कल शनिवार की छुट्टी थी लेकिन वे तरणताल में नहीं थे। पूरा दिन कम्प्यूटर पर बैठकर अपने बचपन के चित्र लेकर उनके सम्पादन और छपाई पर हाथ साफ करते रहे। आज भी कल का बचा काम पूरा किया है। घर होता तो माँ अब तक कई बार कमरे से बाहर न निकलने का उलाहना दे चुकी होती। शायद चाय भी बनाकर रख गयी होती। अब यहाँ परदेस में है ही कौन उनका हाल पूछने वाला। कितनी बार तो कहा है माँ-बाबूजी को. कि बस एक बार आकर देख तो लीजिये कैसा लगता है यहाँ। किस तरह वसंत में पेड़ों से इतने फूल झड़ते हैं जैसे कि आकाश से देवता पुष्पवर्षा कर रहे हों। सड़क के दोनों ओर के हरे-भरे जंगलों से अचानक बीच में आ गये हरिणों के झुंड देखकर बचपन में पढ़े तपोवनों का वर्णन साक्षात हो जाता है। गर्मियों की दोपहरी में घर से लगी डैक (लकड़ी का मंच) पर बैठ जाओ तो कृष्णहंस से लेकर गरुड तक हर प्रकार का पक्षी दिखाई दे जाता है। ऐसा मनोरम स्थल है, लेकिन कोई फायदा नहीं। बाबूजी हँसकर टाल देते हैं, "जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?" माँ कहती हैं कि बाबूजी के बिना अकेले कैसे आयेंगी, और घूमफिर कर बात वहीं पर आ जाती है जहाँ वे इस समय अकेले बैठकर काम कर रहे हैं।
चालीस के होने को हैं लेकिन अभी तक अकेले। अमेरिका में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके जैसे कितने ही हैं यहाँ। किसी ने एक बार भी शादी नहीं की और किसी ने कुछ साल शादीशुदा रहकर आपसी सहमति से अलग होने का निर्णय ले लिया बिना किसी चिकचिक के। ऐसे गधे भी हैं जो बार-बार शादी करते हैं, और बार-बार पछताते हैं। वे कभी-कभी सोचते हैं तो आश्चर्य होता है कि भारतीय समाज में विवाह इतना ज़रूरी क्यों है। रिश्वती, चोर-डाकू, हत्यारे, बलात्कारी, जीवन भर चाहे कितने भी कुकर्म करते रहें कोई बात नहीं मगर जहाँ किसी को अविवाहित देखा तो सारे मुहल्ले में अफवाहों का बाज़ार गर्म हो जाता है। यहाँ भी उनके भारतीय परिचित जब भी मिलते हैं, एक ही सवाल भिन्न-भिन्न रूपों में दोहराते रहते हैं, "शादी कब कर रहे हो? कब का मुहूर्त निकला है? किसी गोरी को पकड़ लो। अबे, इंडिया चला जा, कोई न कोई मिल ही जायेगी वहाँ ..." आदि-आदि।
पहले वे सफाई देते थे। वैसे सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी। उनके एक मामा और एक चाचा जीवन भर अविवाहित रहे थे। नानाजी के एक भाई तो गाँव भर में ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध थे। बुआ-दादी ने भी मरने तक शादी नहीं की। जिस लड़के को दिल दिया था वह भारी दहेज़ के लोभ में तोताचश्म हो गया। किसी दूसरे के साथ रहने को मन नहीं माना। "मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली" गाते-गाते ही जीवन बिता दिया।
