछ भी कह लेने के पूर्व समग्र विषय वस्तु को सम्यक दृष्टिकोण से देखना, परखना, समझना नितांत ही आवश्यक है। सच कहुँ तो सम्यक चिंतन ही भारतीय संस्कृति है और वह किताबों तक ही सीमित रह गई है और हमें उन किताबों की धूल तक नहीं झाडनी, बस बोल-बचन बने रहना है।

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    3. सुज्ञ जी, बात को स्पष्ट करने का आभार! आपने ठीक कहा, अपनी अद्वितीय विनम्रता का श्रेय भी भारत को दे देने में एक जापानी नागरिक की उदारता झलकती है जबकि अपनी कमियों का दोष किसी काल्पनिक खलनायक को देने में हमारी गैर-ज़िम्मेदारी। समय आ गया है हम ज़िम्मेदारी लेना और अपने कर्तव्य का निर्वाह करना सीखें।

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    4. कभी विनम्रता रही होगी हमारी संस्कृति की पहचान, लेकिन आज हिन्दुस्तान में पाँव धरते ही उदंडता का ही सामना होता है। लगता है सारी विनम्रता जापानी ले गए। यहीं देखिये, विनम्रता की पैरवी करने वाले डॉ साहब कितने विनम्र नज़र आ रहे हैं :) अब विनम्रता के दर्शन दुर्लभ हैं हिन्दुस्तान में। इसके लिए भी पश्चिम ही दोषी होगा क्योंकि सबकी विनम्रता टके पसेरी वो खरीद कर ले गए हैं। है न !!
      बन्दूक की नोक पर पश्चिम ने नहीं कहा है उनकी सभ्यता अपना लेने को, आप लोग उनकी हर छोड़ी हुई चीज़ अपना रहे हैं। अजी हम तो कहते हैं अगर भारत, पश्चिम का अंश मात्र भी 'गुण' अपना ले तो, भारत का बेडा पार हो जाएगा।
      पश्चिम ने तो लखनवी अंदाज़ अपना लिया है, पग-पग पर आपको पहले आप, पहले आप देखने को मिल जाएगा, लेकिन वाह रे हिन्दुस्तान, यहाँ तो, पहले मैं, पहले मैं की ही तूती बोल रही है ...

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    5. @@@ तो बुद्धिमान कौन हुआ, जो कभी जंगली थे और अब इंसान बन गए, या फिर वो जो इंसान बनने का दावा करते हैं और अब जंगली बन गए ...
      बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी पाले हुए हैं लोग कि जिस संस्कृति को लोग भारतीयता का नाम दे रहे हैं वो सिर्फ भारत में है ...दुनिया के अधिकाँश देशों में सामाजिक संरचना ऐसी ही है। हाँ उन देशों में भरपूर ईमानदारी है, सहिष्णुता है, आपसी मैत्री भाव है, जिसका आकाल है भारत में ...
      पश्चिम का कोई लेना देना नहीं है, आज के भारत के गिरते हुए चरित्र से । मैं फिर कहती हूँ, अपनी गलतियों की जिम्मेदारी आपको खुद ही लेना होगा, आपने जो भी अपनाया अपनी मर्ज़ी से अपनाया। आपका अपना चोईस है ये, आपने पश्चिम के अवगुण (जिसे वो लोग भी अवगुण ही मानते हैं) को ख़ुशी-ख़ुशी अपना लिया और सार दोष उन पर मढ़ दिया ...मैं पश्चिम में रहती हूँ, लेकिन अपने परिवार को एक अनुशासन में रखने की कोशिश करती हूँ, बहुत हद तक सफल भी हूँ। आप यहाँ रह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहे तो ये आपकी काहिली है, किसी और का दोष नहीं।

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    6. "-अब भी आप न समझें तो ..भगवान ही बचाए पश्चिम के अंध-पिट्ठू पढ़े-लिखे मूर्खों से इस देश को"

      नमन आपकी इस विनम्रता को. :)

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  28. "फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुंची और हम बदल गए।"

    sochiye zara :(

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  29. इस पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है...

