Wednesday, September 10, 2008

ब्रिटिश जेल का प्रयोग

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य पोषक आहार के मानव मन और प्रवृत्ति पर प्रभाव की संक्षिप्त समीक्षा करना है। लेख में वर्णित अध्ययन अपराध घटाने के उद्देश्य से इंग्लॅण्ड की जेलों में किए गए थे। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

सन २००२ में इंग्लॅण्ड में सज़ा भुगत रहे २३० अपराधियों पर एक अनोखा प्रयोग किया गया। प्रशासन ने उनके भोजन को पौष्टिक बनाने के प्रयास किए। ऐलेस्बरी युवा अपराधी संस्थान (Aylesbury young offenders' institution, Buckinghamshire ) में कैद १८ से २१ वर्ष की आयु के इन अपराधियों को भोजन में नियमित रूप से आवश्यक विटामिन व खनिज की गोलियाँ दी जाने लगीं। भोजन और अपराध का वैज्ञानिक सम्बन्ध ढूँढने के उद्देश्य से किए गए अपनी तरह के पहले इस प्रयोग में अपराधियों में से कुछ को झूठी गोलियाँ भी दी गयीं। प्रयोगों से पता लगा कि पौष्टिक भोजन पाने वाले कैदियों की अपराधी मनोवृत्ति में सुधार आया और जेल के अन्दर हिंसक घटनाओं में काफी कमी आयी। अध्ययन के प्रमुख कर्ता-धर्ता श्री बर्नार्ड गेश्च (Bernard Gesch) का कहना है कि देश के नौनिहालों को गोभी, गाज़र और ताज़ी सब्जियाँ खिलाने से अपराधों की संख्या में भारी कमी लाई जा सकती है। इस अध्ययन में अपराधों में ३७% कमी अंकित की गयी थी।

हौलैंड व अमेरिका की जेलों में हुए समान प्रकृति के अध्ययनों से भी मिलते-जुलते नतीजे ही सामने आए। फल-सब्जी-विटामिन की गोली आदि दिए जाने पर अपराधियों की मनोवृत्ति सहज होने लगी और उनकी खुराक में हॉट-डॉग व मुर्गा वापस लाने पर हिंसा ने दुबारा छलाँग लगाई। अधिक मीठे व मैदा का प्रयोग भी हानिप्रद ही था। खनिज और अम्लीय-वसा की आपूर्ति ने कैदियों की सोच को काफी सुधारा।

सन २००५ में आठ से १७ साल तक के अमेरिकन बच्चों के मनोविज्ञान के बारे में किए गए अध्ययनों से भी लगभग यही बात सामने आयी। वहाँ भी खनिज व अम्लीय-वसा की कमी और मीठे व मैदा की अधिकता को हानिप्रद पाया गया। इस अध्ययन में एक चौंकाने वाली बात सामने आयी और वह थी कि बहुत से बच्चों के व्यवहार में विकार का कारण यह था कि उन्हें उच्च श्रेणी का प्रोटीन नहीं मिल पाता था। इन बच्चों के परिवार जन इस भ्रम में थे कि उनके द्वारा खाए जाने वाले मांस से उन्हें पर्याप्त प्रोटीन मिल रहा है। जबकि सच्चाई यह थी कि यह बच्चे सोया, चावल, स्पिरुलिना आदि शाकाहारी स्रोतों में पाये जाने वाले उच्च श्रेणी के प्रोटीन से वंचित थे। उच्च श्रेणी के शाकाहारी प्रोटीन की कमी के अलावा जस्ते की कमी भी अपराध की ओर प्रवृत्त होने का एक कारण समझी गयी।

सन्दर्भ: http://www.naturalnews.com/006194.html
सन्दर्भ: http://www.telegraph.co.uk/news/1398340/Cabbages-make-prisoners-go-straight.html

Tuesday, September 9, 2008

शाकाहार और हत्या

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ४
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग , भाग २ एवं भाग 3 पढ़ें]

प्राचीन भारत में गौमांस भक्षण के समर्थन में एक प्रमुख तर्क "हठ योग प्रदीपिका" में से दिया जाता है। गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा पंद्रहवीं शती में लिखा हुआ यह ग्रन्थ संस्कृति, इतिहास या भोजन के बारे में नहीं है इतना तो इसके नाम से ही पता लग जाता है। पहली बात तो यह कि पंद्रहवीं शताब्दी में लिखे ग्रन्थ से प्राचीन भारत की स्थिति, संस्कृति या विचारधारा को नहीं सिद्ध किया जा सकता है। तो भी आईये हम "हठ योग प्रदीपिका" पर नज़र डालकर देखें कि सत्य क्या है। निम्न श्लोक को उधृत कर के लोगों से कहा जाता है कि गौमांस सामान्य था - विशेषकर योगी व ब्राह्मणों में। योग-मुद्राओं से सम्बंधित अध्याय तीन के श्लोक 47 से:

