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Wednesday, October 5, 2011

श्रद्धेय वीरांगना दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर

आप सभी को दशहरा के अवसर पर हार्दिक मंगलकामनायें!
एक शताब्दी से थोडा पहले जब 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद कलक्ट्रेट के नाज़िर पण्डित बांके बिहारी नागर के शहजादपुर ग्राम ज़िला कौशाम्बी स्थित घर में एक सुकुमार कन्या का जन्म हुआ तब किसी ने शायद ही सोचा होगा कि वह बडी होकर भारत में ब्रिटिश राज की ईंट से ईंट बजाने का साहस करेगी और क्रांतिकारियों के बीच आयरन लेडी के नाम से पहचान बनायेगी। बच्ची का नाम दुर्गावती रखा गया। नन्ही दुर्गावती के नाना पं. महेश प्रसाद भट्ट जालौन में थानेदार और दादा पं. शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे। दस महीने में ही उनकी माँ की असमय मृत्यु हो जाने के बाद वैराग्‍योन्‍मुख पिता ने उन्हें आगरा में उनके चाचा-चाची को सौंपकर सन्यास की राह ली।

1918 में आगरा निवासी श्री शिवचरण नागर वोहरा के पुत्र श्री भगवती चरण वोहरा के साथ परिणय के समय 11 वर्षीया दुर्गा पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थीं। समस्त वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। जन-जागृति और शिक्षा के महत्व को समझने वाली दुर्गा ने खादी अपनाते हुए अपनी पढाई जारी रखी और समय आने पर प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शचीन्द्रनाथ रखा गया।

(7 अक्टूबर सन् 1907 -15 अक्टूबर सन् 1999) 
चौरी-चौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन की वापसी हुई और देशभक्तों के एक वर्ग ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ फ़्रांस, अमेरिका और रूस की क्रांति से प्रेरणा लेकर सशस्त्र क्रांति का स्वप्न देखा। उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल ने क्रांतिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल को पत्र लिखकर शचीन्द्र नाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी तैयार करने की सलाह दी। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने इलाहाबाद में शचीन्द्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का प्रारूप बनाया और इस प्रकार मिलकर आइरिश रिपब्लिकन आर्मी की तर्ज़ पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एचआरए) का गठन हुया जिसकी प्रथम कार्यकारिणी सभा 3 अक्तूबर 1924 को कानपुर में हुई जिसमें "बिस्मिल" के नेतृत्व में शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेन्द्र शुक्ल, योगेश चन्द्र चटर्जी, ठाकुर रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। कुछ ही समय में अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त जैसे नामचीन एचआरए से जुड गये। काकोरी काण्ड के बाद एच.आर.ए. के अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में एच.आर.ए. अपने नये नाम एच.ऐस.आर.ए. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन/आर्मी) से पुनरुज्जीवित हुई। दुर्गाभाभी, सुशीला दीदी, भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा का सम्बन्ध भी इस संस्था से रहा।

माता-पिता के साथ शचीन्द्रनाथ
मेरठ षडयंत्र काण्ड में भगवतीचरण वोहरा के नाम वारंट निकलने पर वे पत्नी दुर्गादेवी के साथ लाहौर चले गये जहाँ वे दोनों ही भारत नौजवान सभा में सम्मिलित रहे। यहीं पर भारत नौजवान सभा ने तत्वावधान में भगवतीचरण वोहरा की बहन सुशीला देवी "दीदी" तथा अब तक "भाभी" नाम से प्रसिद्ध दुर्गादेवी ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर अपने खून से एक चित्र बनाया था।

सॉंडर्स की हत्या के अगले दिन 18 दिसम्बर 1928 को वे ही लाहौर स्टेशन पर उपस्थित 500 पुलिसकर्मियों को चकमा देकर हैट पहने भगत सिंह को अपने साथ रेलमार्ग से सुरक्षित कलकत्ता लेकर गयीं। राजगुरू ने उनके नौकर का वेश धरा और कोई मुसीबत आने पर रक्षा हेतु चन्द्रशेखर आज़ाद तृतीय श्रेणी के डब्बे में साधु बनकर भजन गाते चले। लखनऊ स्टेशन से राजगुरू ने वोहरा जी को उनके आगमन का तार भेजा जो कि सुशीला दीदी के साथ कलकत्ता में स्टेशन पर आ गये। वहाँ भगतसिंह अपने नये वेश में कॉंग्रेस के अधिवेशन में गये और गांधी, नेहरू और बोस जैसे नेताओं को निकट से देखा। भगतसिंह का सबसे प्रसिद्ध (हैट वाला) चित्र उन्हीं दिनों कलकत्ता में लिया गया।

