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Thursday, August 8, 2019
Tuesday, July 9, 2019
कुछ साक्षात्कार
विडियो Video
हिंदी सम्पादन की चुनौतियाँ - टैग टीवी कैनैडा पर अनुराग शर्मा, सुमन घई और शैलजा सक्सेना
Anurag Sharma with Suman Ghai and Shailja Saxena on Tag TV Canada
मॉरिशस टीवी पर डॉ. विनय गुदारी के साथ अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Anurag Sharma's Interview by Dr. Vinay Goodary on Mauritius TV
आप्रवासी साहित्य सृजन सम्मान का फ़्रैंच समाचार French News about MGI Mauritius Award
अनुराग शर्मा का साक्षात्कार (अंग्रेज़ी में) In discussion with Sparsh Sharma (English)
एनएचके (जापान) पर अनुराग शर्मा से नीलम मलकानिया की वार्ताऑडियो Audio
Neelam Malkania speaks to Anurag Sharma on NHK Radio (Japan)
रेडियो सलाम नमस्ते (अमेरिका) पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Hindi Interview with Anurag Sharma on Radio Salam Namaste, Texas
मुद्रित, व अन्य Print and Online
Friday, June 28, 2019
ब्राह्मण कौन? - भाग 3
1. मूल प्रश्न जटिल है, उत्तर भी सरल नहीं। यह सही लगता है कि ब्राह्मण और शूद्र दोनों ही बाद की बातें हैं लेकिन प्रकृति में बल, कौशल से पहले है। वर्णाश्रम व्यवस्था से बाहर के समाज देखें तो आज के सभ्य समाज में वे मुख्यतः व्यवसायी हैं, और व्यवसायी बनने से पहले ही योद्धा थे और आज वणिकवृत्ति करते हुये भी वैश्य से अधिक योद्धा ही हैं। यूरोप की विभिन्न ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ हों, भारतीय क्षेत्र के राजवंशों के संघर्ष हों, या देवासुर संग्राम जैसे आख्यान, ये सभी उदाहरण आत्मरक्षा से आगे जाकर, आक्रामकता और पराक्रम को नैसर्गिक गुण दर्शाते हैं। गौतम का बुद्ध हो जाना वास्तव में मानव और समाज, दोनों के विकास की प्रक्रिया का अगला चरण है।
2. शक्ति के अनेक रूप हैं, ज्ञान भी एक बड़ी शक्ति है। अविकसित समाज में राजा का शक्तिशाली होना स्वाभाविक है, बल्कि वहाँ शक्ति ही नेतृत्व प्रदाता है। जिस ईख, या गन्ने के लिये गिरमिटिया, फ़ीजी, मॉरिशस से लेकर वेस्ट इंडीज़ तक ले जाये गये उसका ज्ञान सैकड़ों वर्षों तक ईक्ष्वाकुओं का पेटेंट रहा हो यह स्वाभाविक है। वर्ण-व्यवस्था से पहले का राजा ब्रह्म-क्षत्रिय है। उसमें ये दोनों वर्ण हैं, बल्कि कुछ सीमा तक चारों वर्ण समाहित हैं। उसके विश्वस्त भी किसी भी अन्य अविकसित/विकासशील समाज की तरह योद्धा अधिक हैं, वैश्य कम। वैश्यवृत्ति विकास का उपादान भी है, और उत्पाद भी। ब्राह्मण व शूद्र वृत्तियाँ किसी भी अविकसित समाज में अनुपस्थित है। वे दोनों ही विकसित समाजों का नवोन्मेष हैं, और उनकी आवश्यकता भी।
4. अहिंसा तो फिर भी आचरण की बात थी, ज्ञान को राजा की बपौती से बाहर निकालकर गुरुकुलों द्वारा, ब्रह्मविद्या द्वारा, वेदों-उपवेदों द्वारा पब्लिक डोमेन में लाने का कार्य करने वाले ब्राह्मण हुये। वे राजाओं में से भी आये होंगे, क्षत्रियों, वैश्यों, और शूद्रों में से भी। बेशक जो पीढ़ी ब्राह्मण हो चुकी है, उसकी संतति का ब्राह्मण होना सरल है। जो परिवार 5,000 वर्षों से शाकाहारी हैं, उनके बच्चों के शाकाहारी होने में कोई चमत्कार नहीं, लेकिन अन्यों का ब्राह्मणत्व उपार्जित है, जिसे सरल करने का कार्य वर्णाश्रम व्यवस्था ने किया। वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के बाद राजा और मंत्रिमण्डल राजपुरोहित के नेतृत्व में राज्य के हित के लिये मिलकर काम करने लगे लेकिन उससे पहले का काल निश्चित रूप से इन दो संस्थाओं के संघर्ष का भी गवाह रहा है।