गोमांसं भक्ष्हयेन्नित्यं पिबेदमर-वारुणीम
कुलीनं तमहं मन्ये छेतरे कुल-घातकाः

इस श्लोक का अर्थ करते हुए ऐसा कहा जाता है की कुलीन लोग गौमांस व सोमरस का नित्य सेवन करते हैं और न करने वाले तो कुल-घातक हैं। गौमांस-भक्षण की ऐसी अफवाहें फैलाने वाले कभी भी इस श्लोक के अगले श्लोक का ज़िक्र नहीं करते जिसमें इस तथाकथित गौमांस की प्रकृति का खुलासा किया गया है:

गो-शब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि
गो-मांस-भक्ष्हणं तत्तु महा-पातक-नाशनम (अध्याय 3 - श्लोक 48)

गो अर्थात जिह्वा को ऊपर ले जाकर और फिर पीछे की ओर मोड़कर तालू में लगाकर महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। यहाँ पर गो जिह्वा है और गोमांस एक मुद्रा हैऔर अमर जल जिह्वा का रस है। आश्चर्य होता है कि लोग भारतीय ग्रंथों में हर तरफ भरे हुए अहिंसा, दया और मानवता के सिद्धांतों को छोड़ ग्रंथों में मुश्किल से एकाध जगह आए प्रतीकात्मक वाक्यों के अर्थ का अनर्थ कर के उसका दुरूपयोग अपने कुतर्कों के लिए करते हैं.

लिए बहुत समय दे दिया जिह्वा-चर्चा को, आइये अब एक नज़र डालते हैं पिछली बार के शाकाहार सम्बन्धी शब्दों के अर्थ पर। "शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का अब तक केवल एक ही उत्तर आया है। जैसा कि मैंने पहले कहा था, इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है। आजकल पौधों के लिए रूढ़ हुआ संस्कृत के शब्द शस्य का मूल है शस जिसका अर्थ है काटना या हत्या करना। हथियारों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द शस्त्र भी "शस" से ही निकला है। वनस्पति का काटने से क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह शस्य के अर्थ से स्पष्ट है। शस्य वह है जिसकी हत्या की जा सकती है अर्थात, वनस्पति मे से जिनको हम भोजन के लिए काट सकते हैं वे शस्य हैं। इस शब्द से वनस्पति मे जीवन का आभास भी मिलता है और प्राणी-हिंसा की मनादी भी। कहा जाता है कि शस्य शब्द ने ही जगदीश चंद्र बासु को वनस्पति में जीवन की उपस्थिति सिद्ध करने को प्रेरित किया था।

मांस शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं - मुझे ज़्यादा नहीं पता मगर मनु स्मृति के अनुसार एक अर्थ:
मांस: = मम + स: = मुझे + यह = यह मुझे वही करेगा जो मैं इसे कर रहा हूँ = मैंने इसे खाया तो यह मुझे खायेगा।

यह अर्थ कर्म-फल के सिद्धांत के भी बिल्कुल अनुकूल बैठता है। संत कबीर के शब्दों में इसी बात को निम्न दोहे में प्रकट किया गया है:

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।

तो भइया अब आप जो चाहे सो खाओ, हमें तो बख्शो इस जंजाल से। हाँ, अब यह मत कहना कि हमने आपको आगाह नहीं किया था।

चलते चलते एक सवाल: अस्त्र और शस्त्र में क्या अन्तर है?

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में से कुछ ऐसे मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिसकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

Sunday, September 7, 2008

शाकाहार का अर्थ - शस्य या मांस

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ३
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग एवं भाग २ पढ़ें]

"शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का केवल एक ही उत्तर आया है जगत-ताऊ श्री पी सी रामपुरिया की तरफ़ से। अगर मैं कहूं कि इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है तो आप क्या कहेंगे? (बाकी का आधा सिद्धांत मांस शब्द में छिपा है)

बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स में हम पढ़ चुके हैं कि पश्चिमी देशों में भी बुद्धिमान लोग अक्सर शाकाहारी हो जाते हैं। हम भारतीय तो बुद्धिमानी की इस परम्परा को हजारों पीढियों से निभा रहे हैं - कृपया अपने-अपने ज्ञान चक्षु खोलिए और शस्य का अर्थ ढूँढने की कोशिश कीजिये।

पिछले दो अंकों में हमने शाकाहार के विरोध में सामान्यतः दिए जाने वाले तर्कों और उनकी सतही प्रकृति को देखा। इसी बीच आप लोगों की ज्ञानवर्धक टिप्पणियां पढने को मिलीं। ब्लॉग लिखने में मुझे इसीलिये मज़ा आ रहा है क्योंकि इसमें ज़्यादा कुछ उधार नहीं रहता - इधर आपने लिखा और उधर किसी टिप्पणी ने आपकी भूल सुधार दी - धन्यवाद!