प्रारम्भ में सोचा था कि कुछ पैसा इकट्ठा करके वापस भारत चले जायेंगे। लेकिन दूसरे बहुत से सपनों की तरह यह सपना भी जल्दी ही टूट गया। एक साल भी वहाँ रह नहीं सके। दिन रात सरकारी-अर्धसरकारी विभागों और अखबारों के चक्कर काटने के बावजूद घर के दरवाज़े पर यमलोक के द्वार की तरह खुले पड़े मैनहोल भी बन्द नहीं करवा सके। मकान मालिक के घर में चोरी हुई तो इलाके के थानेदार ने उन्हें सिर्फ इस बात पर चोरों की तरह जलील किया कि उन्होंने कोई आहट कैसे नहीं सुनी। जब स्कूल जाती बच्चियों से छेड़छाड़ करने से रोकने पर कुछ गुंडों ने बीच बाज़ार में ब्लेड से उनकी कमर पर चीरा लगा दिया और रोज़ दुआ सलाम करने वाले दुकानदारों और राहगीरों ने उस समय बीच में पड़ने के बजाय बाद में बाबूजी को समझाना शुरू किया कि इसे वापस भेज दो, विदेश में रहकर सनक गया है, हमारी दुकानदारी चौपट कराएगा तो भयाक्रांत माता-पिता ने भी उनकी अमेरिका वापसी को ही उचित समझा। तब तक उनका मन भी काफी खट्टा हो चुका था सो बिना स्यापा किये वापस आ गये।
खुश ही हैं यहाँ। अपना घर है, ठीक-ठाक सी नौकरी है। हाँ, माँ-बाबूजी साथ होते तो उल्लास ही उल्लास होता। कम्पनी में उनकी छोटी सी टीम है। कुल जमा पाँच लोग। इस टीम में वह अकेले मर्द हैं। एक बार भारत में चार लड़कियों के बीच काम करना पड़ा था तो हमेशा सचेत रहना पड़ता था। कभी अनजाने में मुँह से कुछ गलत न निकल जाये। यहाँ ऐसा कुछ चक्कर नहीं है बल्कि पाँचों के बीच उन्हीं की भाषा सबसे संयत है। यहाँ की संस्कृति भारत-पाक से एकदम अलग है। लड़कों की तरह लड़कियाँ भी कभी भी किसी भी समय निश्चिंत होकर अकेले घर से बाहर निकल जाती हैं। अपना जीवन साथी सबको स्वयं ही ढूँढना पड़ता है। स्वयँवर – वैदिक स्टाइल? कई बार लड़कियों ने इस बाबत बात उनसे भी की है परंतु जब उन्होंने अरुचि दिखाई तो अपना रास्ता ले लिया। न शिकवा, न शिकायत, न खुंदक, न तेज़ाब फेंकने का डर, न ऑनर किलिंग, न खाप अदालत। फिर भी ...।
दिन यूँ ही गुज़र रहे थे मगर अब बदलाव दिख रहा है। पिछली नौकरी में पाकिस्तानी सहकर्मी करीना के साथ अच्छा अनुभव नहीं रहा था सो वहाँ से त्यागपत्र देकर यहाँ आ गये। यहाँ किसी को भी उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में पता नहीं है। फिर भी पिछ्ले कुछ दिनों से सोन्या किसी न किसी बहाने से उनके साथ आकर बैठ जाती है। अकेले में, जब कोई आस-पास न हो। उनके पास आकर अपने पति की शिकायत सी करती रहती है। शुरू में तो उन्होंने अपने से आधी आयु की लड़की की बात को सामान्य बातचीत समझा। वैसे भी बचपने की दोस्ती में प्यार कम शिकायतें ज़्यादा होती हैं। बाबूजी हमेशा कहते हैं, "नादान की दोस्ती, जी का जंजाल"। एक दिन जब उन्होंने सामान्य भारतीय अन्दाज़ में सोन्या को समझाया कि बच्चा होने पर घर गुलज़ार हो जायेगा तो सोन्या एकदम से भड़क गयी, "मुझे उसका बच्चा नहीं पैदा करना है, उसके जैसा ही होगा।"
