Friday, April 6, 2012

नेताजी, गांधीजी और राष्ट्रपिता पर प्रश्न

स्वातंत्र्य-वीर नेताजी व राष्ट्रपिता
पिछले कई दिनों से राष्ट्रपिता चर्चा में हैं। आश्चर्य इस बात पर नहीं है कि राष्ट्रपिता चर्चा में हैं। आश्चर्य इस बात पर भी नहीं है कि इस प्रश्न से कई लोगों के दिल में राष्ट्रभक्ति की चिंगारी फिर से स्फुरित होने लगी है। सच पूछिये तो आश्चर्य है ही नहीं, हाँ दुःख अवश्य है। एक नन्हीं सी बच्ची को अपने राष्ट्र और राष्ट्रपिता के बारे में किये गये इस सामान्य से प्रश्न का जवाब न घर में मिला न विद्यालय में। शर्म की हद तब हो गयी जब सरकार के प्रतिनिधियों की ओर से भी इस सीधे से सवाल का सीधा जवाब नहीं मिला।

पूरी कहानी तो शायद आप सबको पता ही होगी। फिर भी आगे बढने से पहले पूरे किस्से पर फिर से एक सरसरी नज़र मार लेना ठीक ही है। लखनऊ में पांचवीं क्लास में पढने वाली बच्ची ऐश्वर्या पाराशर ने यह जानना चाहा कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता कब बने? पाँचवीं कक्षा की छात्रा है, शायद बच्ची ने सोचा हो कि राष्ट्रपिता कोई सरकारी उपाधि है। घर में, स्कूल में और अन्य सम्भावित स्थानों में भी जब उसे संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तो मामला सूचनाधिकार कानून तक पहुँचा। सरकार से एक आवेदन किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने पत्र को गृहमंत्रालय के पास भेजा। गृहमंत्रालय ने कहा कि इस पत्र का उत्तर देना उनका काम नहीं है। अंत में यह सवाल राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास पहुँचा और जवाब मिला कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दिये जाने के बारे में उनके पास कोई दस्तावेज़ या आधिकारिक जानकारी नहीं है।

नमक सत्याग्रह (6-4-1930)
सरकार के काम करने के तरीके को दर्शाने के लिये यह एक आदर्श उदाहरण है। जिन लोगों पर प्रश्नों के उत्तर देने की ज़िम्मेदारी है वे इस कार्यक्रम का क्रियाकर्म कितनी सुघड़ता से कर रहे हैं, यह इस एक घटना से स्पष्ट है। सरकारी खानापूर्ति कोई नई बात नहीं है, इसलिये मैने भी इस विषय पर लिखने के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा। मगर अभी कुछ भाई गांधीजी को राष्ट्रपिता मानने के बजाय नेताजी सुभाषचन्द्रबोस को राष्ट्रपिता मानने की बात करते सुनाई दिये। इस मांग ने एक बार फिर याद दिलाया कि हमें अपने राष्ट्रीय नायकों के बारे में कितनी जानकारी है। एक नन्ही बच्ची के मासूम प्रश्न के बहाने ही सही, यदि हम अपने अतीत को पहचानने का थोड़ा भी प्रयास कर सकें तो बहुत खुशी की बात है।

अपने समय के अनेक नवयुवकों की तरह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत गांधीजी की छत्रछाया में की थी। समय कुछ ऐसा चला कि दोनों के उद्देश्य समान होते हुए भी उनके मार्ग जुदा हो गये। फिर भी नेताजी के हृदय में गांधीजी के लिये सम्मान अंतपर्यंत बना रहा। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गांधीजी को नज़रबन्द करके पुणे के आग़ाखाँ महल में रखा गया था। उसी नज़रबन्दी के दौरान 22 फ़रवरी 1944 को कस्तूरबा गांधी का देहावसान हो गया। यह समाचार मिलने के कुछ समय बाद 4 जून 1944 को रंगून से आज़ाद हिन्द रेडियो के प्रसारण में नेताजी ने भारत छोड़ो का सन्दर्भ देते हुए भारत में किये जा रहे (अहिंसक) आन्दोलन के आज़ादी दिलाने में कारगर होने के बारे में आशंका व्यक्त करते हुए गांधीजी को राष्ट्रपिता कहकर उनके आशीर्वाद से आज़ाद हिंद फ़ौज़ का कार्यक्रम जारी रखने की बात की।
"Father of our Nation in this holy war for India's liberation, we ask for your blessings and good wishes." ~ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
उल्लेखनीय है कि इस प्रसारण से लगभग दो वर्ष पहले गांधीजी ने नेताजी को देशभक्तों के राजकुमार ("Prince among the Patriots) नाम से सम्बोधित किया था। एक बच्ची के मासूम प्रश्न ने राष्ट्र के दो महानायकों की याद और उनके बीच के भावनात्मक सम्बन्धों की याद ताज़ा करा दी, उसके लिये ऐश्वर्या का आभार!

