Wednesday, March 23, 2011

ईमानदारी - जैसी मैने देखी

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कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।

बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।

पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।

पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।

Saturday, March 19, 2011

अक्षर अक्षर - एक कविता

[अनुराग शर्मा]

कागज़ी खानापूरी से
दिमागी हिसाब-किताब से
या वाक्चातुर्य से
परिवर्तन नहीं आता
क्योंकि
क्रांति का खाजा है
त्याग, साहस
इच्छा-शक्ति, पसीना
और मानव रक्त

कफन बांधकर
निकल पडते हैं
प्रयाण पर
शुभाकांक्षी वीर
जबकि
सुरक्षित घर में
छिपकर
कलम तोड़ते हैं
ठलुआ शायर

जान जाती है
बयार आती है
क्रांति हो जाती है
युग परिवर्तन होता है
खेत रहते हैं वीर
बिसर जाते हैं
वीर, त्यागी और हुतात्मा
कर्म विस्मृत हो जाते हैं
लिखा अमिट रहता है
अलंकरण पाते हैं
डरपोक कवि
क्योंकि
अक्षर अक्षर है।
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Thursday, March 17, 2011

नव शारदा - रंग ही रंग - शुभकामनायें!

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हर ओर उल्लास है। लकडियाँ इकट्ठी कर के आग लगायी गयी है। अबाल-वृद्ध सभी त्योहार के जोश में हैं। क्यों न हो। सन 2005 से वे अपना पर्व मनाने को स्वतंत्र हैं। तुर्की ने आखिर सन 2005 में कुर्द समुदाय को अपना परम्परागत उत्सव नव शारदा मनाने की छूट दे ही दी। भारत में पारसी, बहाई, शिया और कश्मीरी पण्डित (नवरेह के नाम से) तो यह त्योहार न जाने कब से मनाते आ रहे हैं। परंतु यह पर्व भारत के बाहर भी दूर-दूर तक मनाया जाता है। ईरान में अयातुल्लह खोमेनी की इस्लामी सरकार आने के बाद लेखकों कलाकारों की मौत के फतवे तो ज़ारी हुए ही थे, साथ ही ईरानियों के प्रमुख त्योहार नवरोज़ को भी काफिर बताकर प्रतिबन्धित कर दिया गया था। ठीक यही काम अफगानिस्तान में तालेबान ने किया। परंतु मानव की उत्सवप्रियता को क्या कभी रोका जा सका है? दोनों ही देशों की जनता हारी नहीं। पर्व उसी धूमधाम से मनता है।

जी हाँ, परम्परागत ईरानी नववर्ष नव शारदा का वर्तमान नाम नौरोज़, नवरोज़ और न्यूरोज़ है। पारसी परम्पराओं में इस नवरोज़ को जमशेदी नौरोज़ भी कहते हैं। क्योंकि यह उत्सव यमदेव/जमशेद के सम्मान में है। ईरानी जनता को मृत्यु की ठिठुरन से बचाने के बाद जब वे अपने रत्न-जटित सिंहासन समेत स्वर्गारूढ हो गये तब उनके लिये प्रसन्न होकर लोगों ने इस पर्व की शुरूआत की। इस साल यह पर्व 20 मार्च 2011 को पड रहा है।

20 मार्च को ही एक और त्योहार भी है "पूरिम" जिसमें नौरोज़ की तरह पक्वान्नों पर तो ज़ोर है ही साथ ही सुरापान की भी मान्यता है। यहूदियों के इस पर्व में खलनायक हमन के पुतले को सामूहिक रूप से आग लगाई जाती है, पोस्त की मिठाइयाँ बनती हैं और नाच गाना होता है।

22 मार्च को भारत सरकार के राष्ट्रीय पंचांग "शक शालिवाहन" सम्वत का आरम्भ भी होता है। इस नाते यह भारत का राष्ट्रीय नववर्ष हुआ, शक संवत 1933 की शुभकामनायें!

और अपनी होली के बारे में क्या कहूँ? दीवाली का प्रकाश तो यहाँ भी वैसा ही लगता है मगर होली की मस्ती के रंग फीके ही लगते हैं।

आप सभी को होली की मंगलकामनायें!