Tuesday, March 27, 2012

क्या तिब्बत की आग चीनी तानाशाही को भस्म करेगी?

स्वतंत्रत तिब्बत = हिमालय की शांति

सारे तिब्बत में आग लगी हुई है। शांतिप्रिय तिब्बतियों को चीनी सैनिक अपने जूतों-तले रौंद रहे है। मठों पर सेना का कब्ज़ा है। भिक्षुकों को बाहरी समाज से काट दिया गया है। तोड़्फ़ोड के आरोप में पिछले दिनों एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को चीन की एक अदालत ने 13-13 वर्ष की सजा सुनाई है। अनेक भिक्षुकों की गोलियों से छलनी लाशें मिल चुकी हैं और भी न जाने कितने भिक्षुक लापता हैं। चीन की दानवी सरकार की दमनकारी नीतियों से परेशान तिब्बती जन सेना की लाठी और गोली खाकर भी भूख हड़ताल, जन आंदोलन, और आत्मदाह कर रहे हैं। 2012 के आरम्भ से अब तक तिब्बत की स्वतंत्रता व दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर सिचुआन तथा अन्य क्षेत्रों में रह रहे 30 आत्मदाह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। न जाने कितने मामले कठोर चीनी सेंसर नीति के तहत दबे पड़े होंगे।

चीनी दमन के विरुद्ध विश्व भर में आवाज़ उठा रहे तिब्बतियों को भारी समर्थन मिल रहा है। न्यूयॉर्क में तीन तिब्बती युवाओं का 30 दिन पुराना अन्शन समाप्त कराते समय संयुक्त राष्ट्र ने भी चीन के साथ तिब्बत विषयक वार्ता का आश्वासन दिया है। मगर भारत के हालात उलट हैं। "शरणागत रक्षा" का दम भरने वाली धरती पर चीनी हू जिंताओ के आगमन से पहले तिब्बतियों की बस्तियों पर भारतीय प्रशासन ने दमन की कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी हैं। और यह हू जिंताओ है कौन? एक तानाशाह ही न! फिर उसके आगमन से पहले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत को छावनी क्यों बनाया जा रहा है? चीनी शासक यह जानें या न जानें, भारतीय सदा से जानते हैं कि स्वतंत्रता मानवमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। तिब्बती जन भी स्वतंत्र वायु में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है। आज जब चीनी दवाब में आकर नेपाल और भारत की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तिब्बतियों की अहिंसक और शांतिमय अभिव्यक्ति को कुचलने में जुट गयी हैं तब तिब्बती सीने में सुलग़ती आग भारत की धरती तक भी आ पहुँची है। क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 26 वर्षीय तिब्बती युवक पावो जम्फ़ेल यशी ला ने चीन के अत्याचारों के खिलाफ दिल्ली में जंतर मंतर पर आत्मदाह का प्रयास किया है। यह पोस्ट लिखे जाने तक वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे थे।
आज बुधवार मार्च 28, 2012 की सुबह पावो जम्फ़ेल यशी ला (26) का निधन हो गया! वे 2006 में तिब्बत से भागकर भारत आये थे और तब से धर्मशाला में रह रहे थे। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! 

धन्यवाद भारत!
 भारत सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार को तिब्बतियों के इस कठिन समय में भारतीय राष्ट्रीय नारे "सत्यमेव जयते" को सिद्ध करना चाहिये। तिब्बती समुदाय पर हिंसक कार्यवाही करने के बजाय उन्हें चीनी नेताओं की आँखों में आँखें डालकर तिब्बत मुद्दे पर स्पष्ट बात करनी चाहिये। वहीं भारतीय जनता को भी इस विषय पर तिब्बत की स्वतंत्रता के समर्थन में खुलकर सामने आना चाहिये बल्कि चीन से भारतीय भूमि वापसी की मांग के लिये भी सरकार पर दवाब डालना चाहिये। कितने आश्चर्य की बात है कि देशभक्ति का दावा करने वाली किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने आज तक भारतीय भूमि की वापसी को अपनी नीति में शामिल करने का साहस नहीं दिखाया। कैसा राष्ट्रप्रेम है यह?