एक दिन सुबह जब कोई नहीं था तो उनके पास आकर कहने लगी, "आप तो इतने सुन्दर और बुद्धिमान हैं, आपके बच्चे भी बहुत होशियार होंगे।" वह तो अच्छा हुआ कि तभी उनको छींक आ गयी और वे बहाने से रेस्टरूम की ओर दौड़ लिये। बात आयी गयी हो गयी। परसों कहने लगी, "आपमें कितना सब्र है, आप बहुत अच्छे पिता सिद्ध होंगे।" तब से उनका दिल धक-धक कर रहा है। इस सप्ताहांत में दो दिन लगाकर तीन-चार चित्र छापे हैं। सुन्दर चौखटों में जड़कर लैपटॉप के थैले में रख लिये हैं। सोमवार को सोन्या कोई प्रश्न करे इससे पहले ही मेज़ पर धरे यह चित्र स्वयं ही उनका पितृत्व स्थापित कर देंगे और साथ ही एक नये रिश्ते में अनास्था भी। उन्होंने मुस्कराकर शाबाशी की एक चपत खुद ही अपनी गंजी होती चान्द पर लगा ली और सोने चल दिये।
Wednesday, August 4, 2010
Friday, July 30, 2010
बॉस्टन में भारत [इस्पात नगरी से - 27]
पिछ्ली कड़ी [इस्पात नगरी से - 26] में आपने बॉस्टन के रिवियर समुद्र तट पर वालुक कलाकृतियों के साथ-साथ बॉस्टन ब्राह्मण, ब्राह्मण गौवंश और "बॉस्टन से बरेली" पुस्तक के बारे में जाना। आज की कड़ी में भारत के कुछ चिह्न जो मुझे बॉस्टन प्रवास में दिखे।
बॉस्टन पत्तन पर भारतीय झंडा
पाइप पर भारतीय ढक्कन
कश्मीर
ताज बॉस्टन
बॉस्टन में एक रिक्शा
भारत के नाम पर बॉस्टन की एक सड़क
इंडिया स्ट्रीट का नाम पटल निकट से
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]
बॉस्टन पत्तन पर भारतीय झंडा
पाइप पर भारतीय ढक्कन
कश्मीर
ताज बॉस्टन
बॉस्टन में एक रिक्शा
भारत के नाम पर बॉस्टन की एक सड़क
इंडिया स्ट्रीट का नाम पटल निकट से
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]
Tuesday, July 27, 2010
बॉस्टन के पण्डे, गौवंश और सामुद्रिक कला [इस्पात नगरी से - 26]
अगर गोत्र की सूची पूछने पर एक ब्राह्मण गिनाना शुरू कर दे... फ़ोर्ब्स, फिलिप्स, होम्स, इमर्सन, इलियट, ओटिस, .... तो शायद आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे। अचरज क्योंकर न हो, इस ब्राह्मण को कोई भारतीय भाषा नहीं आती है और इसके अंगरेज़ी के विशिष्ट उच्चारण को "बॉस्टन ब्राह्मण उच्चारण" कहा जाता है। आपने सही पहचाना, मैं बात कर रहा हूँ अमेरिका के प्रतिष्ठित बॉस्टन ब्राह्मण (Boston Brahmin) समुदाय की। बॉस्टन के अति-विशिष्ट वर्ग को पहली बार यह सम्बोधन जनवरी 1860 में ऐट्लांटिक मंथली पत्रिका में छपे एक आलेख में दिया गया था और तबसे यह रूढ हो गया है। अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति जॉन ऐडम्स, टी एस इलियट और राल्फ वाल्डो एमर्सन जैसे साहित्यकार, फोर्ब्स जैसे व्यवसायी और हाल ही में गान्धी जी के सामान की नीलामी से चर्चित होने वाला ओटिस परिवार, जिनके नाम ने कभी न कभी आपको "लिफ्ट" कराया होगा, सब बॉस्टन ब्राह्मण हैं। ब्रैह्मिन डॉट कॉम जाने पर अगर आपको चमडे के पर्स बिकते देखकर झटका लगा हो तो आशा है कि अब उसका कारण समझ आ गया होगा।