    http://merecomment.blogspot.in/2013/01/blog-post.html

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  30. अपनी अपनी नजर का फर्क है। अनुरागजी ने पश्चिम की अच्छाइयों को पकड़ने की चेष्टा की और डा. श्याम गुप्त आपने बुराइयों को। बस इतनी सी बात है। हर सिक्के के दो पहलू होते है। हमें तो अनुरागजी का आभार प्रकट करना चाहिए जिन्होंने अच्छी अच्छी बाते चुन कर हमें परोश दी। जिन्हें हम लागू करके अपना और इस देश का भला कर सकते है । हमें बुराइयों से क्या लेना देना है। वो जाने और उनका काम जाने। कबीर जी ने कहा है - सार सार को गहि लहे, थोथा देई उडाय।

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    1. धन्यवाद भागीरथ जी!

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  31. सांस्कृतिक समाधान देने वाले संभवतः यह भूल जाते हैं कि पतन का कारण अनुशासनहीनता और क्षुद्र मानसिकता है।

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    1. अनुशासनहीनता और क्षुद्र मानसिकता वाकई हमारे दो बड़े दुश्मन हैं, और तीसरा है असत्य, चाहे संस्कृति के बहाने बोला गया हो चाहे राजनीति या मजहब के ... अपने स्वार्थ के लिए धर्म, संस्कृति, देशप्रेम जैसे गुणों का दुरुपयोग करने वालों का नकाब उतरना ज़रूरी है ...

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  32. जब दोष मेरी आँखों में है तो मैं तस्वीर को खराब कैसे कह दूँ !

    सादर

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    1. धन्यवाद आकाश! भारतीय संस्कृति तो पुत्रोहम पृथिव्या और शौच, संतोष, तप का उद्घोष करने वाली है, उसे संकीर्णता, असंतोष, अराजकता और अनुशासनहीनता द्वारा हाईजैक नहीं करने दिया जा सकता ...

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  33. देर से यहाँ पहुँचा। आलेख बहुत अच्छा है। लोग वास्तव में पश्चिम और भारत में अपने अपने चश्मों से फर्क देखते हैं। लेकिन कोई उन दो समाजों का राजनैतिक सामाजिक गठन नहीं देखता। पश्चिम में खास तौर से अमरीका में सामंतवादी संबंधों का लेश मात्र भी शेष नहीं है। वहाँ जो समाज है वह आधुनिक पूंजीवादी समाज है जो स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व की नींव पर खड़ा है। भारत में पूंजीवाद कमजोर है। उस ने सामंतवाद को अपना मित्र बना लिया और उस का संरक्षक बन गया। इस कारण से सारी की सारी सामंतवादी बीमारियाँ समाज में मौजूद हैं। जातिवाद से हम पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। गांवों में निम्न जाति की स्त्रियों का तो क्या पुरुषों का भी कोई सम्मान और इज्जत नहीं है। जब संस्कृति की बात की जाती है तो भारत की बहुसंख्यक निम्न जातियों को मनुष्य तक नहीं समझा जाता। नगरों में भी मध्यवर्ग की संस्कृति को संस्कृति मान लिया जाता है। ऐसे में स्त्री का सम्मान भी दिखावे का ही होगा। हमारा समाज स्त्रियों का सम्मान करना तो दूर उन्हें इन्सान भी नहीं मानता। संघ प्रमुख हों, नेता हों या फिर धर्म गुरू कोई भी इस मामले में पीछे नहीं है। अमरीका के समाज की अपनी विकृतियाँ हो सकती हैं लेकिन वह दुनिया का सब से विकसित समाज है। वहाँ पुराने समाजों की विकृतियाँ जो भारत जैसे देशों के समाजों में मौजूद हैं उन से छुटकारा पाया जा चुका है। गाँवों में अछूत का दूल्हा आज भी घोड़ी चढ जाए ये पुराने सामंत बर्दाश्त नहीं कर पाते। शिकायत होने पर पुलिस मुकदमा बनाती है। लेकिन पीड़ितों को उस का दंश पीढ़ियों तक भुगतना पड़ता है। दंश के मारे लोग गवाही देने भी नहीं जाते और मुकदमे फिस्स हो जाते हैं। सांस्कृतिक शिक्षा का आलम ये है कि बुर्के से ढकी हुई स्त्री भी देख लें तो कस कर लंगोट बांधने वालों की लार टपकने लगती है।

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    1. संकीर्ण व सामन्ती भारतीय समाज का बहतरीन चित्रण। प्रश्न यह है कि इसे बदला कैसे जाय जबकि अनेक पढ़े-लिखे लोग भी इसमें डूबे हुए हैं।

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    2. सहेजने लायक टिप्पणी है। वाह!