कोई भी चीनी नेता भारत का रुख करता है और तिब्बतियों की धर-पकड़ शुरू हो जाती है। वही तिब्बती जो अब तक भारत में आये शरणार्थियों में से सर्वाधिक शांतिप्रिय रहे हैं, पुलिस के डंडे खाते हैं, दुत्कारे जाते हैं, जेल जाते हैं - किसलिये? हमारी चुनी हुई सरकार में उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े होने लायक रीढ नहीं है, यह बात समझ में आती है मगर तानाशाहों की लाठी बनकर निर्दोष शरणार्थियों के ऊपर बरसना? क्या यही है "अतिथि देवो भवः" की संस्कृति? कहाँ हैं संस्कृति के ठेकेदार और कहाँ हैं राष्ट्रगौरव वाले? कहाँ है वह प्रबुद्ध वर्ग जिन्हें फ़िलिस्तीन या क्यूबा में हवा चलने पर भारत बैठे-बैठे ज़ुकाम हो जाता है?
 
अमेरिका में  स्वतंत्र तिब्बत (अंतर्जाल  चित्र )
1952 के चीनी आक्रमण से पहले तक तिब्बत कम से कम 1300 वर्षों से एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में था। चीनदेश का जो भी हाल रहा हो त्रिविष्टप भूमि के आर्यावर्त से नियमित सम्बन्ध थे। दलाई लामा को अपना स्वामी मानने वाले तिब्बत की अपनी मुद्रा और डाक टिकट चीनी हमले तक चलते थे। सच तो यह है कि तिब्बत की अपनी सेना भी थी जिसने 1952 के प्रतिरोध के अतिरिक्त छठी शताब्दी में दो सौ वर्षों तक चीन से युद्ध किया था। डोगरा जनरल जोरावर सिंह के तिब्बत अभियान में सोने की गोली से मारे जाने की बात राहुल सांकृत्यायन ने भी लिखी है। चीन के दुष्प्रचार मे भले ही अरुणाचल, सिक्किम और भूटान की तरह तिब्बत भी चीन के अंग बताये जाते हों परंतु सत्य यही है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद तिब्बत का जैसा नाता भारत और नेपाल के साथ रहा है वैसा चीन के साथ कभी नहीं रहा। तिब्बत की भाषा और लिपि सम्पूर्ण चीन में एक भाषा का दावा करने वाले चीन से एकदम अलग है। तिब्बती लिपि तो भारतीय लिपि परिवार की ही सदस्य है। भाषा और संस्कृति भी चीन के बजाय हिमालयी राज्यों से मिलती है।

स्वतंत्र तिब्बत का ध्वज
पंचशील की सन्धि करने के बाद भारत पर अचानक हमला करने वाले विस्तारवादी और उद्दण्ड चीन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। अक्साई-चिन पर कब्ज़ा किये रहने के बावजूद चीन का जब मन करता है वह कभी कश्मीर और कभी अरुणाचल प्रदेश के निवासियों के वीसा के बहाने भारत की प्रभुसत्ता का मज़ाक उड़ाने लगता है। बढती शक्ति से बौराये चीनी तिब्बत से निकलने वाली हमारी नदियों के रुख मोड़ रहे हैं। अपने सैनिकों के लिये दुर्गम स्थलों तक आधुनिक ट्रेनें चलाने वाला चीनी प्रशासन कैलाश और मानसरोवर जैसे प्राचीन तीर्थों की यात्राओं पर जाने वाले हमारे यात्रियों से भारी वीसा शुल्क लेने के बाद भी उन्हें मौलिक सुविधायें तक मुहैया नहीं कराता। चीनी अधिकारियों के हाथों भारतीय व्यापारियों के साथ हालिया बदसलूकी और वियेतनाम के साथ खनन परियोजनाओं सम्बन्धी समझौतों के समय खनन स्थल पर अपने नौसैनिक बेड़े की गश्तें कराना चीन द्वारा भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का स्पष्ट उदाहरण है।

