Saturday, March 28, 2020

आस्तिक - लघुकथा

गर्मागरम बहस चल रही थी। एक ने अखण्ड विश्वास से कहा, “जितना दिख रहा है, वही सब संसार है। हम इसी में से एक बार जन्म लेते हैं, और फिर मरकर इसी में मिल जाते हैं। न कोई और विश्व है, न कहीं और जीवन।”

“हाँ, रोज़ मीलों चलते हैं, दबाव में काम करते हैं, अपने-अपने दायित्व की पूर्ति करते हैं, और फिर वक़्त आने पर यह ज़िम्मेदारी नई पीढ़ी को सौंपकर विदा ले लेते हैं” एक संतोषी-मुख ने कहा।


“लेकिन, ऐसा भी तो हो सकता है कि हमारे संसार के जैसे और भी हों, शायद एक दो, … या फिर, हज़ारों-लाखों ... कौन जाने?” किसी ने संशय व्यक्त किया।


“अरे, ये सब उन मूर्ख आस्तिकों की चोंचलेबाज़ी है। जो दिख रहा है उस पर विश्वास नहीं, चले हैं दूसरे ब्रह्माण्ड बनाने।” दुखी चेहरे वाले बुज़ुर्ग झुंझलाने लगे।


एक प्रसन्नमना युवती ने एक उत्साही युवक को इंगित करते हुए कहा, “लेकिन ये तो दावे के साथ कह रहे हैं कि हमारे संसार के जैसे संसार और भी हैं।”


सबकी दृष्टि उस ओजस्वी युवक की ओर गई। किसी ने भी उसे पहले नहीं देखा था। अफ़वाहें थीं कि कुछ नए बाहरी लोग किसी तरह घुस आये हैं। लेकिन तर्क इसकी गवाही नहीं देता। आज तक इस संसार में हम सब एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। बाहरी कुछ आता है तो वह इतना अलग होता है कि तंत्र उसे पहचानकर जल्दी ही नष्ट कर देता है। परंतु यह आगंतुक तो बिल्कुल हमारे ही जैसा है, रत्ती भर भी अंतर नहीं।


“हाँ, मेरा संसार दूसरा था। न जाने क्या हुआ कि हम में से कुछ लोग अपनों से बिछड़कर अचानक यहाँ आप लोगों के बीच आ गये। अच्छी बात यही है कि यह संसार भी हमारे जैसा ही है, वरना उलझन होती ...” ओजस्वी युवक ने आराम से कहा।


“बकवास बंद करो। तंग आ गया हूँ युवा पीढ़ी की कल्पनाशीलता देखकर। जब देखो ख्याली पुलाव पकाते रहते हैं, … एलियन, टाइम ट्रैवल, और न जाने क्या-क्या” दुखी चेहरे वाले बुज़ुर्ग क्रोधित थे।


भीड़-भड़क्का देखकर एक युवा दस्ता इस ओर बढ़ा। वे सब के सब नये थे, और इस युवक जैसे ही तेजस्वी भी। उन्होंने युवक की बात की पुष्टि करते हुए बताया कि वे सब एक साथ यहाँ पहुँचे हैं।

भीड़ ने उनका विश्वास नहीं किया। डॉक्टरों द्वारा एक भिन्न शरीर से निकालकर इस नये शरीर में पहुँचाई गयी नई रक्त कोशिकाएँ तो बेचारी खुद ही रक्तदान का रहस्य समझ नहीं सकी थीं, अन्य कोशिकाओं को कैसे समझातीं?   

Anurag Sharma

Saturday, February 22, 2020

कुआँ और खाई - कविता

पिट्सबर्ग आजकल
(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)

जब गले पड़ें
दो मुसीबतें
जिनमें से एक
अनिवार्यतः अपनानी है।

तब एक पल
ठहरकर
सोच-समझकर
तुक भिड़ानी है।

खाई में जान
निश्चित ही जानी है
जबकि
कुएँ में पानी है।

खाई की गर्त
नामालूम
कुएँ की गहराई
तो पहचानी है।

खाई में कौन मिलेगा
किसको सुनाएँ
जबकि कुएँ से पुकार
बस्ती तक पहुँच जानी है।

मौत का तो भी अगर
दिन रहा मुकर्रर
व्यर्थ बिखरने से अच्छी
जल समाधि अपनानी है

Saturday, February 8, 2020

विभाजन - एक ग़ज़ल

कथा तुमने लिखी अपनी, मगर किस्सा हमारा था
किताबों पर नहीं दिल में भी, मेरे घर तुम्हारा था।

हमारी बात सुनने का, कभी न वक्त तुम पर था
सदायें लौटकर आईं, तुम्हें जब-जब पुकारा था।

आज़ादी तुमने चाही थी, सदा तुमको मिली भी थी
मगर मुझको मिले मुक्ति, नहीं तुमको गवारा था।

हमारा घर बचा रहता, जो संग-संग तुम चले होते
जब भी तुमने तोड़ा घर, तो मैंने फिर सँवारा था।

दीवारें ढह गईं सारी, धरातल भी हुआ अस्थिर
उड़ा जब तिनकों में छप्पर, बड़ा बेढब नज़ारा था॥