भगतसिंह की गिरफ़्तारी के बाद आज़ाद के पास उस स्तर का कोई साथी नहीं रहा गया था जो उनकी कमी को पूरा कर सके। यह अभाव आज़ाद को हर कदम पर खल रहा था। अब आज़ाद और भगवतीचरण एक दूसरे के पूरक बन गए। ~शिव वर्मा
महान क्रांतिकारी दुर्गाभाभी
वोहरा दम्पत्ति लाहौर में क्रांतिकारियों के संरक्षक जैसे थे। जहाँ भगवतीचरण एक पिता की तरह उनके खर्च और दिशानिर्देश का ख्याल रखते थे वहीं दुर्गा भाभी एक नेत्री और माँ की तरह उनका निर्देशन करतीं और अनिर्णय की स्थिति में उनके लिये राह चुनतीं।

भगवतीचरण वोहरा की सहायता से चन्द्रशेखर आज़ाद ने पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में हुए सेंट्रल असेम्बली बम काण्ड में क़ैद क्रांतिकारियों को छुडाने के लिये जेल को बम से उडाने की योजना पर काम आरम्भ किया। इसी बम की तैयारी और परीक्षण के समय रावी नदी के तट पर सुखदेवराज और विश्वनाथ वैशम्पायन की आंखों के सामने 28 मई 1930 को वोहरा जी की अकालमृत्यु हो गयी। उस आसन्न मृत्यु के समय मुस्कुराते हुए उन्होंने विश्वनाथ से कहा कि अगर मेरी जगह तुम दोनों को कुछ हो जाता तो मैं भैया (आज़ाद) को क्या मुँह दिखाता?

शहीदत्रयी की फ़ांसी की घोषणा के विरोधस्वरूप दुर्गा भाभी ने स्वामीराम, सुखदेवराज और एक अन्य साथी के साथ मिलकर एक कार में मुम्बई के लेमिंगटन रोड थाने पर हमला करके कई गोरे पुलिस अधिकारियों को ढेर कर दिया। पुलिस को यह कल्पना भी न थी कि ऐसे आक्रमण में एक महिला भी शामिल थी। उनके धोखे में मुम्बई पुलिस ने बडे बाल वाले बहुत से युवकों को पूछताछ के लिये बन्दी बनाया था। बाद में मुम्बई गोलीकांड में उनको तीन वर्ष की सजा भी हुई थी।

भगवती चरण (नागर) वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930
अडयार (तमिलनाडु) में मॉंटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लेने के बाद से ही वे भारत में इस पद्धति के प्रवर्तकों में से एक थीं। सन 1940 से ही उन्होंने उत्तर भारत के पहले मॉंटेसरी स्कूल की स्थापना के प्रयास आरम्भ किये और लखनऊ छावनी स्थित एक घर में पाँच छात्रों के साथ इसका श्रीगणेश किया। उनके इस विनम्र प्रयास की परिणति के रूप में आजादी के बाद 7 फ़रवरी 1957 को पण्डित नेहरू ने लखनऊ मॉंटेसरी सोसाइटी के अपने भवन की नीँव रखी। संस्था की प्रबन्ध समिति में कुछ राजनीतिकों के साथ आचार्य नरेन्द्र देव, यशपाल, और शिव वर्मा भी थे। 1983 तक दुर्गा भाभी इस संस्था की मुख्य प्रबन्धक रहीं। तत्पश्चात वे मृत्युपर्यंत अपने पुत्र शचीन्द्रनाथ के साथ गाजियाबाद में रहीं और शिक्षणकार्य करती रहीं। त्याग की परम्परा की संरक्षक दुर्गा भाभी ने लखनऊ छोडते समय अपना निवास-स्थल भी संस्थान को दान कर दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा राजनीति में आने के अनुरोध को उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। पंजाब सरकार द्वारा 51 हजार रुपए भेंट किए जाने पर भाभी ने उन्हें अस्वीकार करते हुए अनुरोध किया कि उस पैसे से शहीदों का एक बड़ा स्मारक बनाया जाए जिससे भारत की स्वतंत्रता के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का अध्ययन और अध्यापन हो सके क्योंकि नई पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से परिचय की आवश्यकता है।

