Thursday, July 31, 2008

इसका अब क्या मतलब?

संस्कृत और फारसी पर हुई पिछली दो वार्ताएं "हज़ार साल छोटी बहन" और "पढ़े लिखे को फारसी क्या?" बहुत सार्थक रही हैं। उन्हें आगे जारी रखेंगे। इस बीच में एक सत्रह साल पुराने मित्र की तरफ़ से एक पुरानी कविता सुनने का आग्रह ईमेल से आया था। उनके सम्मान में यह कविता यहाँ रख रहा हूँ। अच्छा कवि तो नहीं हूँ। पर ज़िंदगी से सीख रहा हूँ - अच्छी, बुरी जैसी भी लगे, कृपया बताएं ज़रूर। सुधार की जो भी गुंजाइश हो बेबाक लिखें। धन्यवाद!

मैं कौन था मैं कहाँ था, इसका अब क्या मतलब
चला कहाँ कहाँ पहुँचा, इसका अब क्या मतलब

ठिकाना दूर बनाया कि उनसे बच के रहें
कपाट तोड़ घुस आयें, इसका अब क्या मतलब

ज़हर भरा है तुम्हारे दिलो-दिमाग में गर
बस दिखावे की मुलाक़ात का अब क्या मतलब

किया क्यों खून से तर, मेरा क़त्ल किसने किया
गुज़र गया हूँ, सवालात का अब क्या मतलब

मुझे सताया मेरी लाश को तो सोने दो
गुज़र गया हूँ खुराफात का अब क्या मतलब।





Note: रामपुरिया जी, संस्कृत प्रसारण के बारे में मैं भूला नहीं हूँ। अगली पोस्ट में ज़रूर बात करेंगे। आपके प्यार के लिए आभारी हूँ।

Tuesday, July 29, 2008

हज़ार साल छोटी बहन

संस्कृत व फारसी की समानता पर लिखी मेरी पोस्ट "पढ़े लिखे को फारसी क्या?" आपने ध्यान से पढी इसका धन्यवाद। सभी टिप्पणीकारों का आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे लेखन को किसी लायक समझा। एकाध कमेंट्स पढ़कर ऐसा लगा जैसे भाषाओं की समानता से हटकर हम कौन किसकी जननी या बहन है पर आ गए। दो-एक बातें स्पष्ट कर दूँ - भाषायें कोई जीवित प्राणी नहीं हैं और वे इंसानों जैसे दृढ़ अर्थ में माँ-बेटी या बहनें नहीं हो सकती हैं। बाबा ने शायद काल का हिसाब रखते हुए संस्कृत को माँ कहा था। याद रहे कि उनका कथन महत्वपूर्ण है क्योंकि वे दोनों भाषायें जानते थे। फिर भी, अब जब हमारे एक प्रिय बन्धु ने नया मुद्दा उठा ही दिया है तो इस पर बात करके इसे भी तय कर लिया जाय। जितने संशय मिटते चलें उतना ही अच्छा है। जब तक संशय रहेंगे हम मूल विषय से किनाराकशी ही करते रह जायेंगे। भाषाविदों के अनुसार संस्कृत और फ़ारसी दोनों ही भारोपीय (इंडो-यूरोपियन) परिवार के भारत-ईरान (इंडो-इरानियन) कुल में आती हैं। संस्कृत इस परिवार की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है और सबसे कड़े अनुमानों के अनुसार भी ईसा से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व में थी। अधिकाँश लोगों का विश्वास है कि बोली (वाक्) के रूप में इसका अस्तित्व बहुत पहले से है। इसके विपरीत ईरानी भाषा का प्राचीनतम रूप ईसा से लगभग ५०० वर्ष पहले अस्तित्व में आया। स्पष्ट कर दूँ कि यह रूप आज की फारसी नहीं है। आज प्रचलन में रही फारसी भाषा लगभग ८०० ईसवी में पैदा हुई। इन दोनों के बीच के समय में अवेस्ता की भाषा चलती थी. अगर इन तथ्यों को भारतीय सन्दर्भ में देखें तो फारसी का प्राचीनतम रूप भी महात्मा बुद्ध के काल में या उसके बाद अस्तित्व में आया. भाषाविदों में इस विषय पर कोई विवाद नहीं है कि भारतीय-ईरानी परिवार में संस्कृत से पुरानी कोई भाषा नहीं है जो संस्कृत हम आज बोलते, सुनते और पढ़ते हैं, उसको पाणिनिकृत व्याकरण द्वारा ४०० ईसा पूर्व में बांधा गया। ध्यान रहे कि यह आधुनिक संस्कृत है और भाषा एवं व्याकरण इससे पहले भी अस्तित्व में था। भाषाविद मानते हैं कि फारसी/पहलवी/अवेस्ता से पहले भी इरान में कोई भाषा बोली जाती थी। क्या अवेस्ता की संस्कृत से निकटता ऐसी किसी भाषा की तरफ़ इशारा करती है? ज्ञानदत्त जी के गुस्से को मैं समझ सकता हूँ और बहुत हद तक उनकी बात "फारसी को बराबरी पर ठेलने की क्या जरूरत थी" से सहमत भी हूँ। मगर सिर्फ़ इतना ही निवेदन करूंगा कि कई बार निरर्थक प्रश्नों में से भी सार्थक उत्तर निकल आते हैं। चिंता न करें, पुरखों की गाय पर भी चर्चा होगी, कभी न कभी। याद दिलाने का धन्यवाद। हमारे बड़े भाई अशोक जी ने आर्यों के मध्य एशिया से दुनिया भर में बिखरने का ज़िक्र किया है, आगे कभी मौका मिला तो इस पर भी बात करेंगे। लेकिन तब तक संस्कृत फ़ारसी की बहन है या माँ - इसका फैसला मैं आप पर ही छोड़ता हूँ। हाँ अगर बहन है तो दोनों बहनों में कम-स-कम एक हज़ार साल का अन्तर ज़रूर है। इसके अलावा फारसी में संस्कृत के अनेकों शब्द हैं जबकि इसका उलटा उदाहरण नहीं मिलता है। चलते चलते एक सवाल: क्या आप बता सकते हैं कि पहला संस्कृत रेडियो प्रसारण किस स्टेशन ने और कब शुरू किया था?

