Wednesday, November 1, 2017

सेतु हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता


आपकी प्रिय द्वैभाषिक मासिक पत्रिका 'सेतु' के प्रथमांक से अब तक के अल्पकाल में 'सेतु' को 231,000 से अधिक बार देखा और पढ़ा गया है। यह आप सबका प्रेम है सेतु के प्रति, सेतु के रचनाकारों के प्रति। प्रकाशन के अल्पकाल में ही सेतु द्वैभाषिक पत्रिका को असीमित सहयोग देने और अप्रतिम सफलता दिलाने के लिये सेतु सम्पादन मण्डल आपका आभारी है।

पिछले वर्ष इसी समय घोषित सेतु अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी काव्य प्रतियोगिता की असीम सफलता से उत्साहित होकर हिंदी दिवस और हिंदी पक्ष के पर्व वाले सितम्बर मास के इस अंक में 'सेतु' के हिन्दी संस्करण की ओर से एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है, जिसके लिए आप अपनी सर्वश्रेष्ठ, मौलिकअप्रकाशित लघुकथा को यूनिकोड देवनागरी में लिखकर वर्ड फ़ाइल के रूप में सेतु हिंदी को setuhindi@gmail.com पर 31 दिसम्बर 2017 (भारतीय समयानुसार) तक भेज दीजिये।

भाग लेने के लिये आयु, राष्ट्रीयता आदि जैसी कोई सीमा नहीं है। प्रतियोगिता के अन्य नियम वही हैं जो सेतु में प्रकाशन के लिये रचना भेजने के नियम हैं। कृपया रचना भेजने के नियम भली प्रकार पढ़कर, उनके पालन की स्वीकृति अवश्य भेजें। ईमेल भेजते समय विषय में एवं संलग्न कविता के शीर्षक के पूर्व 'सेतु हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता 2017' लिखना न भूलें।

निर्णायक मण्डल द्वारा चयनित सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के लिये निम्न पुरस्कार निर्धारित किए गए हैं, जो कुछ विशेष परिस्थितियों में बढ़ाए जा सकते हैं।
  • प्रथम पुरस्कार: $125
  • द्वितीय पुरस्कार: $100
  • तृतीय पुरस्कार: $75
  • अन्य पुरस्कार: साहित्यिक पुस्तकें
कृपया परिणामों की घोषणा होने तक प्रविष्टियों को अन्यत्र प्रकाशन के लिये न भेजें। पुरस्कार प्राप्त न करने वाली लघुकथाओं में से भी प्रकाशन योग्य रचनाएँ सेतु के आगामी अंकों में प्रकाशित की जा सकती हैं। अन्य अप्रकाशित रचनाओं को लेखक कहीं भी भेजने के लिये स्वतंत्र हैं।

नियमों का सारांश:
1. प्रविष्टियाँ केवल ईमेल द्वारा setuhindi@gmail.com पते पर स्वीकार की जायेंगी।
2. एक व्यक्ति की ओर से केवल एक रचना स्वीकार की जायेगी।
3. रचना पूर्णतः अप्रकाशित हो, न कहीं छपी हो, न ऑनलाइन, फ़ेसबुक, ब्लॉग, ई-समूहों आदि में साझा की गई हो। प्रतियोगिता का निर्णय होने तक रचना कहीं प्रकाशन के लिये न भेजी जाय, न ही ऑनलाइन, फ़ेसबुक, ब्लॉग, ई-समूहों आदि में साझा की जाय। ऐसी जानकारी मिलते ही प्रविष्टि रद्द कर दी जायेगी।
4. रचना यूनिकोड में टंकित हो, अन्य स्वरूपों में लिखी, स्क्रीनशॉट, ऑडियो, लिंक, आदि के रूप में भेजी गई रचनाओं को पूर्व-अस्वीकृत मानिये।
5. विषय में एवं संलग्न कविता के शीर्षक के पूर्व 'सेतु हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता 2017' लिखना आवश्यक है।
6. रचना भेजने के नियम भली प्रकार पढ़कर, उनके पालन की स्वीकृति का वचन रचना के साथ भेजना एक अनिवार्यता है।
8. निर्णायक मण्डल का निर्णय अंतिम और मान्य होगा।
9. भारतीय समयानुसार 31 दिसम्बर 2017 के बाद मिली प्रतियोगिता प्रविष्टियाँ स्वतः अयोग्य मानी जायेंगी।
10. परिणामों का प्रकाशन सेतु के मार्च 2018 अंक में किया जायेगा।

हार्दिक मंगलकामनाएँ!

