Saturday, October 24, 2009

चौथी का जोडा: इस्मत चुगताई

इस्मत चुगताई (1911-1991)
चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है।
आज उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका, और बदायूँ की बेटी इस्मत चुगताई की पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी एक मार्मिक कहानी का लेख (text) यहाँ प्रस्तुत है. यदि आप इस कहानी का ऑडियो  सुनना चाहें तो आवाज़ के सौजन्य से यह कहानी यहाँ सुनी जा सकती है: सुनो कहानी - चौथी का जोडा

सहदरी के चौके पर आज फिर साफ-सुथरी जाजम बिछी थी। टूटी-फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आडे-तिरछे कतले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। मोहल्ले टोले की औरतें खामोश और सहमी हुई-सी बैठी हुई थीं; जैसे कोई बडी वारदात होने वाली हो। मांओं ने बच्चे छाती से लगा लिये थे। कभी-कभी कोई मुनहन्नी-सा चरचरम बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता।
"नांय-नायं मेरे लाल!" दुबली-पतली मां से अपने घुटने पर लिटाकर यों हिलाती, जैसे धान-मिले चावल सूप में फटक रही हो और बच्चा हुंकारे भर कर खामोश हो जाता।

आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की मां के मुतफक्किर चेहरे को तक रही थीं। छोटे अर्ज की टूल के दो पाट तो जोड लिये गये, मगर अभी सफेद गजी क़ा निशान ब्योंतने की किसी की हिम्मत न पडती थी। कांट-छांट के मामले में कुबरा की मां का मरतबा बहुत ऊंचा था। उनके सूखे-सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज संवारे थे, कितने छठी-छूछक तैयार किये थे और कितने ही कफन ब्योंते थे। जहां कहीं मुहल्ले में कपडा कम पड ज़ाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती, कुबरा की मां के पास केस लाया जाता। कुबरा की मां कपडे क़े कान निकालती, कलफ तोडतीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूंटा करतीं और दिल ही दिल में कैंची चलाकर आंखों से नाप-तोलकर मुस्कुरा उठतीं।

"आस्तीन और घेर तो निकल आयेगा, गिरेबान के लिये कतरन मेरी बकची से ले लो।" और मुश्किल आसान हो जाती। कपडा तराशकर वो कतरनों की पिण्डी बना कर पकडा देतीं।

पर आज तो गजी क़ा टुकडा बहुत ही छोटा था और सबको यकीन था कि आज तो कुबरा की मां की नाप-तोल हार जायेगी। तभी तो सब दम साधे उनका मुँह ताक रही थीं। कुबरा की मां के पुर-इसतकक़ाल चेहरे पर फिक्र की कोई शक्ल न थी। चार गज गज़ी के टुकडे क़ो वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टूल का अक्स उनके नीलगूं जर्द चेहरे पर शफक़ की तरह फूट रहा था। वो उदास-उदास गहरी झुर्रियां अंधेरी घटाओं की तरह एकदम उजागर हो गयीं, जैसे जंगल में आग भडक़ उठी हो! और उन्होंने मुस्कुराकर कैंची उठायी।

मुहल्लेवालों के जमघटे से एक लम्बी इत्मीनान की सांस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिये गये। चील-जैसी निगाहों वाली कुंवारियों ने लपाझप सुई के नाकों में डोरे पिरोए। नयी ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की मां की कैंची चल पडी थी।

सहदरी के आखिरी कोने में पलंगडी पर हमीदा पैर लटकाये, हथेली पर ठोडी रखे दूर कुछ सोच रही थी।

दोपहर का खाना निपटाकर इसी तरह बी-अम्मां सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बकची खोलकर रंगबिरंगे कपडों का जाल बिखेर दिया करती है। कूंडी के पास बैठी बरतन मांजती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपडों को देखती तो एक सुर्ख छिपकली-सी उसके जर्दी मायल मटियाले रंग में लपक उठती। रूपहली कटोरियों के जाल जब पोले-पोले हाथों से खोल कर अपने जानुओं पर फैलाती तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा एक अजीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी सन्दूको-जैसी शिकनों पर कटोरियों का अक्स नन्हीं-नन्हीं मशालों की तरह जगमगाने लगता। हर टांके पर जरी का काम हिलता और मशालें कंपकंपा उठतीं।

