मशरिक़, भारत, इंडिया, और हिंदुस्तान
ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ...
अपराध इतना शर्मनाक था कि कुछ बोलते नहीं बन रहा था। इस घटना ने लोगों को ऐसी गहरी चोट पहुँचाई कि कभी न बोलने वाले भी कराह उठे। सारा देश तो मुखरित हुआ ही देश के बाहर भी लोगों ने इस घटना का सार्वजनिक विरोध किया। फिर भी कई लोग ऐसा बोले कि सुन कर तन बदन में आग लग गई।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली मे "निर्भया" के विरुद्ध हुए दानवी कृत्य को "भारत बनाम इंडिया" का परिणाम बताया तो समाजवादी पार्टी के अबू आजमी भी फटाफट उनके समर्थन में आ खड़े हुए। अबू आजमी ने कहा कि महिलाओं को कुछ ज्यादा ही आजादी दे दी गई है। ऐसी आजादी शहरों में ज्यादा है। इसी वजह से यौन-अपराध की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि
भारतीय संस्कृति अविवाहित महिलाओं को गैर मर्दो के साथ घूमने की अनुमति नहीं देती है। अबू आजमी ने कहा कि जहाँ
वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव कम है वहाँ ऐसे मामले भी कम हैं।
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ये हैं देश के राष्ट्रपति के सपूत! |
इससे पहले राष्ट्रपति के पुत्र एवं कॉंग्रेस के सांसद अभिजीत मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में शामिल महिलाओं को अत्यधिक रंगी पुती बताकर विवाद खड़ा कर दिया। जनता की तीव्र प्रतिक्रिया के बाद अभिजीत ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली। इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पहले बेतुके और संवेदनहीन बयान देकर फिर उनके लिए माफी भी मांग चुके हैं। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय सलाहकार अशोक सिंघल ने भी अपराध का ठीकरा महिलाओं के सिर फोड़ते हुए पाश्चात्य जीवन शैली को ही दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न का जिम्मेदार ठहराकर अमेरिका की नकल पर अपनाए गए रहन-सहन को खतरे की घंटी बताया।
इंडिया कहें, हिंदुस्तान कहें या भारत, सच्चाई यह है कि ये अपराध इसलिए होते हैं कि
भारत भर में प्रशासन जैसी कोई चीज़ नहीं है। हर तरफ रिश्वतखोरी, लालच, दुश्चरित्र और अव्यवस्था का बोलबाला है। जिस पश्चिमी संस्कृति को हमारे नेता गाली देते नहीं थकते वहाँ एक आम आदमी अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार को छूए बिना आराम से गुज़ार सकता है। उन देशों में अकेली लड़कियाँ आधी रात में भी घर से बाहर निकलने से नहीं डरतीं जबकि सीता-सावित्री (और नूरजहाँ?) के देश में लड़कियाँ दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। मैंने गाँव और शहर दोनों खूब देखे हैं और मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में तो कानून नाम का जीव उतना भी नहीं दिखता जितना शहरों में। वर्ष 1983 से 2009 के बीच बलात्कार के दोषी पाये गए दुष्कर्म-आरोपियों में तीन-चौथाई मामले ग्रामीण क्षेत्र के थे। देश भर में केवल बलात्कार के ही हजारों मामले अभी भी न्याय के इंतज़ार में लटके हुए हैं।
अहल्या द्रौपदी तारा सीता मंदोदरी तथा
पंचकन्या स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्
भारत में राजनीति तो पहले ही इतनी बदनाम है कि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नमूनों में से किसी से भी संतुलित कथन की कोई उम्मीद शायद ही किसी को रही हो। ऐसे संजीदा मौके पर भी ऐसी बातें करने वालों को न तो भारत के बारे में पता है न पश्चिम के बारे में, न नारियों के बारे में, न अपराधियों के, और न ही व्यवस्था के बारे में कोई अंदाज़ा है। तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं से महिलाओं या पुरुषों की आज़ादी की बात की तो अपेक्षा भी करना एक घटिया मज़ाक जैसा है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, विशेषकर महिलाओं के प्रति ऐसी सोच इन लोगों की मानसिकता के पिछड़ेपन के अलावा क्या दर्शा सकती है? लेकिन जले पर सबसे ज़्यादा नमक छिड़का अपने को भारतीय संस्कृति का प्रचारक बताने वाले बाबा आसाराम ने। आसाराम ने एक हाथ से ताली न बजने की बात कहकर मृतका का अपमान तो किया ही, बलात्कारियों के लिए कड़े कानून का भी इस आधार पर विरोध किया कि कानून का दुरुपयोग हो सकता है। आधुनिक बाबाओं का पक्षधर तो मैं कभी नहीं था लेकिन इस निर्दय और बचकाने बयान के बाद तो उनके भक्तों की आँखें भी खुल जानी चाहिए।
घटना के लिए वे शराबी पाँच-छह लोग ही दोषी नहीं थे। ताली दोनों हाथों से बजती है। छात्रा अपने आप को बचाने के लिए किसी को भाई बना लेती, पैर पड़ती और बचने की कोशिश करती। ~आसाराम बापू
पश्चिम, मग़रिब, या वैस्ट