Monday, July 28, 2008

पढ़े लिखे को फारसी क्या?

हिन्दी की एक कहावत है "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या?" छोटा था तो मुझे यह कहावत सुनकर बड़ा अजीब सा लगता था कि आजकल हम हिन्दी वाले जिस तरह अंग्रेजी के पीछे न्योछावर हुए जाते हैं उसी तरह सौ-डेढ़ सौ बरस पहले तक फारसी को पूजते थे। आख़िर अपनी भाषा के आगे विदेशी भाषा को इतना महत्व क्यों? मेरे सवाल का जवाब दिया मेरे बाबा (पितामह) ने।

बाबा एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे। अपने जीवांकाल में उन्होंने बहुत से काम किए थे। वे अध्यापक थे, सैनिक थे, ज्योतिषी भी थे। द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे। हिन्दी-अङ्ग्रेज़ी भी जानते थे और संस्कृत-फारसी भी। बाबा ने जो बताया वह मेरे जैसे छोटे (तब) बच्चे को भी आसानी से समझ में आ गया और आज तक याद भी रहा। उनके अनुसार, संस्कृत की बहुत सी बेटियाँ हुईं जिनमें से फारसी एक है। उन्होंने कुछ आसान से सूत्र भी बताये जिनसे पता लगता है कि फारसी के बिल्कुल अजनबी से लगने वाले शब्द भी दरअसल हमारे आम हिन्दी शब्दों का प्रतिरूप ही हैं। चूंकि भाषा या शब्दों में यह परिवर्तन पूर्वनियोजित नहीं था इसलिए इसके नियम भी बिल्कुल कड़े न होकर लचीले हैं। मगर थोड़े विवेक से काम लेने पर हमारा काम आसान हो जायेगा। आईये, कुछ सरल सिद्धांत देखें:
१) संस्कृत का स -> फारसी का ह
२) संस्कृत का ह -> फारसी का ज़/ज/द
३) संस्कृत का व -> फारसी का ब
४) संस्कृत का श -> फारसी का स

इसके अलावा शब्दों में ह की ध्वनि इधर से उधर हो जाती है। आईये देखें कुछ शब्द इन सिद्धांतों की रौशनी में:

सप्ताह -> हफ्ता - स का ह और अन्तिम ह त के पहले आ गया (प+ह=फ)

इसी प्रकार:
बाहु -> बाज़ू
जिव्हा -> जीभ
हस्त -> दस्त
शक्ति -> सख्ती


ये तो थे कुछ आसान शब्द। अब एक ऐसा शब्द लेते हैं जिसकी समानता आसानी से नहीं दिखती। यह है १००० यानी सहस्र (=स+ह+स+र)। ह को ज़ और दोनों स को ह कर दें तो बन जाता है हज्हर या हज़ार.

आज की फारसी तो बहुत बदल गयी है, यदि अवेस्ता की ईरानी भाषा को लें तो उपरोक्त कुछ सूत्रों के इस्तेमाल भर से अधिकाँश शब्दों को आराम से समझा जा सकता है। चलिए देखते हैं आप एक दिन में ऐसे कितने शब्द ढूंढ कर ला सकते हैं।