Saturday, August 28, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 2

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]


नोएडा के इस अपार्ट्मेंट की शामें इसी तरह गुज़रती थीं। बैठक में एक साथ बैठे ये तीनों मित्र ईर, बीर और फत्ते, रात के खाने की तैयारी करते करते अपने दिन भर के अनुभव एक दूसरे के साथ बांटते थे। बीच-बीच में एक दूसरे के हाल पर टीका-टिप्पणियाँ भी होती थीं।

तीनों में सबसे बडा फत्ते यानि फतहसिंह पास के ही अट्टा गाँव से था। किसान परिवार का बेटा। वकालत पढ़कर पहले तो दिल्ली के एक मशहूर वकील का सहायक बना और फिर आयकर विभाग में निरीक्षक हो गया। घर में पैसे की कमी पहले भी नहीं थी, अब तो अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

ईर यानि अरविन्द कल्याणपुर कर्नाटक से था। पतला दुबला भला सा लड़का, बुद्धि और हास्य बोध का संगम। गणित में स्नातकोत्तर और संस्कृत का विद्वान। लम्बा कद, चौड़ा माथा, गौरांग और सुदर्शन। कमी ढूंढने निकलें तो शायद इतनी ही मिले कि सफाई के मामले में कभी-कभी थोड़ा सनक जाता था। उसकी उपस्थिति में किसी को भी जूते उतारे बिना घर में घुसने की इजाज़त नहीं है, फत्ते को भी नहीं जोकि दरअसल इस घर का मालिक है। ईर वैसे दिल का बहुत साफ है। सहायक स्तर की परीक्षा पास करके केन्द्रीय सचिवालय में नौकरी करने पहली बार उत्तर भारत के दर्शन करने अकेला आया है। इससे पहले उत्तर के नाम पर बचपन में अपने दादा-दादी के साथ तीर्थ यात्रा पर ही आया था। दिल्ली-नोएडा के बारे में सामान्य ज्ञान इतना विस्तृत है कि जंतर मंतर को अघोरपंथ का केन्द्र समझता था।

तीसरे बचे बीर यानी वीर सिंह! इतनी जल्दी भूल गये। वही जो इस कथा के आरम्भ में आपको नई सराय के विरामपुरे के अपने पैतृक निवास का वृत्तांत सुना रहे थे। उम्र में इन तीनों में सबसे छोटे, बाकी दोनों के स्नेह से लबालब भरे हुए। उस स्नेह का पूरा लाभ भी उठाते हैं। सबकी सुनते हैं मगर अपने दिल की कम ही बताते हैं। एक सरकारी बैंक में अधिकारी बनकर आये हैं। अब तीन अलग अलग ग्रहों के यह प्राणी एक साथ रहने कैसे आ गये इसकी भी एक लम्बी कहानी है मगर अभी मैं आपको उसमें नहीं उलझाऊँगा। फिलहाल खाना खाकर बड़े वाले दोनों वीरसिंह को कुछ सामाजिक होने का पाठ पढा रहे हैं और पृष्ठभूमि में पीनाज़ मसानी की आवाज़ में वीरसिंह का प्रिय गीत चल रहा है:

नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में

वैसे तो वीरसिंह केवल मुकेश के रोने धोने वाले गीत ही सुनते हैं मगर इस एक गीत से उन्हें विशेष लगाव है। बाकी दोनों मित्र उत्सुकता से इस का कारण जानना चाहते हैं। आज वीरसिंह ने उनके अनुरोध को मानकर वह कहानी सुनाना शुरू किया है और इस बहाने हमें भी विरामपुरा यात्रा पर लिये जा रहे हैं।
[क्रमशः]


आवाज़ पर "सुनो कहानी" का सौवाँ अंक: सुधा अरोड़ा की "रहोगी तुम वही", रंगमंच, दूरदर्शन और सार्थक सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकार राजेन्द्र गुप्ता की ज़ुबानी

19 comments:

  1. कहानी बहुत अच्छी चल रही है, हालांकि समय के हिसाब से कुछ सुस्त है। पहले और दूसरे भाग में लेखक बदल गया। पिछले भाग में आपने लिखा था.....
    ऐसी प्राचीन नई सराय के विरामपुरे में मेरा पैतृक घर था।
    इस तरह दूसरे भाग का वीरसिंह पहले भाग की कहानी का लेखक था। इस बार वह अन्य पुरुष हो गया है और लेखक सूत्रधार के रूप में खुद अवतरित हो गया है।

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  2. दुर्बा अक्षत पुष्पं पत्रं
    सब हाथ में ले कर कथा सुनने बैठे हैं। किस्सागोई के गुर भी सीखने को मिलेंगे।
    आप की कहानियों में जो बारीक ह्यूमर दिखता है, वह लाजवाब होता है।

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  3. उम्र में कम पर साथ में मुकेश ?
    या इलाही ये माज़रा क्या है :)

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  4. अब तो पात्र परिचय भी हो गया है। पात्र क्या गुल खिलायेंगे, देखना है।

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  5. मजा आ रहा है पढ कर, सब से ज्यादा रुचि फ़त्ते मै है, वेसे तो सभी पात्र अच्छॆ लगे.... अगली कडी का इंतजार है

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  6. बहुत ही लाजबाब कहानी लगी.... आभार

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  7. यह प्रभावशाली शैली ही रोचकता बनाए रखने के लिए पर्याप्त है |

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  8. बहुत सरस धारा बह रही है, आगे का इंतजार है.

    रामराम.

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  9. कथा सुन्दर ढंग से आगे बढ़ रही है....

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  10. चालण देयो सर जी गाडी ने, ईर बीर फ़त्ते के कारनामों का इन्तज़ार रहेगा।

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  11. बेहतरीन रहा..जारी रहिये..पढ़ रहे हैं.

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  12. कोई कमेन्ट नहीं सिर्फ ढेर सारी मुस्कान ...:):):):)

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  13. कहानी की पृष्टभूमि बहुत उम्दा तयार हो रही है ... तोचकता बॅडने लगी है ....

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  14. हम्म... पढ़ रहे हैं.

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  15. रोचक प्लेटफार्म बन चुका है अब लगता है कहानी सुपर फास्ट गति से चलने वाली है..हर प्लेफॉर्म पर पैनी नज़र रखनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि कोई छूट जाय

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  16. इन कहानियों के साथ ही साथ आप रहस्‍य कथाऍं भी लिखना शुरु कर दें। आप पाठक को इधर-उधर देखने का मौका नहीं देते।

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  17. अच्छा तिलस्म बुना है।

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  18. प्लीज ...अधिक इन्तजार न करवाईयेगा बाकी पढवाने में...
    रसभंग बड़ा ही कष्टप्रद लगता है...

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  19. ये भी अच्छी रही ...
    संगम होगा के नहीं ?
    गंगा, जमुना सरस्वती के
    पुरुष रूप
    रोचक लगे !
    फिर ? ....
    आगे क्या हुआ ? :)
    स स्नेह
    - लावण्या

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