Monday, August 25, 2008

कह के या कर के?

मुग़ल बादशाह की फौज के लिए भर्ती चल रही थी। वैसे तो काम सेनाध्यक्षों और मित्र राजाओं की देखरेख में चल रहा था मगर बीच-बीच में बादशाह ख़ुद भी आकर देख-परख जाते थे। एक सहयोगी राजा साहब की सिफारिश के साथ आए दो सूरमा भर्ती से पहले बादशाह से आमने-सामने बात करना चाहते थे।

मुलाक़ात तय हुई तो पता लगा कि दोनों वीर बादशाह की नौकरी तो करेंगे मगर कुछ सम्माननीय शर्तों के साथ। एक शर्त यह भी थी कि उनकी तनख्वाह उनकी मर्जी से ही तय हो। और उनकी मर्जी उस समय के हिसाब से काफी ज्यादा थी। रकम सुनकर बादशाह को कुछ आश्चर्य हुआ। उसने इतने अधिक पैसे लेने का कारण जानना चाहा।

"हुज़ूर, कह कर बताएं या कर के दिखाएँ," उनमें से एक वीर ने पूछा।

"कहने से करना भला," बादशाह ने सोचा, "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या"

"करके ही देख लेते हैं - दूध का दूध, पानी का पानी हो जायेगा। "

फ़िर क्या था, बादशाह की सहमति होते ही दोनों वीरों ने अपनी-अपनी तलवार निकाली। जब तक बादशाह को कुछ समझ आता दोनों ने एक झटके में एक दूसरे का सर उड़ा दिया।

खेल खतम,पैसा हजम ...

Sunday, August 24, 2008

क्या होगा? - काव्य

मेरे ख़त सबको पढ़ाने से भला क्या होगा?
दिल को अब और जलाने से भला क्या होगा?

आज महफ़िल में तेरी इतने जवाँ चेहरे हैं
इस बदशक्ल पुराने से भला क्या होगा?

जिनके हाथों ने पहाड़ों से गलाया दरया
उनका कमज़ोर ज़माने से भला क्या होगा?

जिनके आंगन में बहा करता है अमृत दिन-रात
उनको कुछ और पिलाने से भला क्या होगा?

राहे बर्बादी को तो खुद ही चुना था मैंने
उसपे अब अश्क बहाने से भला क्या होगा

चाक तन्हाई करे है मेरे दिल को जब भी
उसी नाशुक्र को लाने से भला क्या होगा

दुनियादारी में तो वह अब भी हमसे आगे है
उसको कुछ और सिखाने से भला क्या होगा?

(अनुराग शर्मा)

Saturday, August 23, 2008

ह्त्या की राजनीति

कल तक जिस गाँव में शमशान सा सन्नाटा छाया हुआ था आज वहाँ कुम्भ मेले जैसी गहमागहमी है। लोगों का हुजूम समुद्र की लहरों जैसा उछल रहा है। क्यों न हो, बर्बर समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बर्बर प्रताप जो अपने लाव लश्कर के साथ आए हुए हैं।

उनकी शान का क्या वर्णन करूँ। अलग ही है। खानदानी रईस हैं। 50 गाँवों की ज़मींदारी थी। राजा साहब कहलाते थे। मगर गरीब जनता की सेवा का चस्का ऐसा लगा कि आज अगर कोई राजा कह दे तो शायद उसकी जुबान ही खिंचवा दें। उनका काम करने का तरीका भी आम नेताओं से बिल्कुल अलग है। भाषण तो देते ही हैं, गरीब जनता के ऊपर कविताएँ भी लिखते हैं और चित्रकारी भी करते हैं। गरीबों से इतना अपनापन मानते हैं कि सिर्फ़ भेड़ का सेवन करते हैं। उनकी नज़र में गाय-भैंस तो अमीरों के चोंचले हैं। लोग तो उनकी तारीफ़ में यहाँ तक कहते हैं कि अगर कोई कलाकार गाय का चित्र भी बना दे तो वे उसे तुंरत साम्प्रदायिक करार कर देंगे।

राजसी परिवार का कोई दंभ नहीं तभी तो महल के ऐशो-आराम छोड़कर आम सांसदों की तरह नई दिल्ली के सरकारी बंगले में रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के शहरी जजों का बस चले तो गरीबों के इस मसीहा को पिछले पाँच सालों से उस बंगले का किराया व बिल आदि न देने के इल्जाम में बेघर ही कर दें। मगर राजा साहब जानते हैं कि इस देश की बेघर, भूखी, नंगी और अनपढ़ जनता सब देखती और समझती है। वह अपने राजा साहब के साथ ऐसा अन्याय हरगिज़ न होने देगी।