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    3. @ लोग वास्तव में पश्चिम और भारत में अपने अपने चश्मों से फर्क देखते हैं।

      चश्मेबद्दूर्……… एक रंग के चश्मे से देखने की बद-दृष्टि दूर हो……
      नीम-हक़ीम……… ऐसा हक़ीम जिसे हर समस्या, प्रत्येक बीमारी का ईलाज नीम ही लगता है।

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    4. दिनेश जी, आपका धन्यवाद! कैसे हैं आप?

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  34. अनुराग जी ने बहुत अच्छॆ तरीके से इन मूर्खों को आइना दिखाने की कोशिश की है। लेकिन जो अपने आँख पर बँधी दकियानूसी सोच की पट्टी खोलने को तैयार ही न हो उसे क्या फर्क पड़ता है। उसे तो अभी आदमी बनने के लिए ही बहुत कुछ करना बाकी है।

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    1. जी, सफर लंबा भी है और कठिन भी।

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  35. रेलवे के जिस सर्जन की चर्चा है उनको 'मूर्खतापूर्ण' का खिताब देने की पुरानी बीमारी है। मुझे भी इस लेख-सीता का विद्रोह-पर टिप्पणी के रूप मे यही खिताब उनके द्वारा दिया गया है। सरकारी नौकरी मे रहते हुये RSS की थ्योरी पर चलने वाले इस ब्लागर महानुभाव ने पहले अपनी प्रोफाईल मे रियूमर स्पीच्यूटेड सोसाईटी का स्लोगन लगाया हुआ था जिस पर मैंने एक पोस्ट लिखी थी उसके बाद से प्रोफाईल को सुधार कर उस स्लोगन का अलग से एक ब्लाग बना लिया गया है।
    जिनको धार्मिक की संज्ञा दी गई है वे कोरे पोंगापंथी-ढ़ोंगी-आडमबरकारी लोग शोषकों और उतपीडकों के दलाल हैंजिनको साम्राज्यवादियों/संप्र्डायवादियों/RSS/कारपोरेट घरानों का समर्थन मिला हुआ है ;इन लोगों से बचने और दूर रहने की नितांत आवश्यकता है।

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    1. धन्यवाद विजय जी, जब उच्च-शिक्षित लोग असत्य का परचा बांटते दिखते हैं तब आश्चर्य होता है, और जब प्रोपेगंडा को भारतीय संस्कृति के नाम से पेश किया जाता है तब खीज भी होती है। खैर अच्छा ही हुआ कि "रेलवे के सर्जन" असत्य के कुछ टुकड़े यहाँ रखकर गए और असलियत ज़ाहिर हो गई। प्रामाणिकता सामने लाने मे ऐसे लोग भी अनचाहे और अंजाने ही सहयोगी साबित हो जाते हैं।

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  36. पश्चिमी संस्कृति की बुराई करना और अपनी गलती पर परदा डालना एक फैशन बन गया है.

    भारतीय संस्कृति के इन ठेकेदारो के लिये मै स्वामी विवेकानंद जी का एक कथन निचे दे रहा हुं

    "शुद्ध आर्य रक्त का दावा करने वालो, दिन-रात प्राचीन भारत की महानता के गीत गाने वालो, जन्‍म से ही स्‍वयं को पूज्‍य बताने वालो, भारत के उच्‍च वर्गो, तुम समझते हो कि तुम जीवित हो ! अरे, तुम तो दस हजार साल पुरानी लोथ हो….तुम चलती-फिरती लाश हो….मायारुपी इस जगत् की असली माया तो तुम हो, तुम्‍हीं हो इस मरुस्‍थल की मृगतृष्‍णा….तुम हो गुजरे भारत के शव, अस्‍थि-पिंजर…..क्‍यों नहीं तुम हवा में विलीन हो जाते, क्‍यों नहीं तुम नये भारत का जन्‍म होने देते?"

