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निराशा अपने मूर्त रूप में |
जितनी भारी भरकम आस
उतना ही मन हुआ निरास
राग रंग रीति इस जग की
अब न आतीं मुझको रास
सागर है उम्मीदों का पर
किसकी यहाँ बुझी है प्यास
जीवन भर जिसको महकाया
वह भी साथ छोडती श्वास
संयम का सम्राट हुआ था
बन बैठा इच्छा का दास
जिसपे किया निछावर जीना
वह क्योंकर न आता पास
कुछ पल की कहके छोड़ा था
गुज़र गये दिन हफ्ते मास
तुमसे भी मिल आया मनवा
फिर भी दिन भर रहा उदास
जिसके लिये बसाई नगरी
उसने हमें दिया वनवास
अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास
(चित्र ऐवम् कविता: अनुराग शर्मा)