-=xXx=-
बर्बर प्रताप जी का हैलिकोप्टर अभी अभी नत्थू के खेत में उतरा है। वह बेचारा दूर एक कोने में सहमा सा खडा काले कपडों वाले बंदूकधारियों के दस्ते को देख रहा है। कल रात इसी दस्ते की निगरानी में पुलिसवालों ने उसके खेत की सारी अरहर काट डाली थी ताकि राजा साहब का हेलिकॉप्टर आराम से उतर सके। वह बेचारा सोच रहा है कि अगर उसकी पहुँच राजा साहब के किसी कारिंदे तक होती तो शायद महाजन क़र्ज़ अदायगी को अगली फसल तक टाल देता, वरना तो सल्फास की गोली ही उसका आख़री सहारा है।

लाउडस्पीकर की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ। राजा साहब मंच पर आ गए थे। मंच क्या पूरा किला ही लग रहा था। काले कपड़े वाले बंदूकधारी हर तरफ़ मोर्चा लेकर खड़े हुए थे। राजा साहब पिछले हफ्ते हुई काले प्रधान की ह्त्या का ज़िक्र कर रहे थे। काले हमारे गाँव का प्रधान था। अव्वल दर्जे का जालिम। गरीबों को उसके खेतों में बेगार तो करनी ही पड़ती थी, उनकी बहू बेटियाँ भी सुरक्षित नहीं थी। थाने में भी गरीबों की कोई सुनवाई न थी इसलिये लोग खून का घूँट पीकर रह जाते थे। मगर जब उसहैत की 10 साल की बेटी के साथ पैशाचिक कृत्य की ख़बर मिली तो सारा गाँव ही गुस्से से भर गया। सभी पागल हुए घूम रहे थे मगर किसी की भी इतनी हिम्मत न थी कि थाने में जाकर रपट भी लिखाए। सबको पता था कि जो भी जायेगा थानेदार उसी को मार-कूट कर अन्दर कर देगा। सुबह पता लगा कि उसी रात काले प्रधान का काम तमाम हो गया। गाँव के मर्द तो यह ख़बर मिलते ही भाग खड़े हुए, पुलिस का कहर टूटा औरतों और बच्चों पर। कई बच्चे तो अभी भी हल्दी-चूना लपेटे खाट पर पड़े हैं।


राजा साहब पुलिस के निकम्मेपन का ज़िक्र कर रहे थे। उन्होंने कहा कि गरीब लोग अपनी जान हथेली पर लिए हुए घूम रहे हैं। वे बोले कि पूरे प्रदेश में गुंडों- माफियाओं का राज हो गया है तथा कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। काले प्रधान जैसे सत्पुरुषों की जान ही सुरक्षित नहीं है तो आम लोगों का तो कहना ही क्या। रोजाना ही डकैती, हत्या और बलात्कार हो रहे हैं। उन्होंने नई सरकार के कार्यकाल में कानून व्यवस्था की स्थिति ध्वस्त होने का आरोप लगाते हुए अपनी हत्या की आशंका भी जताई।

मंच से उतरने के बाद राजा साहब ने पत्रकारों से बात की और वहाँ भी अपनी ह्त्या की आशंका को दुहराया। पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि यह सरकार कभी भी उनकी हत्या करवा सकती है। उन्होंने काले प्रधान हत्याकांड को एक राजनीतिक साजिश करार दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि विजेता समाज पार्टी की सरकार के दौरान उनकी पार्टी कार्यकर्ताओं की सरकारी सुरक्षा वापस ली जा रही है। उनके लोगों की चुन-चुनकर हत्या हो रही है। उन्होंने कहा कि विजेता समाज पार्टी की सरकार सिर्फ शहरों पर ध्यान दे रही है और गाँवों के गरीब मजदूर महंगाई, बेरोजगारी और असुरक्षा के बीच पिस रहे हैं। इस सरकार का ग्रामीण जनता से कोई सरोकार नहीं है।


-=xXx=-
चार दिन के बाद जब राजा साहब एक निकटवर्ती गाँव में एक और छुटभय्ये नेता के दशमे में गए तो उनके काफिले पर गंभीर हमला हुआ। उनके सभी बंदूकधारियों का काम तमाम हो गया। हमलावर उनके गोली-बन्दूक भी अपने साथ ले गए। पता लगा कि राजा साहब मृतक नेता के परिवार के भरण-पोषण के लिए पार्टी फंड से कई लाख रुपये भी लाये थे। हमलावर वह सारा रोकड़ा भी अपने साथ ही ले गए। देवी माँ की असीम कृपा थी कि राजा साहब का बाल भी बाँका न हुआ।

-=xXx=-
इस बात को कई महीने गुज़र गए हैं। नेताओं पर बढ़ते हमलों का कारण पता करने के लिए जांच समिति भी बैठ चुकी है। पुलिस आज भी गाँव-गाँव जाकर लोगों को डरा-धमका रही है मगर आज तक किसी को यह पता नहीं चला कि ये सारी घटनाएँ राजा साहब के कारकुनों ने विजेता समाज पार्टी की सरकार के ऊपर राजनैतिक लाभ लेने के लिये कराई थीं।
-=xXx=-