वैसे अमेरिका में गाय की एक जाति को भी ब्राह्मण गाय/गोवंश (Brahman cow / Zebu cattle) कहा जाता है। अपने चौडे कन्धे और विकट जिजीविशा के लिये प्रसिद्ध यह गोवंश पहली बार 1849 में भारत से यहाँ लाया गया था और तबसे अब तक इसमें बहुत वृद्धि हो चुकी है। और आप सोचते थे कि जर्सी और फ्रीज़ियन गायें बेहतर होती हैं। यह तो वैसी ही बात हुई जैसे उल्टे बाँस बरेली को। अब जब बॉस्टन और बरेली दोनों का ज़िक्र एक साथ ही आ गया है तो 1857 में लिखी, पाँच वर्ष पहले हमारे हत्थे चढी, और हाल में पूरी पढी गयी पुस्तक "फ्रॉम बॉस्टन टु बरेली ऐण्ड बैक" का ज़िक्र भी करे देते हैं जिसमें 1857 के स्वाधीनता संग्राम की कथा उस गोरे पादरी के मुख से कही गयी है जिसने बरेली में एशिया का पहला जच्चा-बच्चा अस्पताल बनाया था। क्लारा स्वेन अस्पताल आज भी बरेली में मिशन हस्पताल के नाम से मशहूर है। बरेली में स्टेशन मार्ग पर बटलर प्लाज़ा नामक एक बाज़ार इसी पुस्तक के लेखक विलियम बटलर के नाम पर है। उनके अच्छे काम की बधाई। किताब की विषयवस्तु के बारे में फिर कभी। पुस्तक न्यूयॉर्क के प्रकाशक फिलिप्स एण्ड हंट द्वारा प्रकाशित है और गूगल बुक्स पर मुफ्त डाउनलोड के लिये उपलब्ध है।
आप कहेंगे कि मैं बॉस्टन कैसे पहुँच गया। जनाब आजकल वहीं की खाक (बालू) छान रहा था, सोचा कुछ वालुका-कलाकृतियाँ आपसे बांट लूँ। चित्र सेलफ़ोन से लिये गये हैं - बडा करने के लिये कृपया चित्र पर क्लिक करें - मुलाहिज़ा फरमाइये:
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
AMERICAN BRAHMAN BREEDERS ASSOCIATION
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]
वैसे अमेरिका में गाय की एक जाति को भी ब्राह्मण गाय/गोवंश (Brahman cow / Zebu cattle) कहा जाता है। अपने चौडे कन्धे और विकट जिजीविशा के लिये प्रसिद्ध यह गोवंश पहली बार 1849 में भारत से यहाँ लाया गया था और तबसे अब तक इसमें बहुत वृद्धि हो चुकी है। और आप सोचते थे कि जर्सी और फ्रीज़ियन गायें बेहतर होती हैं। यह तो वैसी ही बात हुई जैसे उल्टे बाँस बरेली को। अब जब बॉस्टन और बरेली दोनों का ज़िक्र एक साथ ही आ गया है तो 1857 में लिखी, पाँच वर्ष पहले हमारे हत्थे चढी, और हाल में पूरी पढी गयी पुस्तक "फ्रॉम बॉस्टन टु बरेली ऐण्ड बैक" का ज़िक्र भी करे देते हैं जिसमें 1857 के स्वाधीनता संग्राम की कथा उस गोरे पादरी के मुख से कही गयी है जिसने बरेली में एशिया का पहला जच्चा-बच्चा अस्पताल बनाया था। क्लारा स्वेन अस्पताल आज भी बरेली में मिशन हस्पताल के नाम से मशहूर है। बरेली में स्टेशन मार्ग पर बटलर प्लाज़ा नामक एक बाज़ार इसी पुस्तक के लेखक विलियम बटलर के नाम पर है। उनके अच्छे काम की बधाई। किताब की विषयवस्तु के बारे में फिर कभी। पुस्तक न्यूयॉर्क के प्रकाशक फिलिप्स एण्ड हंट द्वारा प्रकाशित है और गूगल बुक्स पर मुफ्त डाउनलोड के लिये उपलब्ध है।
आप कहेंगे कि मैं बॉस्टन कैसे पहुँच गया। जनाब आजकल वहीं की खाक (बालू) छान रहा था, सोचा कुछ वालुका-कलाकृतियाँ आपसे बांट लूँ। चित्र सेलफ़ोन से लिये गये हैं - बडा करने के लिये कृपया चित्र पर क्लिक करें - मुलाहिज़ा फरमाइये:
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