Wednesday, July 22, 2015

अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद

यदि देशहित मरना पडे मुझको सहस्रों बार भी
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी
हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो
मृत्यु का कारण सदा देशोपकारक कर्म हो

(~ अमर स्वतन्त्रता सेनानी एवं प्राख्यात कवि पण्डित रामप्रसाद "बिस्मिल")
चन्द्रशेखर आज़ाद का एक दुर्लभ चित्र
चन्द्रशेखर "आज़ाद" 
जन्म: 23 जुलाई 1906
भावरा ग्राम (अलीराजपुर, मध्य प्रदेश)
बदरका ग्राम ( उन्नाव, उत्तर प्रदेश)
देहांत: 27 फरवरी 1931
(इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश)
माँ: जगरानी देवी
पिता: सीताराम तिवारी
शिक्षा: महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़ उल्लाह खाँ और भाई भगवतीचरण वोहरा जैसे क्रांतिकारियों के साथी और भगतसिंह सरीखे क्रांतिकारियों के दिग्दर्शक चन्द्रशेखर "आज़ाद" भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उन अनुकरणीय महानायकों में से हैं जिनका सहारा अनेक नायकों को मिला
  • सन 1921 में 15 वर्षीय चन्द्रशेखर ने गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भागीदारी की 
  • सन 1922 में असहयोग आंदोलन की वापसी पर अंग्रेज़ी सत्ता का जुझारू विरोध
  • हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की कार्यवाहियों में सक्रिय सहयोग 
  • सन 1925, काकोरी कांड में भागीदारी   
  • सन 1927, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की फांसी   
  • सन 1928: हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) की स्थापना
  • सन 1928: भगवती चरण वोहरा, दुर्गा भाभी, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का सहयोग
  • सन 1928, पुलिस लाठीचार्ज से लाला लाजपत राय का देहावसान
  • सन 1928, लाहौर में जॉन सॉन्डर्स की हत्या 
  • सन 1929, दिल्ली में असेंबली बम काण्ड और शहीदत्रयी की गिरफ्तारी 
  • सन 1930, शहीदत्रयी को जेल से छुड़ाने की योजना में भाई भगवती चरण वोहरा की मृत्यु 
  • सन 1930-31, आज़ाद द्वारा राजनीतिक सहयोग से शहीदत्रयी को छुड़ाने के प्रयास 
  • 27 फरवरी 1931 - इलाहाबाद: एक महान सेनानी का अवसान 
लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक का जन्मदिन भी आज ही है। उन्हें भी हार्दिक श्रद्धांजलि!
संबन्धित कड़ियाँ
* अमर नायक चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्मदिन
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* नायकत्व क्या है - सारांश और विमर्श
* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा - आज़ाद के निकटतम सहयोगी
* शहीदों को तो बख़्श दो

Sunday, July 19, 2015

किस्सागो का पक्ष - अनुरागी मन

अनुरागी मन से दो शब्द

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ।

कथा निर्माण के उदेश्य से मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। लेकिन हमारा परिचय केवल उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहाँ भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ उठाया है। इस हद तक, कि कुछ पात्र शायद अपने को वहाँ पहचान न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका जीवन नहीं है।

मेरे पात्र भले लोग हैं। अच्छे या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर। मेरी कहानियाँ इन पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैंने अपने या पात्रों के अनुभवों में से कुछ भी यथावत नहीं परोसा है।

मेरी हर कहानी एक संभावना प्रदान करती है। एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। यदि कहीं निराशा दिखती भी है, वहाँ भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतम् गमय का उद्घोष है। कल अच्छा था, आज बेहतर है, कल सर्वश्रेष्ठ होगा।

हृदयस्पर्शी संस्मरण लिखने के लिए पहचाने जाने वाले अभिषेक कुमार ने अपने ब्लॉग पर अनुरागी मन की एक सुंदर समीक्षा लिखी है, मन प्रसन्न हो गया। आभार अभिषेक!

इसे भी पढ़िये:
अनुरागी मन की समीक्षा अभिषेक कुमार द्वारा
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2
* अच्छे ब्लॉग लेखन के सूत्र
* बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं? 

Thursday, July 2, 2015

सच या झूठ - लघुकथा

पुत्र: ज़माना कितना खराब हो गया है। सचमुच कलयुग इसी को कहते हैं। जिन माँ-बाप का सहारा लेकर चलना सीखा, बड़े होकर उन्हीं को बेशर्मी से घर से निकाल देते हैं, ये आजकल के युवा।

माँ: अरे बेटा, पहले के लोग भी कोई दूध के धुले नहीं होते थे। कितने किस्से सुनने में आते थे। किसी ने लाचार बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, किसी ने जायदाद के लिए सगे चाचा को मारकर नदी में बहा दिया। सौतेले बच्चों पर भी भांति-भांति के अत्याचार होते थे। अब तो देश में कायदा कानून है। और फिर जनता भी पढ लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी समझती है।

पुत्र: नहीं माँ, कुछ नहीं बदला। आज सुबह ही एक बूढ़े को फटे पुराने कपड़ों में सड़क किनारे पड़ी सूखी रोटी उठाकर खाते देखा तो मैंने उसके बच्चों के बारे में पूछ लिया। कुछ बताने के बजाय गाता हुआ चला गया
 खुद खाते हैं छप्पन भोग, मात-पिता लगते हैं रोग।

माँ: बेटा, उसने जो कहा तुमने मान लिया? और उसके जिन बच्चों को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिला, उनका क्या? हो सकता है बच्चे अपने पूरे प्रयास के बावजूद उसे संतुष्ट कर पाने में असमर्थ हों। हो सकता है वह कोई मनोरोगी हो?

पुत्र: लेकिन अगर वह इनमें से कुछ भी न हुआ तो?

माँ: ये भी तो हो सकता है कि वह झूठ ही बोल रहा हो।

पुत्र: हाँ, यह बात भी ठीक है।