Saturday, September 11, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 4


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अनुरागी मन - भाग 1
अनुरागी मन - भाग 2
अनुरागी मन - भाग 3
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सुबह उठने पर भी वीरसिंह कल वाली परी के बारे में सोचते रहे। जब तक वे नहा धो कर नाश्ते के लिये बैठे, दादाजी अपना अखबार लिये पहले से ही उपस्थित थे। दादी भी रोज़ की तरह अपनी छात्राओं की संगीत की कक्षा सम्पन्न कर के आ चुकी थीं। दादाजी ने हमेशा की तरह अखबार को कोसा और दादी ने उनके पोहे में ढेर सा घी उड़ेल दिया। वीरसिंह खा-पीकर इन्द्रजाल कॉमिक का नया अंक लेने विरामपुरे की इकलौती “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” पहुँच गये। परी का ख्याल अभी भी उनके दिमाग से चिमटा हुआ था। किताबें ढूँढते समय, दुकानदार सक्सेना से बात करते समय उनके मन का एक हिस्सा लगातार यह मना रहा था कि वह अप्सरा सचमुच उन्हें अभी फिर दिख जाये। फिर सोचते कि यदि मनचाहा होता रहता तो कल्पवृक्ष जैसी कल्पनाओं की आवश्यकता ही नहीं होती।

अपने मनपसन्द कॉमिक्स लेकर जब वे बाहर निकले तो उन्होंने बड़ी उत्कंठा से निगाहें सड़क के दोनों ओर दौड़ाईं और हर तरफ उजड्ड देहातियों को पाकर अपनी किस्मत को कोसा। तभी उन्हें आकाश की ओर से एक दिव्य हँसी की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी। अब उन्हें एक अप्सरा को नई सराय की टूटी-फ़ूटी सड़कों की गन्दगी के बीच में ढूंढने की अपनी मूर्खता पर हंसी आयी। अप्सरा तो स्वच्छ सुवासित आकाश में ही होगी न कि नारकीय वातावरण में। लेकिन क्या अप्सरायें सचमुच होती हैं? अपने विश्वास-अविश्वास से जद्दोजहद करते हुए उन्होंने तेज़ होती हँसी के स्रोत को देखने के लिये सर उठाया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गयीं। वही कल वाली अप्सरा ऊपर से उन्हें देख रही थी। “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” और साथ की दुकान के ऊपर बने घर के छज्जे पर अपनी पार्थिव सी दिखने वाली सखि के साथ खड़ी अप्सरा कनखियों से उनको देख उल्लसित हो रही थी। वीरसिंह ने मुस्कराकर एक नज़र भरकर उधर देखा और उछलते हुए से घर की ओर चल दिये।

उस रात नींद में वे लगातार उसी अप्सरा के साथ थे। कभी नई सराय के खंडहरों में और कभी स्वर्ग के उद्यानों के बीच। सुबह बहुत सुन्दर थी। परी के दिवास्वप्नों के बीच याद आया कि आज उन्हें वासिफ से मिलने जाना था। वासिफ खाँ वीरसिंह का सहपाठी था। उसके दादाजी भी नई सराय में ही रहते थे। उसका नई सराय प्रवास वीरसिंह की तरह नियमित नहीं था परंतु इस बार वह भी आया हुआ था। आज प्रातः नई सराय के कुतुबखाने पर वीरसिंह और वासिफ की मुलाकात होनी थी। वीरसिंह प्रातः अपने घर से निकले तो उनकी दादी द्वारा घर पर ही चलाये जा रहे गन्धर्व विद्यालय की छात्रायें प्रतिदिन की तरह आनी शुरू हो गयी थीं। आज वीरसिंह ने पहली बार उन्हें ध्यान से देखा। भिन्न-भिन्न वेश और विभिन्न रंग-रूप लेकिन सब की सब ठेठ नई सरय्या, यानि के एकदम गँवारू। नहाया धोया मुखारविन्द, साफ सुथरे कपड़े, देसी घी खाकर फूले-फूले गाल और सरसों के तेल से चीकट बाल। एक तेज़-तर्रार लडकी के ज़रा पास से निकलने पर आई तोलकर बिकने वाले साबुन की तेज़ गन्ध ने उनकी नासिका को अन्दर तक चीर दिया।

दोनों मित्र कुतुबखाने पर मिले। स्कूल बन्द होने के बाद आज पहली बार वासिफ को देखा था। मिलकर काफी अच्छा लगा। वह भी उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ। वासिफ उन्हें अपना घर दिखाना चाहता था। बातें करते करते वे मस्जिद की ओर चलने लगे। मनिहार गली वाला रास्ता थोड़ा घुमावदार था परंतु कस्साबपुरे वाले रास्ते से कम तंग और बदबूदार था।

वीरसिंह सारे रास्ते वासिफ के साथ थे मगर साथ ही उनका एक समानांतर संसार भी चल रहा था। उनका मन लगातार उसी अप्सरा के सौन्दर्य के काल्पनिक झरने में भीगे जा रहा था। कुछ मिनटों में ही वे वासिफ के दादा की हवेली के सामने खड़े थे। वासिफ लोहे की भारी कुंडी को कोलतार पुती मोटी किवाड़ों पर मारने वाला ही था कि दरवाज़ा अपने आप खुल गया।