सत्य का साथ दें - तिब्बत के मित्र बनें
तिब्बत पर चीन के दमन का विरोध न केवल एक मानवता के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि भारत के स्थाई शत्रु तानाशाह चीन की गुंडागर्दी को काबू में रखने के लिये आवश्यक भी है। नेपाल और पाकिस्तान भले ही मुँह सिये बैठे रहें, कम से कम भारत को यह चाहिए कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता की आवाज विश्व मंच पर उठाए।  एक स्वतंत्र तिब्बत के अस्तित्व के साथ ही भारत-चीन सीमा विवाद का अंत तो होगा ही, भारत के साथ-साथ नेपाल और भूटान को भी एक दानवी पड़ोसी से छुटकारा मिलेगा। हमारी नदियाँ स्वतंत्र होंगी और पिछले वर्षों में सतलज में आयी कृत्रिम बाढ जैसी विभीषिकाओं से छुटकारा मिलेगा। अक्साई चिन व पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ाये कश्मीर के उत्तरी भाग से लिये गये भूभाग की वापसी का मार्ग भी साफ़ होगा और चीन द्वारा तिब्बत को पर्माण्वीय कचरे का ढेर बनाये जाने की आशंकाओं के भय से मुक्ति भी मिलेगी। तिब्बत जैसे मित्रवत पड़ोसी की उपस्थिति से उत्तरी सीमा पर हथियारों व वन्यपशुओं की तस्करी से बचाव जैसे लाभ भी स्वतः ही मिलेंगे।

यह पोस्ट लिखते समय जब कुछ जानी-मानी तिब्बती वेबसाइटों पर जाने का प्रयास किया तो पाया कि वे डाउन हैं। अलग-अलग जगह से चल रही कई साइट्स का एक साथ डाउन होना तो यही दर्शा रहा है कि चीनी दमन लाठी, गोली, टैंक, जेल से आगे बढकर साइबर-टैरर तक पहुँच चुका है। ज़हरीला ड्रैगन इस वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति से डरा हुआ है।
कहावत है कि पाप का घड़ा फूटने से पहले छलकता ज़रूर है। क्या कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद के आखिरी कॉमरेड की बत्ती बुझने के दिन आ गये? चीन पर काफ़ी अंतर्राष्ट्रीय दवाब है, मगर जब तक भारत की ओर से दवाब नहीं बनता, वह निश्चिंत है। यदि एक बेहतर और शांतिमय संसार चाहिये तो चीन की तिब्बत से वापसी एक आवश्यक शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के लिये तिब्बतियों को भारत सरकार का समर्थन आवश्यक है और भारत सरकार को ऐसा करने के लिये बाध्य करने के लिये भारतीय जनता का उठ खड़े होना ज़रूरी है। सम्पादक के नाम पत्र, फ़ेसबुक शेयर, गूगल प्लस, अपने जनप्रतिनिधि के नाम पत्र, या स्थानीय स्तर पर गोष्ठी और प्रेस सम्मेलन, नारेबाज़ी; आप जो भी कर सकते हैं कीजिये ताकि चीन के अगले हमले के समय 1962 वाले बहाने, "हिन्दी चीनी भाई-भाई" की आड़ न लेनी पड़े।

जय तिब्बत! जय भारत!  अमर हो स्वतंत्रता!

सम्बन्धित कड़ियाँ
Protests, Self-Immolation Signs Of A Desperate Tibet
* Friends of Tibet
* चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
* बार-बार दिन यह आए
* भारत पर चीन का दूसरा हमला?
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?
* तिब्बत - चीखते अक्षर (आचार्य गिरिजेश राव)
* अरुणाचल पर चीन ने फिर चली चाल

31 comments:

  1. चीनी ड्रैगन लीलता, त्रिविष्टप संसार ।

    दैव-शक्ति को पड़ेगा, पाना इससे पार ।

    पाना इससे पार, मरे न गन से ड्रैगन ।

    देखेगा गरनाल, तभी यह काँपे गन-गन ।

    भरा पूर्ण घट-पाप, दूंढ़ जग चाल महीनी ।

    होय तभी यह साफ़, बड़ी कडुवी यह चीनी ।।

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  2. हमें इन सीधे साधे लोगों का साथ देना चाहिए ....
    शुभकामनायें तिब्बत को !

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  3. तिब्बत के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ का हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हो सकता है, विडंबना यह है की साम्राज्यवादी शक्तियों के अधीन संयुक्त राष्ट्र संघ का ध्यान अरब मुल्कों से हटती ही नहीं है......उपरोक्त पोस्ट हेतु आभार.....................