5. क्षत्रियत्व मानवों सहित असुरों में भी जन्मजात है, और देवों में भी। ब्राह्मणत्व केवल मानवों में उपस्थित है। लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि ब्राह्मण मानव होते हुये भी देव हो गये हैं। क्यों के उत्तर की खोज हमें ब्राह्मणत्व के दो मूल लक्षणों परमार्थ (स्वार्थ नहीं), तथा दान (लेना भी, देना भी - समन्वय, विकास, और विस्तार ) की ओर इंगित करती है। याद रहे, दान देवता की मूल प्रवृत्ति है।
6. जंगल प्राकृतिक हैं लेकिन कृषि नैसर्गिक नहीं। हज़ारों वर्ष पहले के भारत की बात छोड़ भी दें तो कुछ सौ साल पहले के - अमेरिका पहुँचे यूरोपीय 'पिलग्रिम' भूखे मरने को थे क्योंकि उन्हें कृषि का कख भी नहीं आता था। व्यवसाय कृषि के विकास से हज़ारों साल पहले भी होता रहा है। अरब और यूरोप के व्यापारी प्राचीन काल से भारत के साथ व्यापार करते रहे हैं, जबकि कृषि के मामले में वे निरक्षर थे। समस्त भारत में कृषि और गौपालन की स्वीकार्यता, उसका ज्ञान, और विस्तार ब्राह्मणों की ही देन है। कृषि और शाकाहार का सामान्य ज्ञान हमें आज वैसा ही सरल और स्वाभाविक लगता है, जैसा मेरे बच्चों का अमेरिका में रहते हुये भी शाकाहारी होना, लेकिन है नहीं। इसके पीछे सहस्रों वर्षों का तप और त्याग है। वेदों को बार बार चोरों के मुँह में हाथ डालकर निकाला गया है ताकि समाज का कल्याण हो। गौदान के द्वारा गौसंवर्धन, दूध, दही, मक्खन, खीर, घी आदि के प्रयोग द्वारा पोषण, गौ को माँ का स्थान देकर भारतीय समाज में इतना सहज बना दिया गया जैसा संसार में और कहीं नहीं हुआ।
7. वर्ण और विशेषकर वर्ण-संकर भारतीय संस्कृति के सर्वाधिक ग़लत समझे गये शब्द हैं। ग्रंथों में जहाँ भी वर्ण-संकर शब्द का प्रयोग हुआ है उसे जाति-संकर कहना न केवल एक भूल है बल्कि महा-अज्ञान है। ऐसा अनर्थ करने वाले यदि शंकराचार्य के पद पर भी बैठे हों तो भी वे भारतीय संस्कृति की आत्मा से दूर हैं। सामान्यजन तो खैर संसार भर में कुछ हद तक जातिवादी होते हैं, और अपने परिवार, वंश, जाति, या राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ मानना कोई नई या अस्वाभाविक बात नहीं है। वर्ण इस जातिगत श्रेष्ठता की काट भी बने और व्यक्ति और समाज के विकास का साधन भी।
7. ब्राह्मणत्व के अनेक कर्तव्यों में से एक दान लेना और दान देना भी है। अपने को अयाचक मानकर, ब्राह्मणों को याचक या हीन कहना निश्चित रूप से एक अब्राह्मण प्रवृत्ति है। अनेक जन्मना ब्राह्मण भी संसार की देखादेखी आजकल परशु को ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते दिखते हैं लेकिन तथ्य यही है कि सत्यनिष्ठा और विनम्रता ब्राह्मणत्व के मूलभूत गुण हैं, और इस बात को न समझने वालों का ब्राह्मणत्व नाममात्र का ही है।
8. किसी को ब्राह्मण कहने का आधार उसके माता पिता का ब्राह्मण होना भी मात्र उतना ही है जितना किसी के क्षत्रिय, वैश्य, सिख, ईसाई, जैन, तुरक, या किसी अन्य वर्ण, जाति, या मज़हब का होना। न उससे तनिक भी कम, न अधिक। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के अधोपतन के इस काल में भी भारत में सर्वाधिक अंतरजातीय विवाह ब्राह्मणों में ही मिलेंगे जो इस बात का द्योतक है कि ब्राह्मण जाति के बंधन में उतने नहीं फँसे हुये जितने अन्य समुदाय। वर्ण जन्मना नहीं, जाति नहीं, बल्कि जातिवाद के विरुद्ध क्रांति के प्रतीक हैं, वे जन्मना अहंकार का प्रतिरोध हैं।
... अभी के लिये इतना ही, शेष फिर ...