संयोग से आज डांडी मार्च की वर्षगांठ भी है। जी हाँ, 6 अप्रैल 1930 को प्रातः 6:30 पर गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा था और तभी पहली बार भारत में एक बड़ा जन समुदाय स्वाधीनता संग्राम के पक्ष में खुलकर सामने आया था।

  अमर हो स्वतंत्रता!
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Tuesday, March 27, 2012

क्या तिब्बत की आग चीनी तानाशाही को भस्म करेगी?

स्वतंत्रत तिब्बत = हिमालय की शांति

सारे तिब्बत में आग लगी हुई है। शांतिप्रिय तिब्बतियों को चीनी सैनिक अपने जूतों-तले रौंद रहे है। मठों पर सेना का कब्ज़ा है। भिक्षुकों को बाहरी समाज से काट दिया गया है। तोड़्फ़ोड के आरोप में पिछले दिनों एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को चीन की एक अदालत ने 13-13 वर्ष की सजा सुनाई है। अनेक भिक्षुकों की गोलियों से छलनी लाशें मिल चुकी हैं और भी न जाने कितने भिक्षुक लापता हैं। चीन की दानवी सरकार की दमनकारी नीतियों से परेशान तिब्बती जन सेना की लाठी और गोली खाकर भी भूख हड़ताल, जन आंदोलन, और आत्मदाह कर रहे हैं। 2012 के आरम्भ से अब तक तिब्बत की स्वतंत्रता व दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर सिचुआन तथा अन्य क्षेत्रों में रह रहे 30 आत्मदाह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। न जाने कितने मामले कठोर चीनी सेंसर नीति के तहत दबे पड़े होंगे।

चीनी दमन के विरुद्ध विश्व भर में आवाज़ उठा रहे तिब्बतियों को भारी समर्थन मिल रहा है। न्यूयॉर्क में तीन तिब्बती युवाओं का 30 दिन पुराना अन्शन समाप्त कराते समय संयुक्त राष्ट्र ने भी चीन के साथ तिब्बत विषयक वार्ता का आश्वासन दिया है। मगर भारत के हालात उलट हैं। "शरणागत रक्षा" का दम भरने वाली धरती पर चीनी हू जिंताओ के आगमन से पहले तिब्बतियों की बस्तियों पर भारतीय प्रशासन ने दमन की कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी हैं। और यह हू जिंताओ है कौन? एक तानाशाह ही न! फिर उसके आगमन से पहले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत को छावनी क्यों बनाया जा रहा है? चीनी शासक यह जानें या न जानें, भारतीय सदा से जानते हैं कि स्वतंत्रता मानवमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। तिब्बती जन भी स्वतंत्र वायु में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है। आज जब चीनी दवाब में आकर नेपाल और भारत की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तिब्बतियों की अहिंसक और शांतिमय अभिव्यक्ति को कुचलने में जुट गयी हैं तब तिब्बती सीने में सुलग़ती आग भारत की धरती तक भी आ पहुँची है। क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 26 वर्षीय तिब्बती युवक पावो जम्फ़ेल यशी ला ने चीन के अत्याचारों के खिलाफ दिल्ली में जंतर मंतर पर आत्मदाह का प्रयास किया है। यह पोस्ट लिखे जाने तक वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे थे।
आज बुधवार मार्च 28, 2012 की सुबह पावो जम्फ़ेल यशी ला (26) का निधन हो गया! वे 2006 में तिब्बत से भागकर भारत आये थे और तब से धर्मशाला में रह रहे थे। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! 