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  4. बहुत लंबा रास्ता है अभी तय करने को,पर वह दिन ज़रूर आयेगा जब साम्राज्यवादी शक्तियां परास्त होंगी !

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  5. कभी-कभी क्षुब्ध होता है मन.. इस विषय से बिलकुल अनभिज्ञ हूँ.. गिरिजेश जी की यह श्रृंखला भी नहीं पढ़ पाया हूँ... मगर यहाँ वहाँ से छिटपुट जो भी जाना है उससे मन को तकलीफ होती है!!
    अब इसे पढकर समझने की कोशिश करता हूँ!! आभार!!!

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  6. भारतीय संस्कृति, भारतीय मूल्यों का पिछले ६० वर्षों में जितना हनन हुवा है वो पछले २०० वर्षों में शायद न हुवा हो ... तिब्बत ही नहीं आज भारत के हर पडोसी के साथ भारत के सम्बन्ध खराब हैं क्योंकि वो संस्कृति के ऊपर नहीं टिके हैं बल्कि राजनीति पे टिके हैं ...
    सोचना पड़ेगा देश के कर्णधारों को ....

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  7. damankari takton ko sda hi dushparinam bhugatna pda hae ,par fir bhi he to chintan ka vishay ki bharat ki rananeeti kya hoga ?

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  8. तिब्‍बत तो हमारा सहोदर सा ही है। उसकी मुक्ति के लिए भारत को दबाव बनाना ही चाहिए। कूटनीति और राजनय का कुशल उपयोग करने का यह ठीक समय लगता है।
    आपकी बात से असहमत होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।

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  9. गंभीर आलेख,,, भारत में फ़िलहाल जो सरकार है उससे कुछ भी सकारात्मक उम्मीद करना बेमानी है... सामाजिक बदलाव बहद जरूरी हैं तभी बड़े स्तर पर कुछ हो सकता है....

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  10. चीन एक बार धोखा दे चुका है, यह स्वीकार करने का मन नहीं होता कि दुबारा वह ऐसा नहीं करेगा। सत्य का ही साथ दे भारत।

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  11. धोखा और बेईमानी चीन के स्वभाव में है.एक बात और भी वहाँ की वस्तुओं का जो सस्ती बना कर (निम्न क्वालिटी की-स्वास्थ्य की कीमत पर)हमारे बाज़ारों में उँडेल रहा है उसका विरोध भी ज़रूरी है. .

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  12. यक़ीनन भारत की नीति सहयोगात्मक ही रहनी चाहिए ....... आपके विचारों से सहमत हूँ.......

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  13. भाई अनुराग जी,
    तिब्बत का मामला सिर्फ न्याय और मानवाधिकार का नहीं बल्कि जिम्मेवारी का भी है जिसका निर्वाह करने में भारतीय शासक चूक गए. जहां ता मेरी जानकारी है. ब्रिटिश काल में तिब्बत के साथ भारत का यह करार था कि तिब्बत की गृह नीति और आतंरिक व्यवस्था दलाई लामा के जिम्मे होगी और उसकी विदेश नीति और सुरक्षा संबंधी मामले भारत देखेगा. यही कारण है कि तिब्बत के पास कोई सेना नहीं थी. उसे इसकी जरूरत भी नहीं थी. चीन की क्रांति के बाद जब चीन ने यह कहकर चीन पर कब्ज़ा करना शुरू किया कि अमेरिका यहां से हमें डिस्टर्ब कर रहा है तो तिब्बतियों ने अनुबंध के मुताबिक भारत सरकार से सुरक्षा की गुहार लगाई. उस वक़्त ( ५ वें दशक के प्रारंभ में ) शांति के कथित दूत पंडित नेहरू भारत के प्रधान मंत्री थे. उन्होंने यह कहकर अपने हांथ पीछे कर लिए कि तिब्बत जैसे देश के लिए हम चीन से सम्बन्ध ख़राब नहीं कर सकते. यह सीधे तौर पर वादाखिलाफी और कायरता थी. इसी का परिणाम 1962 का चीनी हमला था और आज तक भारतीय भूभाग पर चीन के अवैध कब्जे और दावे के रूप में भुगतना पड़ रहा है. अभी भी भारतीय शासक यदि पूर्वजों की कायरता का पश्ताताप कर तिब्बत की आजादी के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनायें तो यह भारत की सुरक्षा की दृष्टि से भी उचित होगा. भारत की जनता का नैतिक समर्थन तो तिब्बत के साथ रहा है और रहेगा.

