Saturday, January 23, 2010

आत्महत्या क्यों?

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥


ईशोपनिषद के इस वचन में आत्महनन करने वालों के गहन अन्धकार में जाने की बात कही गयी है। संस्कृत में लिखे भारतीय ग्रन्थ काव्य के प्राचीनतम सौन्दर्य का अद्वितीय उदाहरण हैं। (संस्कृत, संस्कृति, सुसंस्कृत)

अब काव्य है तो प्रतीक भी होंगे और अर्थ गूढ़ होने के कारण उसके हाथ से फिसल जाने का ख़तरा भी बना रहता है। हमारे एक गुरुजी विनोद में कहा करते थे कि हज़ारों साल बाद यदि कोई दूर का इतिहासकार किसी बेईमान के बारे में यह शिकायत पढेगा कि "वह मेरा पैसा खा गया" तो वह उसका यही अर्थ निकालेगा कि भारतीय समाज इतना पिछड़ा था कि धन के रूप में रोटी को इस्तेमाल करता था। हज़ारों वर्ष पीछे छूटे हुए एक रहस्यमय समाज को एक अनजान भाषा के सहारे ढूँढने की कोशिश आसान नहीं है। खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने आधुनिकता की धारा में बहकर अपने को परम्परा से पूरी तरह काट लिया हो। करेला तब नीम चढ़ जाता है जब हम हर भारतीय चीज़ को यूरोपीय चश्मे से देखने लगते हैं। इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि वह चश्मा मैक्समुलर का है या कार्ल मार्क्स का। यहाँ तक भी ठीक है मगर जब हम पहले से निकाले गए एक झूठे निष्कर्ष का प्रचार करने को बैठे हों तब तो कोढ़ में खाज ही समझो।

पिछले दिनों में हिन्दी ब्लॉग में प्राचीन संस्कृति के रहस्य ढूँढने का प्रयास शुरू हुआ है और इसके साथ ही उसे ऐसी विचारधाराओं द्वारा हाइजैक करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं जो न तो इस भूमि पर पनपीं और न ही उनमें अपने से इतर विचारधाराओं को जांचने परखने की सहिष्णुता या धैर्य है। याद दिलाना चाहूंगा कि विचारधाराएँ ज्ञान, सत्य, उपयोगिता आदि पर टिकती हैं असत्य प्रचार और स्वार्थ पर नहीं। इसीलिये अंततः वही सत्य जीता है जिसमें और बेहतर सत्य पैदा करने की क्षमता होती है (असतो मा सद्गमय और चरैवेति चरैवेति)। मेरा यह स्पष्ट विचार है कि सत्य को एक परम पवित्र और सर्वकाल-सम्पूर्ण किताब या मैनिफेस्टो में बाँधने का प्रयास दरअसल सत्य की ह्त्या करने की कोशिश ही है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी किताबें पढ़कर सांख्य दर्शन के बारे में सत्य जानना उतना आसान नहीं है जितना सांख्य को उसके दार्शनिकों जैसे जीकर और उन्हीं की भाषा में पढ़कर जाना जा सकता है।

काफी कुछ लिखना है परन्तु समय नहीं है। अगले कुछ सप्ताह तक भी काफी व्यस्त रहूँगा मगर इस पोस्ट को मैं आगे की कुछ पोस्ट की भूमिका मान सकता हूँ। हाँ इस बीच में आत्महत्या के बारे में किसी की एक पोस्ट "आत्महत्या करने से बेहतर हैं लड़ कर मरो" पढी। बचपन में मैं भी कुछ-कुछ वैसा ही सोचता था जैसा उन्होंने लिखा है मगर आज मैं अपने अनुभवों और मनन से यह भली प्रकार जानता हूँ कि आत्महत्या के बारे में मनुष्य तभी सोचता है जब वह जीवन से हार चुकता है। लड़ने के लिए भी जिजीविषा चाहिए. जिसमें वह नहीं है, भले ही एक क्षण के लिए, वह भला कैसे लड़ मरेगा? आत्महत्या के बारे में इतना और कहना चाहूंगा कि आत्महत्या करने वाले की तुलना डूबते हुए उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसे तैरना नहीं आता है मगर रहना जल के बीच ही पड़ता है। इन लोगों को बचाने के लिए दूसरों की सहायता की ज़रुरत तो है ही, बचाने के बाद इन्हें तैरना भी सिखाना पडेगा। मतलब यह कि जीवन जीने की कला सिखाना ज़रूरी है, घर में हो, मंदिरों में या विद्यालय में।

ईशोपनिषद का उपरोक्त श्लोक भी उस पोस्ट की वजह से ही याद आया था। बीच में थोड़ा विषय-परिवर्तन हो गया मगर वह भी शायद ज़रूरी था।