Monday, October 9, 2017

एक नज़र - कविता

(अनुराग शर्मा)

हर खुशी ऐसे बच निकलती है
रेत मुट्ठी से ज्यूँ फिसलती है

ये जहाँ आईना मेरे मन का
अपनी हस्ती यूँ ही सिमटती है

बात किस्मत की न करो यारों
उसकी मेरी कभी न पटती है

दिल तेरे आगे खोलता हूँ जब
दूरी बढ़ती हुई सी लगती है

धर्म खतरे में हो नहीं सकता
चोट तो मजहबों पे पड़ती है

सर्वव्यापी में सब हैं सिमटे हुए
छाँव पर रोशनी से डरती है।



साक्षात्कार: अनुराग शर्मा और डॉ. विनय गुदारी - मॉरिशस टीवी - 13 सितम्बर 2017

Friday, September 22, 2017

प्रेम का धन

प्रेमधन

प्रेम भी एक प्रकार का धन ही है। बल्कि सच कहूँ तो इसका व्यवहार वित्त जैसा ही है। किसी के पास प्रेम की भावना का बाहुल्य है, और किसी के पास रत्ती भर भी प्रेम नहीं होता। अधिकांश लोग इन दोनों स्थितियों के बीच में कहीं खड़े, बैठे, या पड़े होते हैं। जिस प्रकार हर निर्धन भिखारी नहीं होता, उसी प्रकार अधिकांश प्रेमहीन लोग भी समुचित चिंतन, प्रयास, श्रम, और भाग्य से गुज़ारे भर का प्रेम कमा ही लेते हैं। और जिस प्रकार लोग धन देकर अपनी भौतिक ज़रूरतें पूरी करते हैं,  उसी प्रकार प्रेम देकर अपनी मानसिक आवश्यकताओं की आपूर्ति करते हैं। प्रेम एक भावनात्मक धन है और आपके भावनात्मक जीवन में इसका योगदान महत्वपूर्ण है। आइये, कुछ उदाहरणों के साथ समझें प्रेम के वित्त-सरीखे व्यवहार को।

प्रेम और अधिकार

ध्यान रहे कि अधिकार की भावना प्रेम नहीं होती। सच पूछिये तो ममत्व की भावना भी कुछ सीमा तक प्रेम नहीं है। उदाहरण के लिये, जो माता-पिता अपने बच्चों की शादी उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर, अपनी मर्ज़ी से करना चाहते हैं, वे बच्चों पर अपनी सम्पत्ति की तरह अधिकार तो मानते हैं, लेकिन उस भावना को प्रेम नहीं कहा जा सकता। प्रेम में प्रसन्नता तो है, लेकिन वह प्रसन्नता दूसरे की प्रसन्नता में निहित है। यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो आप उसे प्रसन्न देखना चाहते हैं। और उसकी प्रसन्नता के लिये आप कुछ भी करने को तैयार रहेंगे। सामान्य सम्बंधों में प्रेम और अधिकार की भावनाएँ एक साथ भी न्यूनाधिक मात्रा में पायी जाती हैं।