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  14. we should not crush anyones fundamental right.
    thanks sir for beautiful burning post on your blog.

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  15. हम आडंबर वाले लोग हैं, चीन अरुणाचल पर अपना सिक्का चलाता है, हम दूर से हेकड़ी मारते हैं, तिब्बती जिस हाल में रह रहे हैं, भारतीय कल्पना करके देखें, कश्मीर को भी यहां याद किया जा सकता है।
    जम्फ़ेल यशी ला की आग में दहकती तस्वीर दिल दहलानेवाली थी। उनको श्रद्धांजलि

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  16. दूसरे पक्ष की बढ़ती शक्ति, लोलुपता, दमन और इधर कल से चर्चाओं में छाये जनरल साहब के पत्र की लीकेज..। अपनी धरती तो हम भूले बैठे हैं और तिब्बत के लिये कुछ करेंगे? एक सांसद श्री महावीर त्यागी ने उस जमीन की बात उठाई तो पंडितजी ने कहा था कि वहाँ तो घास भी नहीं होती। त्यागी जी ने अपनी टोपी उतार कर अपने सफ़ाचट सिर की तरफ़ इशारा करते हुये कहा था कि घास तो यहाँ भी नहीं होती। वो सिर हर हिंदुस्तानी का सिर बना हुआ है। मुझे दो पैसे का फ़ायदा चीन से और चीनी सामान से होगा तो मैं वो फ़ायदा उठाऊंगा, भूल जाऊंगा कि इसके बदले में मुझे क्या क्या गिरवी रखना पड़ता है। बाढ़ आये, जमीन पर कब्जा हो, सैनिक मरें, आम जनता मरे सब मंजूर है। इत्मीनान है तो ये कि मुझे फ़ायदा हो रहा है, गर्व है तो ये कि हमारे पुरखे शरणागत वत्सल थे।
    क्षुब्ध होने के सिवा हम कुछ कर भी नहीं सकते हैं।

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  17. (१) आलेख की चिंताओं से सहमति !

    (२) राष्ट्रीयताओं के निर्धारण / पुनर्निर्धारण के मुद्दे पर एक ख्याल कौंध रहा है सोचा आपसे शेयर कर लूं ...
    पूरी दुनिया के इंसानों के लिए स्वायत्तता , स्वतंत्रता , आंचलिक पहचान ,पृथकतावाद के मुद्दे पर नई तरह से बात करने की ज़रूरत है ! कितनी और कहां तक की स्वतंत्रता सारे इंसानों को ? कितनी राजनैतिक संप्रभुता ? पर्याप्त होगी ?
    कभी राजनैतिक सीमा आधारित राष्ट्र के रूप में चीन आज जैसा नहीं था और वर्तमान यू.एस.ए./ रूस या फिर दूसरे तमाम देश ! आप जिस देश के नक़्शे मे हाथ डालें यही प्रवृत्ति नज़र आयेगी !

    सर्विया चाहिये बोस्निया फिर आयरलैंड भी , फिलिस्तीन , बलूचिस्तान , तिब्बत , उइघुरों के लिए सीक्यांग ,चेचिन्या , कुर्दिस्तान बस गिनते जाइए अंगुलियां कम पड़ेंगी , सभी को राजनैतिक संप्रभुता चाहिये !

    इधर राजनैतिक संप्रभुता के अंदर स्वायत्तता बतौर तेलंगाना ,विदर्भ ,हरित प्रदेश वगैरह वगैरह और लीबिया / ईराक के भी एकाधिक टुकड़े ,कमोबेश यूरोप में भी यही प्रवृत्तियां !

    बड़ी राजनैतिक इकाई की छोटी छोटी आंचलिकतायें आगे चलकर इन आंचलिकताओं के अंदर उप- आंचलिक पहचान की मांग भी ज़रूर उठेंगी !

