![]() | =============== अनुरागी मन - भाग 1 अनुरागी मन - भाग 2 अनुरागी मन - भाग 3 =============== |
अपने मनपसन्द कॉमिक्स लेकर जब वे बाहर निकले तो उन्होंने बड़ी उत्कंठा से निगाहें सड़क के दोनों ओर दौड़ाईं और हर तरफ उजड्ड देहातियों को पाकर अपनी किस्मत को कोसा। तभी उन्हें आकाश की ओर से एक दिव्य हँसी की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी। अब उन्हें एक अप्सरा को नई सराय की टूटी-फ़ूटी सड़कों की गन्दगी के बीच में ढूंढने की अपनी मूर्खता पर हंसी आयी। अप्सरा तो स्वच्छ सुवासित आकाश में ही होगी न कि नारकीय वातावरण में। लेकिन क्या अप्सरायें सचमुच होती हैं? अपने विश्वास-अविश्वास से जद्दोजहद करते हुए उन्होंने तेज़ होती हँसी के स्रोत को देखने के लिये सर उठाया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गयीं। वही कल वाली अप्सरा ऊपर से उन्हें देख रही थी। “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” और साथ की दुकान के ऊपर बने घर के छज्जे पर अपनी पार्थिव सी दिखने वाली सखि के साथ खड़ी अप्सरा कनखियों से उनको देख उल्लसित हो रही थी। वीरसिंह ने मुस्कराकर एक नज़र भरकर उधर देखा और उछलते हुए से घर की ओर चल दिये।
उस रात नींद में वे लगातार उसी अप्सरा के साथ थे। कभी नई सराय के खंडहरों में और कभी स्वर्ग के उद्यानों के बीच। सुबह बहुत सुन्दर थी। परी के दिवास्वप्नों के बीच याद आया कि आज उन्हें वासिफ से मिलने जाना था। वासिफ खाँ वीरसिंह का सहपाठी था। उसके दादाजी भी नई सराय में ही रहते थे। उसका नई सराय प्रवास वीरसिंह की तरह नियमित नहीं था परंतु इस बार वह भी आया हुआ था। आज प्रातः नई सराय के कुतुबखाने पर वीरसिंह और वासिफ की मुलाकात होनी थी। वीरसिंह प्रातः अपने घर से निकले तो उनकी दादी द्वारा घर पर ही चलाये जा रहे गन्धर्व विद्यालय की छात्रायें प्रतिदिन की तरह आनी शुरू हो गयी थीं। आज वीरसिंह ने पहली बार उन्हें ध्यान से देखा। भिन्न-भिन्न वेश और विभिन्न रंग-रूप लेकिन सब की सब ठेठ नई सरय्या, यानि के एकदम गँवारू। नहाया धोया मुखारविन्द, साफ सुथरे कपड़े, देसी घी खाकर फूले-फूले गाल और सरसों के तेल से चीकट बाल। एक तेज़-तर्रार लडकी के ज़रा पास से निकलने पर आई तोलकर बिकने वाले साबुन की तेज़ गन्ध ने उनकी नासिका को अन्दर तक चीर दिया।
दोनों मित्र कुतुबखाने पर मिले। स्कूल बन्द होने के बाद आज पहली बार वासिफ को देखा था। मिलकर काफी अच्छा लगा। वह भी उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ। वासिफ उन्हें अपना घर दिखाना चाहता था। बातें करते करते वे मस्जिद की ओर चलने लगे। मनिहार गली वाला रास्ता थोड़ा घुमावदार था परंतु कस्साबपुरे वाले रास्ते से कम तंग और बदबूदार था।
वीरसिंह सारे रास्ते वासिफ के साथ थे मगर साथ ही उनका एक समानांतर संसार भी चल रहा था। उनका मन लगातार उसी अप्सरा के सौन्दर्य के काल्पनिक झरने में भीगे जा रहा था। कुछ मिनटों में ही वे वासिफ के दादा की हवेली के सामने खड़े थे। वासिफ लोहे की भारी कुंडी को कोलतार पुती मोटी किवाड़ों पर मारने वाला ही था कि दरवाज़ा अपने आप खुल गया।
वीरसिंह मानो सपना देख रहे हों। उन्हें अपनी खुशकिस्मती पर यकीन ही नहीं हुआ जब दरवाज़ा पकड़े हुए ही उस परी ने मखमली मुस्कान के साथ शर्माते हुए “अन्दर आइये” कहा।
[क्रमशः]