प्रेम धनाढ्य या कंगाल

जिसके पास पैसा नहीं है, वह सामान्यतः उसे खर्च नहीं कर सकता। ठीक उसी तरह जिसके पास संतोषजनक प्रेमभावना नहीं है, वह दूसरों को प्रेम नहीं दे पाता है। यदि आपके मन में यह भावना घर कर जाये कि आपको समुचित प्यार नहीं मिला तो आप किसी अन्य व्यक्ति को प्यार नहीं दे पायेंगे। प्यार कुढ़ते हुए नहीं होता, न बदले की भावना से ही किसी से प्यार किया जा सकता है। प्रेममय समाज, प्रेममय परिवार, और प्रेममय व्यक्ति किसी धनाढ्य समाज, परिवार या व्यक्ति के जैसे ही प्रेमधन को देने में सक्षम हैं। लेकिन दुर्भावना से ग्रस्त व्यक्ति किसी को प्रेम कैसे कर पायेगा। साथ ही यदि आप अपने को दलित, वंचित, और सताया हुआ ही मान बैठे हैं तो प्रेमधन के नाम पर आपकी थैली में कानी कौड़ी ही मिलेगी। इस स्थिति में आप प्रेम की पाई खर्च नहीं कर पायेंगे।

प्रेम का लेनदेन, उधारी और निवेश 

प्रेम का खाता भी किसी बैंक खाते जैसा ही है। जितनी अधिक राशि जमा है उतनी का ही उपयोग हो सकता है। और यह राशि प्रेम-व्यवहार के आधार पर घट-बढ़ भी सकती है। मेरे दादाजी कहते थे कि 'मिलना-मिलाना, आना-जाना, खाना-खिलाना' आपसी प्रेम बनाये रखने में सहायक सिद्ध होता है।

जिनके साथ आप प्रेम प्रदर्शित करते हैं, यदि वे लगातार आपको दुत्कारते रहें तो उनपर आपके प्रेमधन का खर्च उसकी प्राप्य भावना के मूल्य से अधिक है। ऐसे में एक सामान्य सम्भावना यह है कि आप कुछ समय बाद इस सौदे में लगातार हो रहे घाटे को पहचानकर इस व्यवहार को बंद कर देंगे। रिश्ते की गर्माहट आमतौर पर इसी तरह कम होती है, और अधिकांश मैत्रियाँ अक्सर इसी कारण से टूटती हैं।

एक और सम्भावना यह भी है कि आपके पास इतना पैसा है कि आप किसी सत्कार्य की तरह इस व्यवहार को चलाते रहें। चूंकि स्वार्थ से बचना कठिन है, इसलिये इकतरफ़ा प्रेम को जारी रखने की यह दूसरी सम्भावना सामान्यतः, रक्त सम्बंधों या वैवाहिक सम्बंध से बाहर दुर्लभ ही होती है। इस सम्बंध में मेरा प्रिय कथन है:
इक दाता है इक पाता है, तो हर रिश्ता निभ टिक जाता है

कई बार प्यार में उधारी भी होती है, जब आप किसी की निरंतर बेरुखी के बावज़ूद एक परिवर्तन-बिंदु (threshold point) की आशा में एकतरफ़ा प्यार लुटाते रहते हैं। यदि निर्धारित समय में वह परिवर्तन बिंदु आपकी दृष्टि-सीमा में नहीं दिखता तो आप अपना प्रेम समेटकर दूसरी ओर निकल लेते हैं। कभी-कभी इसका उलटा भी होता है जब परिवर्तन बिंदु न आने की वजह आपके प्रेम के योगदान की कमी होती है, और प्रेम को समुचित मात्रा तक बढ़ाकर अपना वांछित सरलता से पाया जा सकता है।

हर प्रेममय कर्म, प्रेम के खाते में एक जमापर्ची की तरह होता है जो प्रेम की वृद्धि करता है। उसी प्रकार हर द्वेषपूर्ण कर्म उस खाते से थोड़ा सा प्रेम कम करता जाता है। आपसी बेरुखी को दण्ड या सर्विस चार्ज जैसा माना जा सकता है।