वीरसिंह मानो सपना देख रहे हों। उन्हें अपनी खुशकिस्मती पर यकीन ही नहीं हुआ जब दरवाज़ा पकड़े हुए ही उस परी ने मखमली मुस्कान के साथ शर्माते हुए “अन्दर आइये” कहा।


[क्रमशः]

Wednesday, September 8, 2010

पागल – लघु कथा

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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”

स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”

स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”

पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”

स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”

Monday, September 6, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 3

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]

हर शाम की तरह वीरसिंह गुरुद्वारे से दादाजी के घर की ओर आ रहे थे। नई सराय के नारकीय वातावरण से अपने को निर्लिप्त करने के पूर्ण प्रयास करते हुए सायास अपने आपको भैंसों की दुम, आवारा कुत्तों की भौंक और गधों की लीद से कुशलतापूर्वक बचाते हुए चल रहे थे। अचानक एक जादू सा हुआ। मानो आसपास की सारी गन्दगी किसी चमत्कार की तरह अचानक मिट गयी हो। नई सराय की बासी गन्ध की जगह वातावरण में मलयाचल की सुगन्धि भर गयी। लगा जैसे क्षण भर में नई सराय का पूर्ण कायाकल्प हो गया । सौन्दर्य का झरना सा बहने लगा। उन्होंने नज़रें क्या उठाईं कि फिर हटा न सके।

उनके ठीक सामने एक अप्रतिम सौन्दर्य की मूरत दिखाई दी। उस एक अप्सरा के अतिरिक्त सब कुछ विलुप्त हो गया। और यह अप्सरा बचपन में सुनी दादी की कहानियों की रम्भा और उर्वशी जैसी त्रिलोकसुन्दरी होकर भी उनसे एकदम उलट थी। गर्दन तक कटे हुए आधुनिक बाल उसके स्कर्ट टॉप के एकदम अनुकूल थे। कुन्दन सी त्वचा और नीलम सी आंखें उस कोमलांगी को ऐसी अनोखी रंगत प्रदान कर रहे थे मानो किसी श्वेत-श्याम चित्र में अचानक ही रंग भर गये हों। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं रहा कि वे कितनी देर तक अपने आसपास से बिल्कुल बेखबर होकर उस अप्सरा को अपलक देखते रहे थे। वे चौंककर होश में तब आये जब उनके कान में किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी। देखा कि एक 6-7 वर्षीय बालक ने उस अप्सरा का हाथ खींचकर कहा, “क्या हुआ दीदी?”

अप्सरा का मुँह आश्चर्य से खुला हुआ था। उसके चेहरे पर छपे हुए अविश्वास के भाव देखकर उन्हें लगा कि शायद वह भी उन्हीं की तरह स्तम्भित रह गयी थी। उसने मिस्रीघुली वाणी में बच्चे से कहा, “कुछ भी तो नहीं।” और वीरसिंह की ओर एक मुस्कान बिखेरती हुई चली गयी। कुछ देर ठगे से खडे रहने के बाद वीरसिंह ने कनखियों से इधर-उधर का जायज़ा लिया तो पाया कि नई सराय का कारोबार हमेशा की तरह बेरोकटोक चल रहा था। किसी ने भी उन्हें वशीकृत होते हुए नहीं देखा था। वे घर आये तो दादी ने पूछा, “सब ठीक तो है न बेटा?”

“मुझे क्या हुआ है?” उन्होंने यूँ कहा मानो कुछ हुआ ही न हो। मगर तब तक दादी अन्दर चली गयी थीं, नज़र उतारने की सामग्री लेने के लिये।

रात का खाना खाकर सब सोने चले गये मगर वीरसिंह की आंखों में नीन्द कहाँ। सोचते रहे कि उन्होंने जो कुछ भी आज देखा था क्या वह सच था या केवल एक भ्रम। उनका ग्वाला कलुआ कहता है कि आसपास के गांवों के कुछ नौजवानों को किसी परी की आत्मा ने नियंत्रित कर लिया था। दिन ब दिन कमज़ोर होते गये और फिर पागल होकर मर गये। वीरसिंह को परी, आत्मा आदि के अस्तित्व में विश्वास नहीं है। लेकिन तब यह लड़की कौन थी? उस पर वह अनोखी रंगत, अनोखी आँखें और अनोखी आवाज़! इस लोक की तो नहीं हो सकती है वह। और उसकी वह अलौकिक स्मिति? सत्य का पता कैसे लगेगा?

दूर किसी रेडियो पर एक मधुर लोकगीत हवा में तैर रहा था। वीरसिंह उस अप्सरा के बारे में सोचते हुए गीत की सुन्दर शब्द-रचना के झरने में डूबने उतराने लगे।

छल बल दिखाके न कोई रिझा ले
पल्लू गिराके न कोई बुला ले
निकला करो न अन्धेरे उजाले
लाखों सौतन फिरत हैं नगरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में


[क्रमशः]