धन्यवाद भारत!
 भारत सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार को तिब्बतियों के इस कठिन समय में भारतीय राष्ट्रीय नारे "सत्यमेव जयते" को सिद्ध करना चाहिये। तिब्बती समुदाय पर हिंसक कार्यवाही करने के बजाय उन्हें चीनी नेताओं की आँखों में आँखें डालकर तिब्बत मुद्दे पर स्पष्ट बात करनी चाहिये। वहीं भारतीय जनता को भी इस विषय पर तिब्बत की स्वतंत्रता के समर्थन में खुलकर सामने आना चाहिये बल्कि चीन से भारतीय भूमि वापसी की मांग के लिये भी सरकार पर दवाब डालना चाहिये। कितने आश्चर्य की बात है कि देशभक्ति का दावा करने वाली किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने आज तक भारतीय भूमि की वापसी को अपनी नीति में शामिल करने का साहस नहीं दिखाया। कैसा राष्ट्रप्रेम है यह?

कोई भी चीनी नेता भारत का रुख करता है और तिब्बतियों की धर-पकड़ शुरू हो जाती है। वही तिब्बती जो अब तक भारत में आये शरणार्थियों में से सर्वाधिक शांतिप्रिय रहे हैं, पुलिस के डंडे खाते हैं, दुत्कारे जाते हैं, जेल जाते हैं - किसलिये? हमारी चुनी हुई सरकार में उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े होने लायक रीढ नहीं है, यह बात समझ में आती है मगर तानाशाहों की लाठी बनकर निर्दोष शरणार्थियों के ऊपर बरसना? क्या यही है "अतिथि देवो भवः" की संस्कृति? कहाँ हैं संस्कृति के ठेकेदार और कहाँ हैं राष्ट्रगौरव वाले? कहाँ है वह प्रबुद्ध वर्ग जिन्हें फ़िलिस्तीन या क्यूबा में हवा चलने पर भारत बैठे-बैठे ज़ुकाम हो जाता है?
 
अमेरिका में  स्वतंत्र तिब्बत (अंतर्जाल  चित्र )
1952 के चीनी आक्रमण से पहले तक तिब्बत कम से कम 1300 वर्षों से एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में था। चीनदेश का जो भी हाल रहा हो त्रिविष्टप भूमि के आर्यावर्त से नियमित सम्बन्ध थे। दलाई लामा को अपना स्वामी मानने वाले तिब्बत की अपनी मुद्रा और डाक टिकट चीनी हमले तक चलते थे। सच तो यह है कि तिब्बत की अपनी सेना भी थी जिसने 1952 के प्रतिरोध के अतिरिक्त छठी शताब्दी में दो सौ वर्षों तक चीन से युद्ध किया था। डोगरा जनरल जोरावर सिंह के तिब्बत अभियान में सोने की गोली से मारे जाने की बात राहुल सांकृत्यायन ने भी लिखी है। चीन के दुष्प्रचार मे भले ही अरुणाचल, सिक्किम और भूटान की तरह तिब्बत भी चीन के अंग बताये जाते हों परंतु सत्य यही है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद तिब्बत का जैसा नाता भारत और नेपाल के साथ रहा है वैसा चीन के साथ कभी नहीं रहा। तिब्बत की भाषा और लिपि सम्पूर्ण चीन में एक भाषा का दावा करने वाले चीन से एकदम अलग है। तिब्बती लिपि तो भारतीय लिपि परिवार की ही सदस्य है। भाषा और संस्कृति भी चीन के बजाय हिमालयी राज्यों से मिलती है।