रामपुरिया जी ने याद दिलाया कि खानपान का सम्बन्ध देश-काल से है। मैं उनकी बात से अधिकांशतः सहमत हूँ। भारत में बहुत से लोग सिर्फ़ इसीलिये शाकाहारी हैं क्योंकि हमारे पूर्वजों ने शाकाहार को एक जीवन-दर्शन देने के महान कार्य पर हजारों वर्षों तक काम किया है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि लेओनार्दो दा विन्ची जैसे लोग तेरहवीं शताब्दी के यूरोप में भी शाकाहारी थे। उनके बाद के यूरोपीय शाकाहारी लोगों में जॉर्ज बर्नार्ड शौ का नाम उल्लेखनीय है। अपने समय और माहौल से ऊपर उठकर भी अच्छे विचारों को अपनाना महापुरुषों की ऐसी खूबी है जो उन्हें आम लोगों से अलग करती है। लेकिन इससे हम भारतीयों के शाकाहार का मूल्य कम नहीं होता।

डॉक्टर अनुराग आर्य ने भारतेंदु जी को उद्धृत करते हुए बताया कि मांसाहारी लोग भी कहीं अधिक चरित्रवान हो सकते हैं। मुझे इसमें कोई शंका नहीं है। सच्चाई यह है कि मैं अनगिनत चरित्रवान मांसाहारियों को जानता हूँ और उनके खान-पान की वजह से उनमें मेरी श्रद्धा में कोई कमी नहीं आयी है। रामपुरिया जी द्वारा याद दिलाये गए श्री रामकृष्ण परमहंस के मत्स्य-भक्षण को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है। मुझे पूरा विश्वास है कि इन चरित्रवान लोगों में से कोई भी शाकाहार-विरोधी कुतर्कों में अपना जीत नहीं ढूंढेगा। मैंने ऐसे कुछ लोगों को मांसाहार का पूर्ण परित्याग करते हुए भी देखा है। चरित्रवान व्यक्ति अगर चेन-स्मोकर भी होता है तो भी डंके की चोट पर कहता है कि धूम्रपान बुरी बात है और थोड़ी भी आत्मशक्ति बढ़ने पर उसे ख़ुद भी छोड़ देता है।

ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने इस बात पर संशय व्यक्त किया कि कुछ नए लोग - विशेषकर तर्क द्वारा - शाकाहारी बनेंगे। बिल्कुल सही बात है। हमारे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हमारी अपनी समझ से ही आता है - तर्क या तो विद्वानों के लिए होते हैं या फिर तानाशाहों के लिए - उनसे असलियत नहीं बदलती है। फिर भी अमेरिका जैसे देशों में शाकाहार की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। हाँ उसका रूप हमारे यहाँ से अलग है। तीन वर्षों में यहाँ भोजन में खुम्भी का प्रयोग दोगुना हो गया। मांसाहार के दुष्प्रभावों की जानकारी भी काफी तेज़ी से बढ़ रही है।

जितेन्द्र भगत जी की बात भी ठीक है। शाकाहार से करुणा उत्पन्न नहीं होती है। परन्तु इसका उलटा तो सत्य है। करुणा से शाकाहार का रास्ता आसान हो जाता है। हिन्दी में कहावत है, "घर का जोगी जोगडा, आन गाँव का सिद्ध" हम भारतीय लोग शाकाहार के महत्त्व को इसलिए नहीं समझ पाते हैं क्योंकि यह हमें सहज ही उपलब्ध है। ज़रा विन्ची और बर्नार्ड शो जैसे लोगों के देश-काल में जाकर देखिये और आप जान पायेंगे कि करुणा कैसे अनगिनत कठिनाइयों के बावजूद शाकाहार की तरफ़ प्रवृत्त करती है। दूसरी बात यह कि मांस को गंदा समझ कर न छूना बिल्कुल ही भिन्न दृष्टि है। उसका अहिंसा और दया से क्या लेना? मैं चार साल के ऐसे पशुप्रेमी भारतीय बालक को जानता हूँ जो अपने मांसाहारी माँ-बाप को चुनौती देकर कहता था कि वह बड़ा होकर सारी दुनिया के मांसाहारी लोगों और पशुओं को अपने घर बुलाकर दाल-रोटी खिलायेगा। इसी तरह आठ साल की एक अमेरिकन लडकी ने उस दिन मांस खाना छोड़ दिया जब उसने किसी त्यौहार पर अपने दादाजी की भोजन-चौकी पर एक सूअर का सर रखा हुआ देखा। बरेली में मेरा एक मुसलमान सहपाठी शाकाहारी था और केरल का एक मुसलमान सहकर्मी भी। मांसाहारी परिवारों में जन्मे इन दोनों का शाकाहार करुणा से प्रेरित था। ऋचा जी की बात लगभग यही कहती है।

कविता जी ने डॉक्टर हरिश्चंद्र की अन्ग्रेज़ी में लिखित दो पुस्तकों A Thought for Food और The Human Nature and Human Food को पढने की सलाह दी है। लगे हाथ मैं भी सृजनगाथा पर छपे एक लेख अहिंसा परमो धर्मः पढने की अनुशंसा कर देता हूँ। आपको अच्छा लगेगा इसकी गारंटी मेरी है।

चलते चलते दो सवाल: १. मांस शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है?
२. पौधों/वनस्पति/हरयाली के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द शस्य का शाब्दिक अर्थ क्या है?

[अगली कड़ी में शस्य और मांस के अर्थ एवं गौमांस की शास्त्रीय स्वीकृति के आक्षेप की चर्चा...]

[क्रमशः]