    -- स्वामी विवेकानंद , कम्‍पलीट वर्क्‍स (खण्‍ड-7) , पृ.354

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    1. स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन पर उनकी याद दिलाने के लिए आपका आभार! अफसोस कि सवा सौ साल पहले कही हुई उनकी यह बात आज भी सच है।

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  37. अपनी कमियों व दूसरों की खूबियों को स्वीकार लेने में कोई बुराई नही है । बल्कि यह बहुत जरूरी है इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे देश में हालात बहुत चिन्ताजनक हैं । लेकिन प्रायः हमारे यहाँ दो तरह के लोग देखे जाते हैं । पहले वे जो बैठे-बैठे ऐतिहासिक उपलब्धियों व देश को कभी मिली विश्वगुरु व सोने की चिडिया की उपाधि से गर्वित होते रहते हैं और पश्चिमी सभ्यता को हेय मानने को ही देशभक्त होने का प्रमाण मानते हैं और दूसरे वे जो--यह तो इण्डिया है यहाँ तो कुछ भी होता रहता है-जैसे हिकारत भरे जुमले देते यू एस या यू के के गुणगान करते रहते हैं या अव्यवस्थाओं से घबराकर विदेश चले जाते हैं । बजाय इसके कि सुधार की दिशा में कुछ सकारात्मक काम करें । देश के लिये ,समाज के लिये व अपने लिये । आपका आलेख सटीक व प्रासंगिक है ।

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    1. सच कहा, हम किस देश में पैदा हुए इसमें हमारा कोई योगदान नहीं है, लेकिन मरने से पहले (और बाद में भी) हम संसार की बेहतरी में कितना योगदान करते हैं वह महत्वपूर्ण है।

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  38. कोई भी संस्कृति पूर्ण रूप से दूषित या पवित्र नहीं..हमें अपनी सोच को बदलना होगा और जो कुछ जिस संस्कृति में अच्छा है उसे अपनाना चाहिए. केवल पश्चिमी सभ्यता पर सारा दोष डाल देना मानसिक दिवालियापन की निशानी है..बहुत सार्थक आलेख..

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  39. इस ब्लॉग से परिचित करने के लिये बचपन की सखी का धन्यवाद| बहुत अच्छा आलेख - शब्दशः सत्य | भारतीय प्रशासन, राजनीति, संस्कृति और दंड (न्याय प्रणाली) की कमियों का सच्चा विवेचन | हर समाज में, हर दौर में मानसिक रोगी, तामसी, खल प्रवृत्ति के लोग रहते रहे हैं – मात्रा का फर्क है | मात्रा का यह अंतर निर्धारित करता है कि समाज कितना उन्नत है | कोई भी भारतीय कुछ दिन भी पश्चिमी देशों में रहकर ये फर्क महसूस कर सकता है | भारत में प्रशासन ना के बराबर है, राजनीति में अपराधियों का बोलबाला है, संस्कृति नैतिकता विहीन हो गयी है ओर न्याय प्रणाली सुस्त और लचर है |
    अनुराग जी ने उचित समाधान सुझाये हैं | निर्धनता और अशिक्षा सबल लोकतंत्र की तथा समाज की उन्नति की सबसे बड़ी रूकावट है | आवश्यकता है “अच्छे, बुद्धिमान और सक्षम” लोगों के सामूहिक प्रयासों की | जब जनता में से ऐसे लोग आगे आयेंगे तो उन्ही में से अच्छा, बुद्धिमान और सक्षम नेतृत्व भी संभव हो सकेगा | समाज सेवा पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है | भारत में ऐसे प्रयासों की बहुत आवश्यकता है, विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में | जब तक सब को शिक्षा नहीं मिलेगी, निर्धनता दूर नहीं होगी, अधिकारों के लिये जागरूकता नहीं होगी, उत्तरदाई प्रशासन नहीं होगा और लोकतन्त्र सबल नहीं होगा – समाज उन्नत नहीं होगा |

