Saturday, May 19, 2018

देवासुर संग्राम 10



व्यक्तिगत विकास और स्वतंत्रता - देव और असुर व्यवस्था का मूल अंतर


पिछली कड़ियों में हम देख चुके हैं कि देव दाता हैं, उल्लासप्रिय हैं, यज्ञकर्ता (मिलकर जनहितकार्य करने वाले) हैं। वे शाकाहारी और दयालु होने के साथ-साथ कल्पनाशील, प्रभावी वक्ता हैं। हम पहले ही यह भी देख चुके हैं कि असुर गतिमान, द्रव्यवान, और शक्तिशाली हैं। वे महान साम्राज्यों के स्वामी हैं। हमने यह भी देखा कि वरुण और रुद्र जैसे आरम्भिक देव असुर हैं। सुर-काल में असुर पहले से उपस्थित हैं, जबकि पूर्वकाल के सुर भी असुर हैं। इतने भर से यह बात तो स्पष्ट है कि सुरों का प्रादुर्भाव असुरों के बाद हुआ है। असुर सभ्यता विकसित हो चुकी है। नगर बस चुके हैं। सभ्यता आ चुकी है, लेकिन कठोर और क्रूर है। असुर व्यवस्था में एक सशक्त राज्य, शासन-प्रणाली, और वंशानुगत राजा उपस्थित हैं। और आसुरी व्यवस्था में वह असुरराज ही उनका ईश्वर है। वह असुर महान सबका समर्पण चाहता है। उसके कथन के विरुद्ध जाने वाले को जीने का अधिकार नहीं है।  यहाँ तक कि राज्य का भावी शासक, वर्तमान राजा हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भी नारायण में विश्वास व्यक्त करने के कारण मृत्युदण्ड का पात्र है। असुर साम्राज्य शक्तिशाली और क्रूर होते हुए भी भयभीत है। व्यवस्था द्वारा प्रमाणिक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य दैवी शक्ति में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों से उनकी आस्था खतरे में पड़ जाती है। वे ऐसे व्यक्तियों को ईशनिंदक मानकर उन्हें नष्ट करने को प्रतिबद्ध हैं, भले ही ऐसा कोई व्यक्ति उनकी अपनी संतति हो या उनका भविष्य का शासक ही हो। आस्था के मामले में असुर व्यवस्था नियंत्रणवादी और एकरूप है। किसी को उससे विचलित होने का अधिकार नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं है। धार्मिक असहिष्णुता आसुरी व्यवस्था के मूल लक्षणों में से एक है।

आस्था की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिरिक्त सुर-व्यवस्था में असुरों की तुलना में एक और बड़ा अन्तर आया है। जहाँ असुर व्यवस्था एकाधिकारवादी है, एक राजा और हद से हद उसके एकाध भाई-बंधु सेनापति के अलावा अन्य सभी एक-समान स्तर में रहकर शासन के सेवकमात्र रहने को अभिशप्त हैं, वहीं सुर व्यवस्था संघीय है। हर विभाग के लिये एक सक्षम देवता उपस्थित है। जल, वायु, बुद्धि, कला, धन, स्वास्थ्य, रक्षा, आदि, सभी के अपने-अपने विभाग हैं और अपने-अपने देवता। सभी के बीच समन्वय और सहयोग का दायित्व इंद्र का है। महत्वपूर्ण  होते हुये भी वे सबसे ख्यात नहीं हैं, न ही अन्य देवताओं के नियंत्रक ही।

इंद्र  देवताओं के संघ के अध्यक्ष हैं।  इंद्र का सिंहासन पाने के इच्छुकों के लिये निर्धारित तप की अर्हता है, जिसके पूर्ण होने पर कोई भी व्यक्ति स्वयं नया इंद्र बनने का प्रस्ताव रख सकता है। पौराणिक भाषा में कहें तो, इंद्र का सिंहासन 'डोलता' भी है। असुरराज के विपरीत इंद्र एक वंशानुगतशानुगत उत्तराधिकार नहीं बल्कि तप से अर्जित एक पद है जिस पर बैठने वाले एक दूसरे के रक्तसम्बंधी नहीं होते।

एकाधिकारवादी, असहिष्णु, और क्रूर विचारधाराएँ संसार में आज भी उपस्थित हैं जिनके मूल में आसुरी नियंत्रणवाद है। यह नियंत्रणवाद अपने विचारकों-पीरों-पैगम्बरों-किताबों के कूप-मण्डूकत्व के बाहर के वैविध्य को नष्ट कर देने को आतुर है, उसके लिये किसी भी सीम तक जा सकता है। लेकिन साथ दैवी उदारवाद, वैविध्य, सहिष्णुता और सहयोग, संस्कृति  की जिस उन्नत विचारधारा का वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में सुर-तंत्र के रूप में है, भारतीय मनीषियों, हमारे देवों के सर्वे भवंतु सुखिनः, और तमसो मा ज्योतिर्गमय की वही अवधारणा आज समस्त विश्व को विश्व बंधुत्व और लोकतंत्र की ओर निर्देशित कर रही है।

सुरराज वरुण के हाथ में पाश है, जबकि देवों के हाथ अभयमुद्रा में हैं - भय बनाम क्षमा - नश्वर मानव किसे चुनेंगे? सुरासुर का भेद समुद्र मंथन के समय स्पष्ट है। वह युद्ध के बाद मिल-बैठकर सहयोग से मार्ग निकालने का मार्ग है जिसमें बहुत सा हालाहल निकलने के बाद चौदह रत्न और फिर अमृत मिला है जो सुरों के पास है। सुर व्यवस्था अमृत व्यवस्था है। कितना भी संघर्ष हो, इसी में स्थायित्व है, यही टिकेगी।