स्वतंत्र तिब्बत का ध्वज
पंचशील की सन्धि करने के बाद भारत पर अचानक हमला करने वाले विस्तारवादी और उद्दण्ड चीन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। अक्साई-चिन पर कब्ज़ा किये रहने के बावजूद चीन का जब मन करता है वह कभी कश्मीर और कभी अरुणाचल प्रदेश के निवासियों के वीसा के बहाने भारत की प्रभुसत्ता का मज़ाक उड़ाने लगता है। बढती शक्ति से बौराये चीनी तिब्बत से निकलने वाली हमारी नदियों के रुख मोड़ रहे हैं। अपने सैनिकों के लिये दुर्गम स्थलों तक आधुनिक ट्रेनें चलाने वाला चीनी प्रशासन कैलाश और मानसरोवर जैसे प्राचीन तीर्थों की यात्राओं पर जाने वाले हमारे यात्रियों से भारी वीसा शुल्क लेने के बाद भी उन्हें मौलिक सुविधायें तक मुहैया नहीं कराता। चीनी अधिकारियों के हाथों भारतीय व्यापारियों के साथ हालिया बदसलूकी और वियेतनाम के साथ खनन परियोजनाओं सम्बन्धी समझौतों के समय खनन स्थल पर अपने नौसैनिक बेड़े की गश्तें कराना चीन द्वारा भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का स्पष्ट उदाहरण है।

सत्य का साथ दें - तिब्बत के मित्र बनें
तिब्बत पर चीन के दमन का विरोध न केवल एक मानवता के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि भारत के स्थाई शत्रु तानाशाह चीन की गुंडागर्दी को काबू में रखने के लिये आवश्यक भी है। नेपाल और पाकिस्तान भले ही मुँह सिये बैठे रहें, कम से कम भारत को यह चाहिए कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता की आवाज विश्व मंच पर उठाए।  एक स्वतंत्र तिब्बत के अस्तित्व के साथ ही भारत-चीन सीमा विवाद का अंत तो होगा ही, भारत के साथ-साथ नेपाल और भूटान को भी एक दानवी पड़ोसी से छुटकारा मिलेगा। हमारी नदियाँ स्वतंत्र होंगी और पिछले वर्षों में सतलज में आयी कृत्रिम बाढ जैसी विभीषिकाओं से छुटकारा मिलेगा। अक्साई चिन व पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ाये कश्मीर के उत्तरी भाग से लिये गये भूभाग की वापसी का मार्ग भी साफ़ होगा और चीन द्वारा तिब्बत को पर्माण्वीय कचरे का ढेर बनाये जाने की आशंकाओं के भय से मुक्ति भी मिलेगी। तिब्बत जैसे मित्रवत पड़ोसी की उपस्थिति से उत्तरी सीमा पर हथियारों व वन्यपशुओं की तस्करी से बचाव जैसे लाभ भी स्वतः ही मिलेंगे।

यह पोस्ट लिखते समय जब कुछ जानी-मानी तिब्बती वेबसाइटों पर जाने का प्रयास किया तो पाया कि वे डाउन हैं। अलग-अलग जगह से चल रही कई साइट्स का एक साथ डाउन होना तो यही दर्शा रहा है कि चीनी दमन लाठी, गोली, टैंक, जेल से आगे बढकर साइबर-टैरर तक पहुँच चुका है। ज़हरीला ड्रैगन इस वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति से डरा हुआ है।
कहावत है कि पाप का घड़ा फूटने से पहले छलकता ज़रूर है। क्या कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद के आखिरी कॉमरेड की बत्ती बुझने के दिन आ गये? चीन पर काफ़ी अंतर्राष्ट्रीय दवाब है, मगर जब तक भारत की ओर से दवाब नहीं बनता, वह निश्चिंत है। यदि एक बेहतर और शांतिमय संसार चाहिये तो चीन की तिब्बत से वापसी एक आवश्यक शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के लिये तिब्बतियों को भारत सरकार का समर्थन आवश्यक है और भारत सरकार को ऐसा करने के लिये बाध्य करने के लिये भारतीय जनता का उठ खड़े होना ज़रूरी है। सम्पादक के नाम पत्र, फ़ेसबुक शेयर, गूगल प्लस, अपने जनप्रतिनिधि के नाम पत्र, या स्थानीय स्तर पर गोष्ठी और प्रेस सम्मेलन, नारेबाज़ी; आप जो भी कर सकते हैं कीजिये ताकि चीन के अगले हमले के समय 1962 वाले बहाने, "हिन्दी चीनी भाई-भाई" की आड़ न लेनी पड़े।

जय तिब्बत! जय भारत!  अमर हो स्वतंत्रता!

