Saturday, February 12, 2011

याद तेरी आयी तो - कविता

(अनुराग शर्मा)


सुरमयी यादों की बात ही निराली है
भंडार है अनन्त जेब भले खाली है।

परदे के पीछे से झाँक झाँक जाती थी
हृदय में रहती वह षोडशी मतवाली है।

थामा था हाथ जो ओठों से चूमा था
रूमानी शाम थी आज भी हरियाली है।

याद तेरी आयी तो सहरा शीतल हुआ
चतुर्मास की साँझ घिरी घटा काली है।

दृष्टि क्षीण हो भले रजतमय केश हों
आज भी अधरों पे याद वही लाली है।

Thursday, February 10, 2011

आपकी गज़ल - इदम् न मम्

व्यवहारिकता शीर्षक से लिखी मेरी पंक्तियों पर आई आपकी सारगर्भित टिप्पणियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। आपने गलतियों को बडप्पन के साथ नज़रअन्दाज़ भी किया और ध्यान भी दिलाया गया तो उतने ही बडप्पन और प्यार से। साथ ही आप की टिप्पणियों से उस रचना के आगे की पंक्तियाँ भी मिलीं। आप सभी का धन्यवाद। सर्वश्री संजय अनेजा, संजय झा, राजेश नचिकेता, प्रतुल वसिष्ठ, सुज्ञ जी, राहुल जी, अली जी और वर्मा जी के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है| आइये आपकी सम्मिलित कृति का आनन्द लेते हैं।

वंचित फल सुगन्ध छाया से
तरु ऊँचा क्या और बौना क्या

जब ज़ाग़* देश को लूट रहे
तो आँख खोलकर सोना क्या

शबनम से क्षुधा मिटाता है
उसे सागर क्या और दोना क्या

काँटों का ताज लिया सिर पर
फिर कठिन घड़ी में रोना क्या

जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या

बहता जल अनिकेत यायावर
वसुधा अपनी कोई कोना क्या

जग सत्य नहीं बस मिथ्या है
इसे पाना क्‍या और खोना क्‍या

जब कर्म की गठरी छूट गयी
खाली घट को संजोना क्या
(*ज़ाग़ = कौव्वे। अली जी, क्या ज़ाग़ शब्द और इसके प्रयोग के बारे में कुछ लिखेंगे?)

धन्यवाद!
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ये शाहिद कबीर कौन हैं?
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Tuesday, February 8, 2011

व्यावहारिकता - कविता


(अनुराग शर्मा)

वो खुद है खुदा की जादूगरी
फिर चलता जादू टोना क्या

जो होनी थी वह हो के रही
अब अनहोनी का होना क्या

जब किस्मत थी भरपूर मिला
अब प्यार नहीं तो रोना क्या

गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या

जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या

[क्रमशः]