पश्चिमी संस्कृति में रिश्वत लेकर गलत पता लिखाकर बसों के परमिट नहीं बनते, न ही पुलिस नियमित रूप से हफ्ता वसूलकर इन हत्यारों को सड़क पर ऑटो या बस लेकर बेफिक्री से घूमने देती है। न तो वहाँ लड़कियों को घर से बाहर कदम रखते हुए सहमना पड़ता हैं और न ही उनके प्रति अपराध होने पर राजनीतिक और धार्मिक नेता अपराध रोकने के बजाय उल्टे उन्हें ही सीख देने निकल पड़ते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। पश्चिमी देशों के कानून के अनुसार सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति दिखने पर पुलिस को सूचना न देना गंभीर अपराध है। कई राज्यों में पीड़ित की यथासंभव सहायता करना भी अपेक्षित है। इसके उलट भारत में अधिकांश दुर्घटनाग्रस्त लोग दुर्घटना से कम बल्कि दूसरे लोगों की बेशर्मी और पुलिस के निकम्मेपन के कारण ही मरते हैं। खुदा न खास्ता पुलिस घटनास्थल पर पीड़ित के जीवित रहते हुए पहुँच भी जाये तो अव्वल तो वह आपातस्थिति के लिए प्रशिक्षित और तैयार ही नहीं होती है, ऊपर से उसके पास "हमारे क्षेत्र में नहीं" का बहाना तैयार रहता है। किसी व्यक्ति को आपातकालीन सहायता देने वाले व्यक्ति को कोई कानूनी अडचन या खतरा नहीं हो यह तय करने के लिए भारत या इंडिया के कानून और कानून के रखवालों का पता नहीं लेकिन पश्चिमी देशों में "गुड समैरिटन लॉं" के नियम उनके सम्मान और सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं।
भारत की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अक्सर हमारी पारिवारिक व्यवस्था और बड़ों के सम्मान का उदाहरण ज़रूर देते हैं। अपने से बड़ों के पाँव पड़ना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। अब ये बड़े किसी भी रूप में हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बंगाल या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हों या कॉंग्रेस की अध्यक्षा, पाँव पड़नेवालों की कतार देखी जा सकती है। बड़े-बड़े बाबा गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरु के पाँव पड़े रहने का पुण्य त्यागकर अपने शिष्यों को अपना चरणामृत उपलब्ध कराने में जुट जाते हैं। बच्चे बचपन से यही देखकर बड़े होते हैं कि बड़े के पाँव पड़ना और छोटे का कान मरोड़ना सहज-स्वीकार्य है। ताकतवर के सामने निर्बल का झुकना सामान्य बात बन जाती है। पश्चिम में इस प्रकार की हिरार्की को चुनौती मिलना सामान्य बात है। मेरे कई अध्यापक मुझे इसलिए नापसंद करते थे क्योंकि मैं वह सवाल पूछ लेता था जिसके लिए वे पहले से तैयार नहीं होते थे। यकीन मानिए भारत में यह आसान नहीं था। लेकिन यहां पश्चिम में यह हर कक्षा में होता है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यहाँ सहज स्वीकार्य है, ठीक उसी रूप में जिसमें हमारे मनीषियों ने कल्पना की थी। सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है। (
अनुवाद आभार: अजित वडनेरकर)
पश्चिमी संस्कृति बच्चों की सुरक्षा पर कितनी गंभीर है इसकी झलक हम लोग पिछले दिनों देख ही चुके हैं जब नॉर्वे में दो भारतीय दम्पति अपने बच्चों के साथ समुचित व्यवहार न करने के आरोप में चर्चा में थे। रोज़ सुबह दफ्तर जाते हुए देखता हूँ कि चुंगी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की स्कूल बस खड़ी हो तो सड़क के दोनों ओर का ट्रैफिक तब तक पूर्णतया रुका रहता है जब तक कि सभी बच्चे सुरक्षित चढ़-उतर न जाएँ। लेकिन इसी "पश्चिमी" संस्कृति की दण्ड व्यवस्था में कई गुनाह ऐसे भी हैं जिनके साबित होने पर नाबालिग अपराधियों को बालिग मानकर भी मुकदमा चलाया जा सकता है और बहुत सी स्थितियों में ऐसा हुआ भी है। बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं, शताब्दी पुराने क़ानूनों मे बदलाव की ज़रूरत है। वोट देने की उम्र बदलवाने को तो राजनेता फटाफट आगे आते हैं, बाकी क्षेत्रों मे वय-सुधार क्यों नहीं? चिंतन हो, वार्ता हो, सुधार भी हो। निर्भया के प्रति हुए अपराध के बाद तो ऐसे सुधारों कि आवश्यकता को नकारने का कोई बहाना नहीं बचता है।
मैंने शायद पहले कभी लिखा होगा कि विनम्रता क्या होती है इसे पूर्व के "पश्चिमी" देश जापान गए बिना समझना कठिन है। उसी जापान में जब मैंने अपनी एक अति विनम्र सहयोगी से यह जानना चाहा कि एक पूरा का पूरा राष्ट्र विनम्रता के सागर में किस तरह डूब सका तो उसने उसी विनम्रता के साथ बताया, "हम लोग तो एकदम जंगली थे ..."
"फिर?"
"फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुँची और हम बदल गए।"
मैं यही सोच रहा था कि भारतीय सभ्यता के प्रति इतना आदर रखने वाले व्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से बाहर आकर एक टैक्सी में बैठते होंगे तब जो सच्चाई उनके सामने आती होगी ... आगे कल्पना नहीं कर सका।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितंमुखं
तत् त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये
सत्य का मुख स्वर्णिम पात्र से ढँका है, कृपया सत्य को उजागर करें।
आँख मूंदकर अपनी हर कमी, हर अपराध का दोष अंग्रेजों या पश्चिम को देने वालों ... बख्श दो इस महान देश को!
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[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]