सम्बन्धित कड़ियाँ
Protests, Self-Immolation Signs Of A Desperate Tibet
* Friends of Tibet
* चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
* बार-बार दिन यह आए
* भारत पर चीन का दूसरा हमला?
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?
* तिब्बत - चीखते अक्षर (आचार्य गिरिजेश राव)
* अरुणाचल पर चीन ने फिर चली चाल

Saturday, March 24, 2012

अफ़वाहों का गणित

पुरानी घटना है। आस पड़ोस के सब लोग गणेश जी को दूध पिलाने के लिये दौड़ रहे थे। हमारी पड़ोसन भी आयीं ताकि वे माँ के साथ निकट के मन्दिर में जा सकें। माँ ने पहले तो समझाने का प्रयास किया फिर अचानक ही साथ चलने को तैयार हो गयीं। दूध के लोटे-गिलास के बजाय एक खाली चम्मच लिया और वहाँ जाकर संगेमरमर की मूर्ति की गर्दन से लगा दिया। पल भर में ही चम्मच दूध से भर गया। पड़ोसन को भी दिख गया कि मूर्ति दूध पी नहीं रही थी बल्कि दुग्ध-स्नान कर रही थी।

आजकल अफ़वाहें भी तकनीक की बेल के सहारे काफ़ी ऊँची उठ चुकी हैं। एक एस एम एस आता है या कोई ईमेल मिलती है और हम आश्चर्य से भर जाते हैं। सब कुछ अनोखा, इतना अनूठा कि संयोग शब्द कुछ हल्का लगने लगे। हम इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जो मिलता है उसे उस ईमेल का विषय फ़टाफ़ट विस्तार के साथ बताने लगते हैं। कभी उस संदेश को आगे दो चार मित्रों को फ़ॉरवर्ड करते हैं और कभी ब्लॉग पोस्ट भी बना देते हैं। उत्साह के बीच ये बात दिमाग़ में आती ही नहीं कि वह सन्देश अफ़वाह भी हो सकता है। पहले किसी अफ़वाह के फैलने की रफ़्तार धीमी थी परंतु आजकल तो बस्स ...

क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि इन अफ़वाहों के पीछे कौन छिपा है? कौन हमारे भोले विश्वास का लाभ उठाकर अपना उल्लू सिद्ध करना चाहता है? अपने अभिनेता बेटे की हाई प्रोफ़ाइल फ़िल्म के विश्व-व्यापी उद्घाटन के समय भारत के एक फ़िल्म निर्माता को अंडरवर्ल्ड से पैसा देने की धमकी मिलती है। वह पुलिस में जाता है। पुलिस उसकी सुरक्षा में लग जाती है। तभी पड़ोसी देश का एक केबल नेटवर्क उस अभिनेता द्वारा उस देश का अपमान करने की खबर देता है। देशभक्ति की भावना से भरे भोले-भाले लोग उस अभिनेता के विरोध में घरों से बाहर निकल आते हैं। अभिनेता बेचारा सफ़ाई ही देता रह जाता है।

सम्बन्ध व्यवसायिक हों या पारिवारिक, वे तभी टिकते हैं जब उनमें दोनों पक्ष या तो लाभ में रहते हों या कम से कम एक पक्ष का लाभ हो रहा हो या कम से कम एक पक्ष इस सम्बन्ध के प्रति या तो निरपेक्ष हो या हानि भी सहने को तैयार हो। इसी प्रकार कुछ लोग कोई भी काम करते समय सबका भला देखते हैं। कुछ लोग केवल अपना भला देखते हैं। लेकिन इस सब से आगे बढकर कुछ लोग, देश या संस्थायें केवल इतना देखते हैं कि उनके काम से दूसरे व्यक्ति, संस्था या देश की हानि हो। उनके लिये यह दूसरा कोई व्यक्ति, संस्था या देश नहीं होता, वह होता है केवल एक प्रतिद्वन्द्वी बल्कि एक शत्रु, जिसे किसी भी कीमत पर नीचा दिखाना है, हराना है या नष्ट करना है।