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    1. @ सेवा पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है | भारत में ऐसे प्रयासों की बहुत आवश्यकता है
      - बहुत ज़रूरी मुद्दे पर ध्यान दिलाया है आपने, बच्चे अपनी शाला, घर, धार्मिक संस्थान, सभी जगह समाज सेवा का भाग बनते हैं, यहाँ तक कि कॉलेज प्रवेश, या नौकरी के लिए साक्षात्कार जैसे मौकों पर भी समाज सेवा का महत्व है। न जाने कितने अग्निशमन संस्थान समाज सेवकों द्वारा ही संचालित हैं। विद्यालय, चिकित्सालय, अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम से लेकर खेल का मैदान या राजमार्गों की सफाई जैसे काम तक समाज सेवकों द्वारा बखूबी संभाले जा रहे हैं - इस विषय मे हम इनसे जितनी जल्दी जितना अधिक सीख सकें, राष्ट्र का उतना ही हित होगा। आभार!

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    2. हाँ - यह सेवा भाव और सत्यता जब तक हम अपने चरित्र में दुबारा अंगीकार नहीं करेंगे, हम पतन की ओर निरंतर अग्रसर होते ही चले जायेंगे ।

      वैसे, सिर्फ जानकारी के लिए भर कह रही हूँ - बिना अपना ब्लॉग बनाए भी अपने नाम से टिपण्णी दे सकते हैं हम लोग - सिर्फ इतना है कि इसे खोलने से पहले दूसरी विंडो में हम लॉग इन रहे । फिर टिप्पणी में नीचे ऑप्शन आता है - इस रूप में टिप्पणी करें - उसमे गूगल प्रोफाइल टिक करना है ।

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  40. मानस में कहा गया है
    जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन्ह देखि तैसी
    दूसरों को दोष दे कर बच निकलने की जगह आत्मावलोकन होना चाहिए
    सार्थक आलेख
    शुक्रिया

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  41. पराया पकड़ नहीं पाए अपने को छोड़ दिया ...
    हमने शायद बुरी बातों को ग्रहण किया है ... पश्चिम की अनेकों बातें जो आज देश समाज को लेनी चाहियें उन्हें पश्चिम के गलत बातों के आगे हम ग्रहण नहीं करते ओर गलत बातों को पिछले दरवाजे से अनदार लेते रहते हैं ... इस हिप्पोक्रेसी स बाहर आना होगा हमें ...

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  42. विचारणीय आलेख ....अभी सिर्फ पढ़कर जा रही हूँ !
    चर्चा जारी रखे बहुत सारे महत्वपूर्ण मुद्दे है इसपर स्वस्थ चर्चा होनी जरुरी है
    फिर आऊँगी !

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  43. कुछ गिने चुने अपराधो की वजह से भारतीयता नस्ट नहीं होनी चाहिए |हर देश की अच्छाईयों को ग्रहण करनी चाहिए |सुन्दर एवं सोंचनीय आलेख |आप को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं |

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  44. अभी तो यही पता नहीं है कि यह किस भरत का भारत है ,दौष्यन्ति भरत या ऋग्वेद में आये भरतों का?
    हम किसे कोसें?

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  45. पूर्व पश्चिम संस्कृति को मै इस प्रकार से देखती हूँ .....