    यह एक अंतहीन सिलसिला है इसलिए सोचता हूं कि दुनिया भर के इंसानों को भाषा / धर्म /जाति के भेद के बिना कितनी स्वतंत्रता / कितनी स्वायत्तता की दरकार है और कितनी किस शक्ल में वाजिब होगी ? किस शक्ल की राष्ट्रीयतायें उचित साबित होंगी ? जो सतत टूट के इस सिलसिले को रोक पायें ?

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    1. अली सा, इंसान स्वतंत्रता मांगता हुआ आन्चलिक्ताओ से आगे आ अपने घर अपने घर में भी अलग ही स्वंतंत्रता की मांग कर सकता है... वरन कर भी रहा है... पर धीरे धीरे - एक कौम को ही समाप्त कर दो - ये कौन सी कम्युनिष्ट मानसिकता है.

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  18. तिब्बत को हमारी बुलन्द हुँकार की जरूरत है।

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  19. क्या चीन से युद्ध करने को हम तैयार हैं ? हमारे सेनाध्यक्ष क्या कह रहे हैं ?

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    1. हमें रेटरिक और भावावेश में आने के बजाय इस मामले को रणनीति और कुटिल नीति=कूटनीति से हल करना होगा ..हम एक और शर्मनाक हार के कारणों को उत्प्रेरित नहीं कर सकते ....आज भी अक्साई चीन हमारे घावों को ,हमारी शर्मनाक हार के दंश को ताजा कर देती है !

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  20. सरकार पहले जनरल साहब से निपट ले, क्योंकि यह बड़ा मुद्दा तो है नहीं कि सेना के पास जो अस्त्र-शस्त्र होना चाहिये वे हैं या नहीं. बड़ा मुद्दा यह है कि जनरल की चिट्ठी लीक कैसे हो गयी. शायद चीन आंख-नाक-कान बन्द कर बैठा है, उसके पास तो इन्टेलीजेन्स एजेन्सियां हैं ही नहीं. शायद हमारी संसद में ही यह बयान दिया गया था कि चीन से एक-एक इंच जमीन वापस ली जायेगी. क्या हुआ उस बयान का. मुझे तो लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि चीन जमीन पर कब्जा कर ले. किस तरह का लोकतन्त्र है-प्रो०आशीर्वादम का कथन लोकतन्त्र के बारे में सही लगता है कि लोकतन्त्र में सिर देखे जाते हैं यह नहीं देखा जाता कि उनके अन्दर क्या है. यह बात बिल्कुल सही है कि जनरल सिंह ने कई अधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की, हो सकता है कि उनके विरुद्ध भी कोई लाबी सक्रिय हो. लेकिन इन हालातों में तो देश की गारंटी भगवान भी नहीं ले सकता. तिब्बत फिलिस्तीन होता तो अब तक छाती कूट कोहराम मचा होता.

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  21. हमें यह आज लीक होने पर मालूम हुआ है ..कोई आश्चर्य नहीं ये गोपन सूचनाएं पड़ोसी मुल्कों को पहले से ही न मालूम हो ....
    हम पहले अपनी स्थिति कान्सालिदेट कर लें फिर नेक कामों पर अमल शुरू करें ...

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  22. गंभीर आलेख पढ़ने से छूटा जा रहा था। हम तो तिब्बतियों के संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। अभी असंभव दिखता है लेकिन एक न एक दिन यह होगा जरूर..भारत साथ दे या न दे। संपूर्ण चीन अमानवीय नहीं हो सकता। वहाँ भी मनुष्य रहते हैं..उनके दिल भी धड़कते होंगे..मानवता की पुकार राष्ट्रीय स्वार्थ से अधिक मायने रखती है। चीन की जनता ही तिब्बतियों का साथ देगी।

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  23. हम तिब्बतियों के साथ हैं. सरकार हो न हो.

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  24. सार्थक आलेख.................. पर बहुत बहुत बधाई. सार्थक लेखन करते रहिये इन्ही शुभकामनाओं के साथ

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  25. श्री राम जन्म की बधाईयाँ :) शुभकामनाएं |

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  26. भस्म तो होना है. बस 'कब' नहीं पता. !

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मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।