मुझे याद पड़ता है कि एक अन्य पड़ोसी देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम हिन्दुस्तान से हज़ार साल तक लड़ेंगे, भले ही उसके लिये हमें घास खाना पड़े। पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले तो उस देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया। देश का चरित्र फिर भी काफ़ी हद तक वैसा ही रहा जैसा इन घटनाओं से पहले था। अपना इतिहास छिपाने और पड़ोसियों के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने का चलन वहाँ आज भी है और उस देश के पतन का एक बड़ा कारण है।

लेकिन ये अफ़वाहें फैलती क्यों हैं? पड़ोसी देश की समस्या तो ये है कि वहाँ इस्लाम के नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के विरोध के नाम पर इंसानियत का खून आसानी से किया जा सकता है। उनके स्कूलों की किताबें हों या मदरसों के सबक, सबका एक छिपा एजेंडा है। वे भूल गये हैं कि नफ़रत की आग जब एक बार जलनी शुरू होती है फिर समदर्शी होकर अपना पराया नहीं देखती। वे अन्धे हों तो हों मगर वैविध्य, उदारता और सहिष्णुता की अति-प्राचीन परम्परा वाले हम लोग अफ़वाहों के चक्र को तोड़ने के बजाय उसे हवा क्यों देते हैं? शायद इसलिये कि अफ़वाह फैलाने वाले आपके मन की घुटन पहचानते हैं। वे जानते हैं कि आपके मन में क्या चल रहा हैं? अफ़वाहें अक्सर ऐसी भावनाओं का शोषण करती हैं जिनसे एक बड़े समूह को आसानी से चलायमान किया जा सके। ये भावनायें धर्म, देशप्रेम, ग़रीबी, अन्याय, असमानता आदि कुछ भी हो सकती हैं लेकिन अक्सर इनके द्वारा एक बड़े समूह को पीड़ित बताया जाता है।

अब्राहम लिंकन 
अफ़वाहों के कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं। पहले सीधी-सच्ची जैसी लगने वाली अफवाहें फैलाकर जनता का रुख और उनकी परिपक्वता का स्तर पहचाना जाता है। समय के साथ अफ़वाहों को बदला या हटाया जाता है। कई बार ये अफ़वाहें प्रत्यक्ष होती हैं जबकि कई बार परोक्ष भी होती हैं। शीतल पेयों में पशु-उत्पाद होना, नेहरू जी का मुसलमान होना, जिन्ना का सैकुलर होना जैसी सामान्य प्रचलित अफ़वाहों का परिणाम समझ आ जाये तो उनका उद्देश्य और उद्गम पहचानना आसान हो जायेगा। साथ ही यदि हम अफ़वाह पर एक सरसरी नज़र डालें तो उसका झूठ एकदम सामने आ जायेगा।

आइये केवल विश्लेषण के उद्देश्य से एक ब्लॉग पर ताज़ा छपी एक पुरानी अफ़वाह का नया संस्करण देखें। मैंने जानकर इस अफ़वाह को इसलिये चुना है क्योंकि यह एक विख्यात परंतु सरल सी अफ़वाह है और इसका हमारे देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रनायक या  परिस्थितियों से भी कोई लेना-देना नहीं है। अफ़वाह लम्बी है, कृपया धैर्य रखिये।

1. प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था।
2. लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
3. दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नियों की उपस्थिति मे हुआ था।
4. लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड, एक स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था।
5. बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था।
6. दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था।
8. लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं।
9. दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था।
10. लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।

आश्चर्य है कि इसकी काट बहुत पहले प्रकाशित हो जाने के बाद भी यह दंतकथा आज तक सर्कुलेशन में है। आइये बिन्दुवार देखें इस विचित्र से सत्य में सत्य का प्रतिशत कितना है:

1. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हर 4 वर्ष में होता है। इसलिये किन्हीं भी दो राष्ट्रपतियों के बीच का अंतर 4 से विभाज्य होगा। यह हम पर निर्भर है कि हम जो दो राष्ट्रपति चुनें उनके बीच का अंतर 56, 96, 100, 104 या 200 वर्ष है या कुछ और। यहाँ दो ऐसे राष्ट्रपति लिये गये हैं जिनकी हत्या हुई और उनके राष्ट्रपति बनने के वर्षों में सौ वर्ष का अंतर था।

2. यह पक्की बात है कि लिंकन के अनेक सचिवों में से किसी का उपनाम भी कैनेडी नहीं था।

3. सप्ताह के सात दिनों में से एक के होने की सम्भावना कितनी जटिल है। वैसे लिंकन की हत्या के समय उनकी पत्नी साथ नहीं थीं और उनकी मृत्यु शनिवार को हुई थी।

4. भागने के बाद बूथ ने अलग-अलग जगहों यथा घर, खेत, कुठार आदि में शरण ली थी परंतु स्टोर में नहीं।

5. इन दो राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर था, सो उनके हत्यारों के जन्म में भी 100 साल का अंतर कोई बड़ी बात नहीं है। मगर अफ़वाह का यह बिन्दु भी ग़लत है। बूथ का जन्म 1839 में नहीं बल्कि 1838 में हुआ था। वैसे, ओसवाल्ड केनेडी का हत्यारा था - इस बात पर आज भी बहुत से लोगों को विश्वास नहीं है।

6. चलिये एक बिन्दु तो सच है, वैसे राष्ट्रपति के हत्यारों का घटनास्थल पर ही मारा जाना एक सामान्य सम्भावना है।

7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का कुलनाम जॉंन्सन होना सचमुच एक सन्योग है। जॉंन्सन अमेरिका का एक सामान्य नाम है। यदि दोनों जॉंन्सन के नाम भी समान होते तब ज़रूर आश्चर्य होता। या फिर उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः कैनेडी व लिंकन होते तब तो मैं भी इस अफ़वाह पर पूर्ण विश्वास करता। दोनों राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर उनके उत्तराधिकारियों के समान अंतर को ही साबित करता है। यदि उत्तराधिकारियों का अंतर 75 या 125 साल भी होता तो क्या फ़र्क पड़ना था?

8. यूरोपीय मूल के नामों में 7 अक्षर होना अनोखी बात नहीं है। वैसे कैनेडी के नाम "जॉन" में 7 नहीं चार अक्षर थे।

9. आश्चर्य? अमेरिका के हर राष्ट्रपति का नाम मानव अधिकारों से जुड़ा है, कइयों को नोबल शांति पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

10. कैनेडी लिंकन कम्पनी द्वारा बनाई हुई लिंकन कॉंटिनेंटल लिमुज़िन में सवार थे। हाँ, लिंकन कम्पनी फ़ोर्ड कम्पनी के स्वामित्व में अवश्य है लेकिन क्या स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावनकोर को स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि लिंकन कार का नाम ही राष्ट्रपति लिंकन के सम्मान में रखा गया था। इसलिये एक शताब्दी बाद आये कैनेडी की कार का नाम लिंकन होना आसान सी बात है। अनोखी बात तब होती जब लिंकन की कार का नाम कैनेडी होता।

क्या मैं कुछ अधिक ही विद्रोही हो रहा हूँ? शायद ऐसा हो क्योंकि किसी भी सन्देश को बिना विचारे दोहराते हुए देखना मुझे अजीब लगता है। वह भी तब जब अफ़वाह की तथ्यात्मक काट लम्बे समय पहले प्रकाशित हो चुकी हो। यदि अफ़वाहें राष्ट्र को उद्वेलित करके समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करके राष्ट्रीय नागरिकों, सेवाओं या सम्पत्ति की हानि करने लगें तब तो हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ जाती है। ध्यान रखिये कि राष्ट्र की हानि कराने वाले राष्ट्रभक्ति का मुखौटा भले ही ओढ लें, वे रहेंगे राष्ट्रद्रोही ही। मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं। क्या कहते हैं आप?