2. शक्ति के अनेक रूप हैं, ज्ञान भी एक बड़ी शक्ति है। अविकसित समाज में राजा का शक्तिशाली होना स्वाभाविक है, बल्कि वहाँ शक्ति ही नेतृत्व प्रदाता है। जिस ईख, या गन्ने के लिये गिरमिटिया, फ़ीजी, मॉरिशस से लेकर वेस्ट इंडीज़ तक ले जाये गये उसका ज्ञान सैकड़ों वर्षों तक ईक्ष्वाकुओं का पेटेंट रहा हो यह स्वाभाविक है। वर्ण-व्यवस्था से पहले का राजा ब्रह्म-क्षत्रिय है। उसमें ये दोनों वर्ण हैं, बल्कि कुछ सीमा तक चारों वर्ण समाहित हैं। उसके विश्वस्त भी किसी भी अन्य अविकसित/विकासशील समाज की तरह योद्धा अधिक हैं, वैश्य कम। वैश्यवृत्ति विकास का उपादान भी है, और उत्पाद भी। ब्राह्मण व शूद्र वृत्तियाँ किसी भी अविकसित समाज में अनुपस्थित है। वे दोनों ही विकसित समाजों का नवोन्मेष हैं, और उनकी आवश्यकता भी।
विकास का नैसर्गिक क्रम: क्षत्रिय → वैश्य → शूद्र → ब्राह्मण3. भारतीय समाज और वर्णाश्रम व्यवस्था के अहिंसा सहित अनेक अद्वितीय/अपूर्व धर्म/लक्षण हैं - ऐसे सारे लक्षण ब्राह्मणत्व का उदय भी दर्शाते हैं, और उसका आधार भी बने हैं। यह धर्म, ये लक्षण ही भारतीय संस्कृति को पश्चिम से, बल्कि सारे संसार से अलग खड़ा करते हैं। ब्राह्मणत्व का सिद्धांत भारतीय संस्कृति का वह बिंदु है जो अन्य किसी भी संस्कृति में नहीं है। दान देना और दान लेना, विशेषकर ब्रह्मदान, जनकल्याण के लिये ज्ञान का विस्तार, पुर के हित के लिये पौरोहित्य, और निरंकुश शासक के लिये संघर्ष का परशु, बनना। सिद्धांततः ब्राह्मणत्व विनम्रता की मूर्ति होते हुये भी भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का अडिग आधार है।
4. अहिंसा तो फिर भी आचरण की बात थी, ज्ञान को राजा की बपौती से बाहर निकालकर गुरुकुलों द्वारा, ब्रह्मविद्या द्वारा, वेदों-उपवेदों द्वारा पब्लिक डोमेन में लाने का कार्य करने वाले ब्राह्मण हुये। वे राजाओं में से भी आये होंगे, क्षत्रियों, वैश्यों, और शूद्रों में से भी। बेशक जो पीढ़ी ब्राह्मण हो चुकी है, उसकी संतति का ब्राह्मण होना सरल है। जो परिवार 5,000 वर्षों से शाकाहारी हैं, उनके बच्चों के शाकाहारी होने में कोई चमत्कार नहीं, लेकिन अन्यों का ब्राह्मणत्व उपार्जित है, जिसे सरल करने का कार्य वर्णाश्रम व्यवस्था ने किया। वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के बाद राजा और मंत्रिमण्डल राजपुरोहित के नेतृत्व में राज्य के हित के लिये मिलकर काम करने लगे लेकिन उससे पहले का काल निश्चित रूप से इन दो संस्थाओं के संघर्ष का भी गवाह रहा है।
5. क्षत्रियत्व मानवों सहित असुरों में भी जन्मजात है, और देवों में भी। ब्राह्मणत्व केवल मानवों में उपस्थित है। लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि ब्राह्मण मानव होते हुये भी देव हो गये हैं। क्यों के उत्तर की खोज हमें ब्राह्मणत्व के दो मूल लक्षणों परमार्थ (स्वार्थ नहीं), तथा दान (लेना भी, देना भी - समन्वय, विकास, और विस्तार ) की ओर इंगित करती है। याद रहे, दान देवता की मूल प्रवृत्ति है।