    देश यदि शरीर है तो संस्कृति उस देश की आत्मा है ! पूर्व की संस्कृति से धर्म विकसित हुआ जिसने जन्म दिया आध्यात्म वाद (धर्म से मतलब संप्रदाय नहीं "मै कौन हूँ "इस तत्व को जाननेका विज्ञानं )पश्चिम की संस्कृति से विज्ञानं विकसित हुवा जिसने जन्म दिया भौतिक वाद जिससे मनुष्य साधन संपन्न तो बहुत हुआ पर आत्मा के तल पर कोई विकास नहीं हुआ ! पूर्व ने भौतिक सुखों को अनदेखा किया आत्मा को ही सर्वोपरि माना, पश्चिम ने आत्मा को अनदेखा किया भौतिक सुखों को ही सर्वोपरि माना इसीकारण आज हम देखते है दोनों संस्कृतियों में एक दुसरे के प्रति निंदा का भाव भी है आकर्षण भी है ! आज हमारे ही शहर में हर घर का कमसे कम एक व्यक्ति अमेरिका में है ! डॉलर्स का नाम सुनते ही भारतीयों के मुह से लार टपकती है ! उनके डालर्स के प्रति तो प्रेम और संकृति के प्रति निदा यह दोगला पन है इनमे, हमारे यहाँ के नेता संत महंत सब इसी श्रेणी में आते है ! पश्चिम की संकृति यहाँ का रुख करने का कारण वही था ओशो के आश्रम में,भौतिक सुखों से वे भी उब गए है आत्मा की उन्हें तलाश है और इन्हें भौतिक सुखों की, मेरी बहन सालों से अमेरिका में है उसकी बातों से मुझे लगा आपके कहे अनुसार मेरी समझ के अनुसार आज जिस हालातों से हमारा देश गुजर रहा है उसे देखते हुए ...पाश्चात्य संकृति कई बेहतर लगती है मुझे ! लेकिन मेरा अपना मानना यही है कि, जब तक भौतिक सुखों की जरुरत को नहीं समझेंगे तब तक आत्मा का विकास भी संभव नहीं है !रही होगी कभी हमारी संकृति उन्नत लेकिन आज नहीं है ...निचे से लेकर ऊपर तक सबका पतन मुझे तो दिखाई दे रहा है ! बलात्कारी एक दिन में पैदा नहीं होता इसके लिए मै जिम्मेदार मानती हूँ माता -पिता को, समाज को,शिक्षा को , कानून को संकृति को !

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    1. जो अन्तर्विषक ज्ञान है- वही सनातन-धर्म का प्रधान अंग है। लेकिन बिना पहले बहिर्विषयक ज्ञान हुए, अन्तर्विषयक ज्ञान असंभव है। स्थूल देखे बिना सूक्ष्म की पहचान ही नहीं हो सकती। बहुत दिनों से इस देश में बहिर्विषयक ज्ञान लुप्त हो चुका है- इसीलिए वास्तविक सनातन-धर्म का भी लोप हो गया है। सनातन-धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान-प्रचार की आवश्यकता है। इस देश में इस समय वह बहिर्विषयक ज्ञान नहीं है- सिखानेवाला भी कोई नहीं, अतएव बाहरी देशों से बहिर्विषयक ज्ञान भारत में फिर लाना पड़ेगा।
      ~ आनंदमठ के अंतिम पृष्ठ से

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    2. बिलकुल सही कहा आपने सहमत हूँ .....आंतरिक दृष्टी देने वालों का ज्ञान खुद संदिग्ध है!धर्म और विज्ञानं जब तक एक नहीं होते मनुष्य के सुख और विकास की बात व्यर्थ है !

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  46. टिप्पणी में "संस्कृति" कृपया सही शब्द समझे दो तिन जगह टायपिंग मिस्टेक है !

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  47. humm..........bahut zor parta hai.......gahre pani utarne ke liye.....

    manthan jari rahe.........


    pranam chachu

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  48. यह सच है की भारत में अक्सर सभी बुराईयों को पश्चिम की देन बता दिया जाता है जबकि यह सही नहीं है... लेकिन यह भी गलत नहीं है की कुछ असर तो पड़ा ही है देश पर पश्चिम की विकृतियों का...
    पश्चिम कोई साफ़ सुथरा और आदर्श जगह नहीं है और भारत में सब खामियां ही है ऐसा भी नहीं है...
    सब जगह गुण दोष होते हैं, दोषों का उपाय ढूंढना चाहिए न की उससे बचने के लिए एक - दुसरे पर दोषारोपण करना चाहिए...
    आज कल में ही यह समाचार बीबीसी से जारी हुआ है जो पश्चिम को भी आईना दिखता है -

    ब्रिटिश सेक्‍स गैंग की करतूत: नशा देकर बच्चियों से सालों करते रहे रेप... लंदन की एक अदालत में इस मामले की सुनवाई की जा रही है। अदालत भी ऑक्सफोर्ड के नौ लोगों के गैंग के कारनामे सुनकर दंग रह गई। इन लोगों पर 11 साल की उम्र तक की आधा दर्जन लड़कियों को करीब आठ सालों तक नशा देकर उनका बलात्कार करने के मामले की सुनवाई हो रही है। ऐसी स्थिति अमेरिका सहित दूसरे देशों में भी है... भारत भी अछूता नहीं है

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