92 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर सन् 1999 को गाजियाबाद में में रहते हुए उनका देहावसान हुआ। वोहरा दम्पत्ति जैसे क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व हमारे राष्ट्र पर, हम पर न्योछावर करते हुए एक क्षण को भी कुछ विचारा नहीं। आज जब उनके पुत्र शचीन्द्रनाथ वोहरा भी हमारे बीच नहीं हैं, हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि हमने उन देशभक्तों के लिये, उनके सपनों के लिये, और अपने देश के लिये अब तक क्या किया है और आगे क्या करने की योजना है ।

सात अक्टूबर को दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर उन्हें शत-शत नमन!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* आजादी का अनोखा सपना बुना था दुर्गा भाभी ने
* Durga bhabhi: A forgotten revolutionary
* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
शहीदों को तो बख्श दो
* महान क्रांतिकारी थे भगवती चरण वोहरा
जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
जिन्होंने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा
काकोरी काण्ड
* Lucknow Montessori Inter College
Revolutionary movement for Indian independence

Wednesday, July 20, 2011

महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"

"पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति है। मैं इससे कभी उबर नहीं सकता।"~ महामना मदन मोहन मालवीय
आज़ाद मन्दिर
भगतसिंह के वरिष्ठ सहयोगी और अपने "आज़ाद" नाम को सार्थक करने वाले महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद" का जन्म 23 जुलाई 1906 को श्रीमती जगरानी देवी व पण्डित सीताराम तिवारी के यहाँ भाबरा (झाबुआ मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके हृदय में क्रांति की ज्वाला बहुत अल्पायु से ही ज्वलंत थी। वे पण्डित रामप्रसाद "बिस्मिल" की हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (HRA) में थे और उनकी मृत्यु के बाद नवनिर्मित हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी/ऐसोसियेशन (HSRA) के प्रमुख चुने गये थे। उनके प्रति उनके समकालीन क्रांतिकारियों के हृदय में कितना आदर रहा है उसकी एक झलक संलग्न चित्र में वर्णित आज़ाद मन्दिर से मिलती है। 1931 में छपे "आज़ाद मन्दिर" के इस चित्र में उनके शव के चित्र के साथ ही वे अपने मन्दिर में अपने क्रांतिकारी साथियों से घिरे हुए दिखाये गये हैं।

काकोरी काण्ड के बाद झांसी में
जननी, जन्मभूमि के प्रति आदरभाव से भरे "आज़ाद" को "बिस्मिल" से लेकर सरदार भगत सिंह तक उस दौर के लगभग सभी क्रांतिकारियों के साथ काम करने का अवसर मिला था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपनी जीविका के लिये नौकरी आरम्भ करने वाले आज़ाद ने 15 वर्ष की आयु में काशी जाकर शिक्षा फिर आरम्भ की और लगभग तभी सब कुछ त्यागकर गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। अपना नाम "आज़ाद" बताया, पुलिस के डण्डे खाये, और बाद में वयस्कों की भीड के सामने भारत माता को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य पर एक ओजस्वी भाषण दिया। काशी की जनता ने बाद में ज्ञानवापी में एक सभा बुलाकर इस बालक का सम्मान किया। सम्पूर्णानन्द के सम्पादन में छपने वाले "मर्यादा" पत्र में इस घटना की जानकारी के साथ उनका चित्र भी छपा। यही सम्पूर्णानन्द बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने।

