Saturday, October 11, 2008

सुनें प्रेमचंद की कालजयी रचनाएं

कोई विरला ही होगा जो मुंशी प्रेमचंद का नाम न जानता हो। हिन्दी साहित्य जगत में वे एक चमकते सूर्य की तरह हैं। आवाज़ (हिन्दयुग्म) के सौजन्य से अब आप उनकी कालजयी रचनाओं को घर बैठे अपने कम्प्युटर पर सुन सकते हैं। आवाज़ की शृंखला सुनो कहानी में हर शनिवार को प्रेमचंद की एक नयी कहानी का पॉडकास्ट किया जाता है जिसे आप अपनी सुविधानुसार कभी भी सुन सकते हैं। इन कहानियों को को स्वर दिये हैं शोभा महेन्द्रू, शिवानी सिंह एवं अनुराग शर्मा ने।

अभी तक प्रकाशित कुछ ऑडियो कथाओं के लिंक यहाँ हैं:

* सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'आख़िरी तोहफ़ा'
* कहानीः प्रेमचंद की कहानी 'पर्वत-यात्रा'
* प्रेमचंद की अमर कहानी "ईदगाह" ( ईद विशेषांक )
* कहानीः प्रेमचंद की कहानी 'अमृत' का पॉडकास्ट
* प्रेमचंद की कहानी 'अपनी करनी' का पॉडकास्ट
* कहानीः शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रेमचंद की कहानी 'प्रेरणा'
* प्रेमचंद की कहानी 'अनाथ लड़की' का पॉडकास्ट
* कहानीः प्रेमचंद की 'अंधेर'
* अन्य बहुत सी कहानियाँ

तो फ़िर देर किस बात की है? ऊपर दिए गए लिंक्स पर क्लिक करिए और आनंद उठाईये अपनी प्रिय रचनाओं का। अधिकाँश कहानियों को विभिन्न फॉर्मेट में डाउनलोड करने की सुविधा भी है ताकि आप बाद में उसे अपने कंप्युटर, आईपॉड या एम् पी थ्री प्लेयर द्वारा बार बार सुन सकें या CD बना सकें।

Thursday, October 9, 2008

खोया पाया - कविता

कितना खोया कितना पाया,
उसका क्या हिसाब करें हम?

दर्पण पर जो धूल जमा है,
उसको कैसे साफ करें हम?

सपने भी अपने भी बिछड़े,
कब तक यह संताप करें हम?

नश्वर सृष्टि नष्ट हुई तो,
नूतन जग निर्माण करें हम।

भूल चूक और लेना-देना,
कर्ज-उधारी माफ़ करें हम।

बीती बातें छोड़ें और अब,
आगत का सम्मान करें हम॥


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Tuesday, October 7, 2008

अमरीकी आर्थिक मंदी और भारतीय पञ्चबलि

अमेरिका आर्थिक मंदी के एक कठिन दौर से गुज़र रहा है। इस मंदी का असर दुनिया भर के बाज़ारों पर भी पड़ रहा है। बाज़ार की ख़बर रखने वाले ताऊ रामपुरिया ने अपनी पोस्ट गुड गुड गोते खाती अर्थ-व्यवस्था में इस विषय के कालक्रम की विस्तार से चर्चा की थी. आर्थिक पहलू तो हैं ही, इस समस्या के अपने मानवीय पहलू भी हैं। आर्थिक तंगी का असर मानवीय संबंधो पर भी पड़ रहा है। कुछ सामाजिक पहलूओं का सन्दर्भ मेरी पिछली पोस्ट एक शाम बेटी के नाम में आया था। आम तौर पर अमेरिकी साहसी होते हैं और कठिनाइयों का सामना बड़ी दिलेरी से करते हैं। मगर जब मंदी लंबे समय तक रह जाए तो समीकरण बदलने लगते हैं। लोगों की नौकरियां छूट रही हैं, घरों से हाथ धोना पड़ रहा है, कुछ परिवार टूट भी रहे हैं। मगर आज की ख़बर बहुत दर्दनाक है। लॉस एंजेलेस में रहने वाले और हाल ही में बेरोजगार हुए भारतीय मूल के ४५ वर्षीय कार्तिक राजाराम ने संभवतः आर्थिक कारणों से गोली मारकर आत्महत्या कर ली। यह ख़बर इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि सैन फ़्रांसिस्को वैली के पोर्टर रैंच में रहने वाले राजाराम ने मरने से पहले गोली मारकर अपने साथ रहने वाले पाँच परिजनों की भी हत्या कर दी। राजाराम ने नयी ख़रीदी बन्दूक से अपने तीन बेटों, पत्नी और सास को मौत के मुँह में धकेल दिया। एक आत्महत्या पत्र में राजाराम ने लिखा है कि उसके लिए पूरे परिवार सहित मरना अधिक सम्मानजनक है। अपने घर में बैठकर शायद मैं किसी दूसरे व्यक्ति की कठिनाईयों को पूरी तरह से नहीं समझ सकता हूँ मगर फिर भी मेरे दिल में बार-बार यह सवाल उठ रहा है कि "क्यों?" आख़िर क्यों हम हार जाते हैं समाज के बनाए हुए समीकरणों से? हत्या और आत्महत्या में हम सम्मान कैसे ढूंढ सकते हैं? ज़िंदगी क्या इतनी सस्ती है कि पैसे के आने-जाने से उसका मोल लगाया जा सके? और फिर ख़ुद मरना एक बात है और अपने आप को पाँच अन्य लोगों के जीवन का निर्णायक समझ लेना? उन लोगों की परिस्थिति को जाने बिना मैं सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ कि ईश्वर मृतकों की आत्मा को शान्ति दे और कठिनाई से गुज़र रहे दूसरे लोगों को सामना करने का साहस दे और सही रास्ता दिखाए।