6. जंगल प्राकृतिक हैं लेकिन कृषि नैसर्गिक नहीं। हज़ारों वर्ष पहले के भारत की बात छोड़ भी दें तो कुछ सौ साल पहले के - अमेरिका पहुँचे यूरोपीय 'पिलग्रिम' भूखे मरने को थे क्योंकि उन्हें कृषि का कख भी नहीं आता था। व्यवसाय कृषि के विकास से हज़ारों साल पहले भी होता रहा है। अरब और यूरोप के व्यापारी प्राचीन काल से भारत के साथ व्यापार करते रहे हैं, जबकि कृषि के मामले में वे निरक्षर थे। समस्त भारत में कृषि और गौपालन की स्वीकार्यता, उसका ज्ञान, और विस्तार ब्राह्मणों की ही देन है। कृषि और शाकाहार का सामान्य ज्ञान हमें आज वैसा ही सरल और स्वाभाविक लगता है, जैसा मेरे बच्चों का अमेरिका में रहते हुये भी शाकाहारी होना, लेकिन है नहीं। इसके पीछे सहस्रों वर्षों का तप और त्याग है। वेदों को बार बार चोरों के मुँह में हाथ डालकर निकाला गया है ताकि समाज का कल्याण हो। गौदान के द्वारा गौसंवर्धन, दूध, दही, मक्खन, खीर, घी आदि के प्रयोग द्वारा पोषण, गौ को माँ का स्थान देकर भारतीय समाज में इतना सहज बना दिया गया जैसा संसार में और कहीं नहीं हुआ।
7. वर्ण और विशेषकर वर्ण-संकर भारतीय संस्कृति के सर्वाधिक ग़लत समझे गये शब्द हैं। ग्रंथों में जहाँ भी वर्ण-संकर शब्द का प्रयोग हुआ है उसे जाति-संकर कहना न केवल एक भूल है बल्कि महा-अज्ञान है। ऐसा अनर्थ करने वाले यदि शंकराचार्य के पद पर भी बैठे हों तो भी वे भारतीय संस्कृति की आत्मा से दूर हैं। सामान्यजन तो खैर संसार भर में कुछ हद तक जातिवादी होते हैं, और अपने परिवार, वंश, जाति, या राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ मानना कोई नई या अस्वाभाविक बात नहीं है। वर्ण इस जातिगत श्रेष्ठता की काट भी बने और व्यक्ति और समाज के विकास का साधन भी।
7. ब्राह्मणत्व के अनेक कर्तव्यों में से एक दान लेना और दान देना भी है। अपने को अयाचक मानकर, ब्राह्मणों को याचक या हीन कहना निश्चित रूप से एक अब्राह्मण प्रवृत्ति है। अनेक जन्मना ब्राह्मण भी संसार की देखादेखी आजकल परशु को ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते दिखते हैं लेकिन तथ्य यही है कि सत्यनिष्ठा और विनम्रता ब्राह्मणत्व के मूलभूत गुण हैं, और इस बात को न समझने वालों का ब्राह्मणत्व नाममात्र का ही है।
8. किसी को ब्राह्मण कहने का आधार उसके माता पिता का ब्राह्मण होना भी मात्र उतना ही है जितना किसी के क्षत्रिय, वैश्य, सिख, ईसाई, जैन, तुरक, या किसी अन्य वर्ण, जाति, या मज़हब का होना। न उससे तनिक भी कम, न अधिक। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के अधोपतन के इस काल में भी भारत में सर्वाधिक अंतरजातीय विवाह ब्राह्मणों में ही मिलेंगे जो इस बात का द्योतक है कि ब्राह्मण जाति के बंधन में उतने नहीं फँसे हुये जितने अन्य समुदाय। वर्ण जन्मना नहीं, जाति नहीं, बल्कि जातिवाद के विरुद्ध क्रांति के प्रतीक हैं, वे जन्मना अहंकार का प्रतिरोध हैं।
... अभी के लिये इतना ही, शेष फिर ...
सम्बंधित कड़ी: ब्राह्मण कौन? भाग 1
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