Wednesday, December 7, 2011

क़ौमी एकता - लघुकथा

"अस्सलाम अलैकुम पण्डित जी!  कहाँ चल दिये?

"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"

"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"

"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"

"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"

"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"

"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"

"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"

"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"

"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"

"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"

"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "

"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"

"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"

"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"

"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"

"एक नहीं, दो!"

"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"

"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"

"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"

"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैंने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"

"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"

"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"

"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"

"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"

"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"

"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"

"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"

Thursday, December 1, 2011

तू मेरा बन - कविता

रेशम तन
निर्मल मन

तुझको ही
चाहें जन

हटा तमस
चमके जीवन

मन बाजे
छन छन

जग तेरा
तू मेरा बन

(~ अनुराग शर्मा)
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* सब तेरा है
* क्यों सताती हो?
* आग मिले

Tuesday, November 29, 2011

इमरोज़, मेरा दोस्त - लघुकथा

फ़्लाइट आने में अभी देर थी। कुछ देर हवाई अड्डे पर इधर-उधर घूमकर मैं बैगेज क्लेम क्षेत्र में जाकर बैठ गया। फ़ोन पर अपना ईमेल, ब्लॉग आदि देखता रहा। फिर कुछ देर कुछ गेम खेले, विडियो क्लिप देखे। इसके बाद आते जाते यात्रियों को देखने लगा और जब इस सबसे बोर हो गया तो मित्र सूची को आद्योपांत पढकर एक-एक कर उन मित्रों को फ़ोन करना आरम्भ किया जिनसे लम्बे समय से बात नहीं हुई थी।

जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।

मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"

"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।

"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।

जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।

पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।

घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।

इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"

30 नवम्बर 2011: कोलकाता विश्व विद्यालय में आगंतुक प्रवक्ता और विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन का १७६ वां जन्मदिन
[समाप्त]