याद नहीं कब इस शबनमी दुपट्टे के बने-टके तैयार हुए और गाजी क़े भारी कब्र-जैसे सन्दूक की तह में डूब गये। कटोरियों के जाल धुंधला गये। गंगा-जमनी किरने मान्द पड गयीं। तूली के लच्छे उदास हो गये। मगर कुबरा की बारात न आयी। जब एक जोडा पुराना हुआ जाता तो उसे चाले का जोडा कहकर सेंत दिया जाता और फिर एक नये जोडे क़े साथ नयी उम्मीदों का इफतताह (शुरुआत) हो जाता। बडी छानबीन के बाद नयी दुल्हन छांटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ-सुथरी जाजम बिछती। मुहल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बगलों में बच्चे दबाये झांझे बजाती आन पहुँचतीं।

"छोटे कपडे क़ी गोट तो उतर आयेगी, पर बच्चों का कपडा न निकलेगा।"
"लो बुआ लो, और सुनो। क्या निगोडी भारी टूल की चूलें पडेंग़ी?" और फिर सबके चेहरे फिक्रमन्द हो जाते। कुबरा की मां खामोश कीमियागर की तरह आंखों के फीते से तूलो-अर्ज नापतीं और बीवियां आपस में छोटे कपडे क़े मुताल्लिक खुसर-पुसर करके कहकहे लगातीं। ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड देती, कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियां सुनाने लगती, बेहूदा गन्दे मजाक और चुहलें शुरु हो जातीं। ऐसे मौके पर कुंवारी-बालियों को सहदरी से दूर सिर ढांक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया कहकहा सहदरी से उभरता तो बेचारियां एक ठण्डी सांस भर कर रह जातीं। अल्लाह! ये कहकहे उन्हें खुद कब नसीब होंगे। इस चहल-पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाये बैठी रहती है। इतने में कतर-ब्योंत निहायत नाजुक़ मरहले पर पहुँच जाती। कोई कली उलटी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाजे क़ी आड से झांकती।

यही तो मुश्किल थी, कोई जोड़ा अल्लाह-मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाय तो जान लो, नाइन की लगाई हुई बात में जरूर कोई अडंग़ा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्त: (रखैल) निकल आयेगी या उसकी मां ठोस कडों का अडंगा बांधेगी। जो गोट में कान आ जाय तो समझ लो महर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगडा होगा। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। बी-अम्मां की सारी मश्शाकी और सुघडापा धरा रह जाता। न जाने ऐन वक्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड ज़ाती। बिसमिल्लाह के जोर से सुघड मां ने जहेज ज़ोडना शुरु किया था। जरा सी कतर भी बची तो तेलदानी या शीशी का गिलाफ सीकर धनुक-गोकरू से संवार कर रख देती। लडक़ी का क्या है, खीरे-ककडी सी बढ़ती है। जो बारात आ गयी तो यही सलीका काम आयेगा।

और जब से अब्बा गुजरे, सलीके क़ा भी दम फूल गया। हमीदा को एकदम अपने अब्बा याद आ गये। अब्बा कितने दुबले-पतले, लम्बे जैसे मुहर्रम का अलम! एक बार झुक जाते तो सीधे खडे होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठ कर नीम की मिस्वाक (दातुन) तोड लेते और हमीदा को घुटनों पर बिठा कर जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते-सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूंसडा हलक में चला जाता और वे खांसते ही चले जाते। हमीदा बिगड क़र उनकी गोद से उतर जाती। खांसी के धक्कों से यूं हिल-हिल जाना उसे कतई पसन्द नहीं था। उसके नन्हें-से गुस्से पर वे और हँसते और खांसी सीने में बेतरह उलझती, जैसे गरदन-कटे कबूतर फडफ़डा रहे हों। फिर बी-अम्मां आकर उन्हें सहारा देतीं। पीठ पर धपधप हाथ मारतीं।

"तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी।"
अच्छू के दबाव से सुर्ख आंखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कराते। खांसी तो रुक जाती मगर देर तक हांफा करते।
"कुछ दवा-दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे।"
"बडे शफाखाने का डॉक्टर कहता है, सूइयां लगवाओ और रोज तीन पाव दूध और आधी छटांक मक्खन।"
"ए खाक पडे इन डाक्टरों की सूरत पर! भल एक तो खांसी, ऊपर से चिकनाई! बलगम न पैदा कर देगी? हकीम को दिखाओ किसी।"
"दिखाऊंगा।" अब्बा हुक्का गुडग़ुडाते और फिर अच्छू लगता।
"आग लगे इस मुए हुक्के को! इसी ने तो ये खांसी लगायी है। जवान बेटी की तरफ भी देखते हो आंख उठा कर?

Friday, October 16, 2009

तमसो मा ज्योतिर्गमय [इस्पात नगरी से - १८]

अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास व्हाइट हाउस में कल एक ऐतिहासिक घटना हुई। बराक ओबामा ने भारतीय और एशियाई मूल के लोगों के बीच एक दिया जलाकर राष्ट्रपति निवास के पूर्वी कक्ष में ज्योति-उत्सव दीवाली मनायी। साथ ही उन्होंने अन्धकार पर प्रकाश और अज्ञान पर ज्ञान की विजय के प्रतीक दीपावली के लिए हिंदू, सिख, जैन एवं बौद्ध समुदाय के लोगों एवं अन्य सभी को सभी को विशेष रूप से बधाई दी।

कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति भवन में आधिकारिक रूप से दीवाली मनाने वाले वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं मगर मुझे याद पड़ रहा है कि बुश परिवार ने भी हर साल दीवाली मनाई थी और उसकी शुभकामनाएं दी थीं भले ही वह समारोह आम रूटीन की तरह रहे हों।

इस अवसर पर शिव विष्णु मन्दिर के पुजारी नारायण आचार्य दिगालाकोटे ने शान्ति वचन कहे और पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के भारतीय छात्रों के अ-कापेला (a cappella = वाद्य यंत्रों के बिना मुँह से उनकी आवाज़ बनाने वाले) दल "पेन मसाला" ने एक गीत भी प्रस्तुत किया। आइये देखते हैं समारोह की एक झलकी यूट्यूब पर व्हाइट हाउस के सौजन्य से:


Happy Diwali! आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं!
तमसो मा ज्योतिर्गमय...

Tuesday, October 13, 2009

पतझड़ - एक कुंडली

पिट्सबर्ग में पतझड़ का मौसम आ चुका है। पत्ते गिर रहे हैं, ठंडी हवाएं चल रही हैं। हैलोवीन के इंतज़ार में बैठे बच्चों ने अपने घरों के बाहर नकली कब्रें और कंकाल इकट्ठे करने शुरू कर दिए हैं। पेड़ों पर जहाँ-तहाँ बिल्कुल असली जैसे नरकंकाल टंगे दीख जाते हैं। ऐसे मौसम का दूसरा पक्ष यह भी है कि प्रकृति रंगों से भर उठी है। धूप की गुनगुनाहट बड़ी सुखद महसूस होती है। काफी पहले पतझड़ शीर्षक से एक कविता लिखी थी आज उसी शीर्षक से एक कुंडली लिखने का प्रयास किया है जिसका प्रथम और अन्तिम शब्द पतझड़ ही है:

पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय।
गिरा हुआ पत्ता कभी, फिर वापस ना आय।।

फिर वापस ना आय, पवन चलै चाहे जितनी ।
बात बहुत है बड़ी, लगै चाहे छोटी कितनी ।।

अंधड़ चलै, तूफ़ान मचायै कितनी भगदड़।
आवेगा वसंत पुनः, जावैगा पतझड़।।

(अनुराग शर्मा)