प्रेमिल विडम्बना

प्रेमधन से हीन लोग अक्सर इतने आत्मकेंद्रित होते हैं कि प्रेममय व्यवहार या व्यक्ति को देख नहीं पाते। जिस प्रकार आर्थिक व्यवहार में हर शिकायत जायज़ नहीं होती उसी तरह दो व्यक्तियों के रिश्ते में दूसरी ओर से प्रेम न मिलने की शिकायत करने वाला व्यक्ति खुद भी रिश्ते में प्रेम-वंचना का ज़िम्मेदार हो सकता है। नवविवाहितों को मेरी सलाह यही है कि जब भी आप अपने जीवन-साथी की शिकायत किसी तीसरे व्यक्ति से करें तो जीवन-साथी की उपस्थिति में करें ताकि वह सिक्के का दूसरा पक्ष सामने रख सके जिसे देखने से शायद आप वंचित रहे हों।
प्रेमधन की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि कंजूस अक्सर दानवीर की शिकायत लगा रहा होता है।

प्रेम निवेश

जैसे धन का निवेश अच्छा या बुरा परिणाम देता है, ठीक वैसे ही आप जिससे प्यार करते हैं, उसके गुण-दुर्गुण आपकी भावनात्मक उन्नति या पतन के कारक बन सकते हैं। कई बार अंधाधुंध निवेश किसी बुरे निवेश को बचा लेता है। लेकिन सामान्यतः बुरे निवेश में हुए घाटे को बट्टे-खाते में डालकर वहाँ से बच निकलना ही बेहतर उपाय है। इसी प्रकार प्रेम भी सोच-समझकर सही व्यक्ति से कीजिये और ग़लती होने की स्थिति में अपनी हानि को न्यूनतम करने का प्रयास करते हुए बंधन से बाहर आने में ही बुद्धिमता है। ऐसे कई झटके खाने वाले प्रेम-निर्धन का दिवाला पिट जाना एक सामान्य घटना है। लेकिन यह भी सच है कि धन की ही तरह आपके अंतर का प्रेम जितना अधिक होगा, दूसरी ओर से अपेक्षित परिणाम न आने पर भी आपके प्रेम की निरंतरता बने रहने की सम्भावना उतनी ही अधिक है।

निवेश की गुणवत्ता के अलावा उसकी व्यापकता भी वित्त और प्रेम में समान होती है। जिस प्रकार धन सम्पदा की बहुलता के अनुपात में व्यक्ति फेरी लगाने से लेकर वैश्विक संस्थान चलाने तक के विभिन्न स्तरों में से कहीं हो सकता है उसी प्रकार बड़े प्रेम धनाढ्य का निवेश एक व्यक्ति से बढ़कर, एक समूह, समाज या संसार के लिये हो सकता है।

धरोहर बनाम स्व-अर्जित प्रेमभाव

कई परिवार, समुदाय, राष्ट्र या समाज विपन्न होने के कारण उनकी संतति भी विपन्न होती है क्योंकि परिवेश में धन होता ही नहीं। वित्त की कमी, प्राकृतिक धन यथा हरीतिमा, जल, वनस्पति, खनिज आदि की अनुपलब्धता के साथ पुरुषार्थ धन यथा  कृषि, उद्योग, विपणन आदि की कमी के कारण धन विरासत में उपलब्ध नहीं होता। ऐसे समाज में जहाँ बहुतेरे लोग विपन्न ही मर जाते हैं, कोई एकाध अपवाद स्वयम्भू धनाढ्य बनने का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वित्त की यही सामाजिक स्थिति प्रेम के बारे में भी सत्य है। कई समुदायों में क्रोध, हिंसा, शिकायत आदि जैसी प्रेम-निर्धनता किसी विरासत की तरह सर्व-व्याप्त है और वे स्वाभाविक प्रेम की धरोहर से वंचित हैं। उन्हें पता ही नहीं कि प्रेम क्या है और प्रेममय समाज वांछित क्यों है।  ऐसे अभागे समुदाय में प्रेममय बनना कठिन तो है परंतु असम्भव नहीं।

आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही प्रेम-धन का विस्तार होता जाता है। हम भारतीयों के लिये प्रेम की हज़ारों वर्ष से निरंतर बनी हुई सामाजिक धरोहर गर्व का विषय है। सर्वे भवंतु सुखिनः, और वसुधैव कुटुम्बकम की स्थितियाँ इस भारत की पारम्परिक विचारधारा की प्रेममय स्थिति में स्वाभाविक हैं।  गीता के अनुसार:
विद्याविनयसपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी, शुनिचैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:

प्रेम में भ्रष्टाचार

जैसे हमारे आस-पास आर्थिक मामलों में भ्रष्ट आचरण या बेईमानी करने वाले दिखते हैं, उसी प्रकार के अनैतिक लोग प्रेम और अन्य भावनात्मक मामलों में भी भ्रष्ट आचरण करते दिख सकते हैं। यह भ्रष्टाचार प्रेम नहीं है, बल्कि अनैतिक रूप से प्रेम या उससे निरूपित भावनात्मक संतोष चुराने का प्रयास है और आर्थिक भ्रष्टाचार की तरह ही ग़लत है। ऐसे आचरण के कई रूप हो सकते हैं। जिस प्रकार किसी वेतनभोगी कर्मी द्वारा अपने कार्य की  ज़िम्मेदारियों का निर्वहन न करना ग़लत है उसी प्रकार जिस सम्बंध में प्रेम की अपेक्षा हो वहाँ प्रेम न रखना भी अपने उत्तरदायित्व को न निभाने के कारण अनैतिक आचरण ही है - रिश्ते में बेईमानी। इसी प्रकार जैसे किसी और का धन अनधिकार उठा लेना अनैतिक है वैसे ही किसी अनिच्छुक या असम्बंधित से प्रेम की अपेक्षा भी ग़लत है। और उसके लिये दवाब डालना वैसा ही ग़लत है जैसे भिक्षा के मुकाबले चोरी, और  चोरी के मुकाबले डकैती। अनैतिकता और अपराध की सीमा कई बार बहुत बारीक होती है इसलिये यह ध्यान रहे कि आर्थिक दुराचार की तरह ही कुछ आचरण आपराधिक रूप में परिभाषित न होते हुए भी अनैतिक हो सकते हैं।

राग, द्वेष, कड़वाहट, असंतोष

असंतोष प्रेम का बड़ा शत्रु है। साथ ही कड़वाहट या द्वेष भी प्रेम का शत्रु है। प्रेम रहे न रहे, जीवन में द्वेष के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये। आपका ज़ोर अपने जीवन में प्रेम की भावना की उन्नति की ओर रहे तो बहुत अच्छी बात है। विद्याधन की तरह प्रेमधन भी बाँटने से बढ़ता है। प्रेम का आधिक्य आपको भावनात्मक रूप से शक्तिशाली बनाता है। सबसे प्रेम कीजिये और सही प्रत्युत्तर न मिलने पर न्यूट्रल भले हो जायें, द्वेष को पनपने मत दीजिये।

बहुतेरे अनपढ़ बाबा किस्म के लोग राग, द्वेष को एक ही लाठी से हाँकते दिखते हैं। उनके झांसे में मत आइये और यह ध्यान रखिये कि राग और द्वेष में आकाश-पाताल का अंतर है। सुर, ताल, राग, अनुराग सभी सात्विक हैं जबकि द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि एक अलग ही वर्ग की विकृतियाँ हैं।

भावनात्मक संतुलन

वित्तीय संतुलन की तरह ही आपके जीवन में भावनात्मक संतुलन बनाने में प्रेम, संतोष, सहनशीलता आदि सद्गुणों का अत्यधिक महत्व है। इन्हें बनाये रखिये। भावनात्मक परिपक्वता की सहायता से शांतचित्त रहते हुए अपना जीवन व्यवहार सम्भालिये और प्रसन्न रहिये।

जो होनी थी वह हो के रही, अब अनहोनी का होना क्या
जब किस्मत थी भरपूर मिला, अब प्यार नहीं तो रोना क्या


शुभकामनाएँ!