"देश ने एक सच्चा सिपाही खो दिया।"~मोहम्मद अली जिन्ना
शहीदों के आदर्श आज़ाद
23 जुलाई 1906 - 27 फ़रवरी 1931
उसके बाद उन्होंने देश भर में अनेक क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया और अनेक अभियानों का प्लान, निर्देशन और संचालन किया। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के काकोरी कांड से लेकर शहीद भगत सिंह के सौंडर्स व संसद अभियान तक में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। काकोरी काण्ड, सौण्डर्स हत्याकाण्ड व बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का असेम्बली बम काण्ड उनके कुछ प्रमुख अभियान रहे हैं। उनके आग्रह पर ही भगवतीचरण वोहरा ने "फ़िलॉसॉफ़ी ऑफ़ द बॉम" तैयार किया था। उनके सरल, सत्यवादी और धर्मात्मा स्वभाव और अपने साथियों के प्रति प्रेम और समर्पण के लिये वे सदा आदरणीय रहे। क्रांतिकारी ही नहीं कॉंग्रेसी भी उनका बहुत आदर करते थे। अचूक निशानेबाज़ आज़ाद का प्रण था कि वे अंग्रेज़ों की जेल में नहीं रहेंगे।

भगवतीचरण वोहरा
काकोरी काण्ड के बाद फ़रार आज़ाद ने पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल और साथियों की पैरवी और जीवन रक्षा के लिये बहुत प्रयत्न किये थे। सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह को बचाने के लिये उन्होंने जेल पर बम से हमले की योजना बनाई और उसके लिये नये और अधिक शक्तिशाली बमों पर काम किया। दुर्भाग्य से बमों की तैयारी और जाँच के दौरान बम विशेषज्ञ क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की मृत्यु हो गयी जिसने उन्हें शहीदत्रयी-बचाव कार्यक्रम की दिशा बदलने को मजबूर किया। वे विभिन्न कॉंग्रेसी नेताओं के अतिरिक्त उस समय जेल में बन्दी गणेश शंकर विद्यार्थी से भी मिले। दुर्गा भाभी को गांधी जी से मिलने भेजा। इलाहाबाद आकर वे नेहरूजी सहित कई बडे नेताओं से मिलकर भागदौड़ कर रहे थे। इलाहाबाद प्रवास के दौरान वे मोतीलाल नेहरू की शवयात्रा में भी शामिल हुए थे।

भैया सरल स्वभाव के थे। दाँव-पेंच और कपट की बातों से उनका दम घुटता था। उस समय पूरे देश में एक संगठन था और उसके केन्द्र थे "आज़ाद"  ~दुर्गा भाभी 

आज़ाद की पहली जीवनी क्रांतिकारी
विश्वनाथ वैशम्पायन ने लिखी थी
27 फ़रवरी 1931 को जब वे अपने साथी सरदार भगतसिंह की जान बचाने के लिये आनन्द भवन में नेहरू जी से मुलाकात करके निकले तब पुलिस ने उन्हें चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क (तब ऐल्फ़्रैड पार्क) में घेर लिया। पुलिस पर अपनी पिस्तौल से गोलियाँ चलाकर "आज़ाद" ने पहले अपने साथी सुखदेव राज को वहाँ से से सुरक्षित हटाया और अंत में एक गोली अपनी कनपटी पर दाग़ ली और "आज़ाद" नाम सार्थक किया।

पुलिस ने बिना किसी सूचना के उनका अंतिम संस्कार कर दिया। बाद में पता लगने पर युवकों ने उनकी अस्थि-भस्म के साथ नगर में यात्रा निकाली। कहते हैं कि इलाहाबाद नगर ने वैसी भीड उससे पहले कभी नहीं देखी थी। यात्रा सम्पन्न होने पर प्रतिभा सान्याल, कमला नेहरू, पण्डित नेहरू, पुरुषोत्तम दास टण्डन सहित अनेक नेताओं ने इस महान क्रांतिकारी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी।
दल का संबंध मुझसे है, मेरे घर वालों से नहीं। मैं नहीं चाहता कि मेरी जीवनी लिखी जाए।
~चन्द्रशेखर तिवारी "आज़ाद"
संयोग की बात है कि महान राष्ट्रवादी नेता बाळ गंगाधर टिळक का जन्मदिन भी २३ जुलाई को ही पड़ता है। टिळक का जन्मदिन 23 जुलाई 1856 को है। उनके बारे में विस्तार से फिर कभी।

भारत माता के इन महान सपूतों को हमारा भी नमन!

ज्ञानवापी सम्मान का दुर्लभ चित्र
[सभी चित्र मुद्रित व इंटरनैट स्रोतों से साभार]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* आज़ाद का एक दुर्लभ चित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* शहीदों को तो बख्श दो
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद का जन्म दिन - 2010
* तोक्यो में नेताजी के दर्शन