और हाँ, पूर्व में कुछ मित्रों ने "पतझड़ सावन वसंत बहार" के बारे में पूछताछ की थी. यह पुस्तक 19वें विश्व पुस्तक मेला के दौरान प्रगति मैदान, नई दिल्ली में 30 जनवरी 2010 से 7 फरवरी 2010 तक, हिन्द-युग्म के स्टॉल नं॰- 285 (हॉल नं॰ 12A) पर उपलब्ध है।

Tuesday, January 12, 2010

सत्य के टुकड़े

निर्मल आनंद वाले भाई अभय तिवारी कम लिखते हैं मगर जो भी लिखते हैं उसमें दम होता है. हमारी तो उनसे अक्सर असहमति ही रहती है मगर एक विचारवान मौलिक चिन्तक से असहमत होने में भी मज़ा आता है. निर्मल आनंद उन कुछ ब्लोग्स में से है जिन्हें मैं नियमित पढता हूँ. हाँ, टिप्पणी कम करता हूँ असहमति को अपने तक ही रखने के उद्देश्य से. अभी उनकी कविता बँटा हुआ सत्य पढी और उसके विचार ने ही इस कविता को जन्म दिया. कई बार कुछ पढ़कर पूरक विचार पर ध्यान जाता है. इसे भी उस कविता की पूरक कविता ही समझिये.
(अनुराग शर्मा)

सत्य पहले भी बँटा हुआ था
फर्क बस इतना था कि
तब टुकड़े जोड़कर सीने की
कोशिश होती थी
पञ्च परमेश्वर करता था
सत्यमेव जयते
पाँच अलग-अलग सत्य जोड़कर
विषम संख्या का विशेष महत्त्व था
ताकि सत्य को टांगा न जा सके
हंग पार्लियामेंट की सूली पर
सत्य के टुकड़े मिलाकर
निर्माण करते थे ऋषि
अपौरुषेय वेद का
टुकड़े मिलकर बना था
सत्य का षड-दर्शन
देवासुर में बँटा सत्य
एकत्र हुआ था
समुद्र मंथन के लिए
और उससे निकले थे
रत्न भांति-भांति के
सत्य
हमेशा टुकड़ों में रहता है
यही उसकी प्रवृत्ति है
मेरे टुकड़े में
अपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
तभी सत्य को पाओगे

Saturday, January 9, 2010

पीड़ित भी अपराधी भी [इस्पात नगरी से - २३]

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ब्लॉग जगत भी हमारे संसार का ही छोटा रूप है. हर तरह के लोग, हर तरह की नज़र. किसी को दुनिया की सारी कमियाँ अमेरिका से ही शुरू होती दिखती हैं जबकि किसी के लिए यौन-अपराध का मूल कारण कुछ नारियों के परिधान-चुनाव के सिवा कुछ नहीं है. ऐसे में मैं अपराध से सम्बंधित दो अमेरिकी पत्रों को आपके साथ बांटने का ख़तरा उठा रहा हूँ. पिछले हफ्ते केवल चार दिन के अंतराल में यहाँ अमेरिका में अपराध से सम्बंधित दो ऐसी रिपोर्टें देखने को मिलीं जो चौंकाती भी हैं और आँखें भी खोलती हैं. इन दोनों रिपोर्टों का उभयनिष्ठ तत्व बाल-अपराधी हैं.

न्याय विभाग के एक अध्ययन ने यह खुलासा किया है कि बाल सुधार गृहों में रहते हुए समय में लगभग १२% लोग यौन-शोषण के शिकार बनते हैं. इस अध्ययन में कुल १९५ सुधार ग्रहों के १३ से २१ वर्ष की आयु के ९१९८ निवासियों को शामिल किया गया था. इस रिपोर्ट के आने के बाद कुछ राज्यों ने अपने सुधार गृहों की स्वतंत्र जांच कराने का निर्णय लिया है.

न्याय विभाग की ही सन २००४ के आंकड़ों पर आधारित एक अन्य रिपोर्ट से एक खुलासा यह हुआ है कि बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन शोषण के मामलों में अपराध करने वाले ३६% लोग बच्चे (१८ वर्ष से कम वय) ही हैं. हालांकि हर आठ में सिर्फ एक ही बारह वर्ष से कम आयु का है. इन बाल यौन-अपराधियों में ९३% लड़के और सात प्रतिशत लडकियां हैं.

इस रिपोर्ट का कहना है कि बहुत से ऐसे अपराधों की शुरूआत उत्सुकतावश शुरू होती है और समुचित यौन-शिक्षा की सहायता से बच्चों को सही उम्र में सही गलत का भेद समझाकर इन गलतियों में कमी लाई जा सकती है. स्कूलों में यौन-शिक्षा पर पहले भी बहुत सी ब्लॉग-बहसें हो चुकी हैं. मेरा उद्देश्य उन्हें पुनरुज्जीवित करना नहीं है मगर असलियत से आँखें मूंदना भी गैर-जिम्मेदाराना ही है.
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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