[क्रमशः]

Tuesday, April 17, 2018

अक्षय तृतीया की शुभकामनाएँ

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांनश्च विभीषण:। 
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥

भारतीय परम्परा में वर्णित सात चिरंजीवियों में से एक भगवान परशुराम की गाथा अनंत विस्तार लिये हुए है। अनेक युगों तक, अनेक परतों में मानवता को प्रभावित करने वाली इस विभूति की चर्चा के लिये बहुत अधिक समय और समझ की आवश्यकता है। फिर भी अपनी सीमाओं को समझते हुए मेरा निवेदन आपके सामने है।

अदम्य जिजीविषा वाले भगवान परशुराम जैसे महानायक संसार में विरले ही हैं। गंगा-अवतरण की प्रसिद्धि वाले भागीरथ की ही तरह भगवान परशुराम द्वारा रामगंगा नदी और ब्रह्मपुत्र महानद के अवतरण जैसे असम्भव कार्य सिद्ध किये गये हैं। ब्रह्मकुण्ड (परशुराम कुण्ड) और लौहकुन्ड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का असम्भव कार्य परशुराम जी द्वारा सम्भव हुआ और इसीलिये इस दुर्जेय महानद को ब्रह्मपुत्र नाम मिला है। गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। इसके नाम में आया राम, उन्हीं का नाम है।

शिव का धनुष तोड़ने वाले रघुवंशी राम को वह वैसा ही अकेला दूसरा धनुष देकर उनकी वास्तविकता की जाँच करते हैं। वे ही यदुवंशी बलराम और रणछोड़ कृष्ण को कोंकण क्षेत्र में दिव्यास्त्रों का अभ्यास कराकर दुष्टों के अंत के लिये तैयार करते हैं। महाभारत के तीन दुर्जेय योद्धा उनकी शिक्षा, और उपकरणों से सुसज्जित हैं। इनमें जहाँ द्रोण जैसे अविजित गुरु हैं वहीं गांगेय भीष्म भी हैं जिनका श्राद्ध आज भी संसार भर के ब्राह्मण पूर्ण निष्ठा के साथ करते हैं।

अगस्त्य मुनि द्वारा विन्ध्याचल को झुकाने और समुद्र को सोखने जैसे कार्यों के समानांतर, परशुप्रयोग द्वारा पूरे पश्चिमीघाट के परशुरामक्षेत्र के दुर्गम क्षेत्र को मानव-निवास योग्य बनाने जैसे अद्वितीय कार्यों का श्रेय भगवान परशुराम को ही जाता है। परशुराम ने परशु (कुल्हाड़ी) का प्रयोग करके जंगलों को मानव बस्तियों में बदला। मान्यता है कि भारत के अधिकांश ग्राम परशुराम जी द्वारा ही स्थापित हैं। राज्य के दमन को समाप्त करके जनतांत्रिक ग्राम-व्यवस्था के उदय की सोच उन्हीं की दिखती है। उनके इसी पुण्यकार्य के सम्मान में भारत के अनेक ग्रामों के बाहर ब्रह्मदेव का स्थान पूजने की परम्परा है। यह भी मान्यता है कि परशुराम ने ही पहली बार पश्चिमी घाट की कुछ जातियों को सुसंस्कृत करके उन्हें सभ्य समाज में स्वीकृति दिलाई थी। कोंकण क्षेत्र का विशाल सह्याद्रि वन क्षेत्र उनके वृक्षारोपण द्वारा लगाया हुआ है। कर्नाटक के सात मुक्ति स्थल और केरल के 108 मंदिर उनके द्वारा स्थापित माने जाते हैं। साम्यवादी केरल में परशुराम एक्सप्रेस का चलना किसी आश्चर्य से कम नहीं है।

संसार की सभी समरकलाओं की माता कलरिपयट्टु के प्रथम गुरु भगवान परशुराम की महिमा अनंत है। सामान्य भारतीय मान्यताओं के अनुसार वे दशावतारों में से एक हैं। उनकी महानता किसी भी संदेह से परे है। लेकिन इन सब बातों से आगे, भगवान परशुराम के जन्मदिन वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय दिवस के रूप में मनाकर यह मानना कि उस दिन किये सत्कार्य अक्षय फल देने वाले हैं, एक कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा अपने प्रथम क्रांतिकारी के सम्मान का अनोखा उदाहरण है।

जूडो, कराते, तायक्वांडो, ताई-ची आदि कलाएँ सीखने वाले अनेक भारतीयों ने कलरिपयट्टु का नाम भी नहीं सुना हो, तो आश्चर्य नहीं। भगवान् परशुराम को कलरि (समरकला प्रशिक्षण शाला/केंद्र) का आदिगुरू मानने वाले केरल के नायर समुदाय ने अभी भी इस कला को सम्भाला हुआ है।

बौद्ध भिक्षुओं ने जब भारत के उत्तर और पूर्व के सुदूर देशों में जाना आरंभ किया तो वहाँ के हिंसक प्राणियों के सामने इन अहिंसकों का जीवित बचना असंभव सा था और तब उन्होंने परशुराम-प्रदत्त समर-कलाओं को न केवल अपनाया बल्कि वे जहाँ-जहाँ गए, वहाँ स्थानीय सहयोग से उनका विकास भी किया। और इस तरह कलरिपयट्टु ने आगे चलकर कुंग-फू से लेकर जू-जित्सू तक विभिन्न कलाओं को जन्म दिया। इन दुर्गम देशों में बुद्ध का सन्देश पहुँचाने वाले मुनिगण परशुराम की सामरिक कलाओं की बदौलत ही जीवित, और स्वस्थ रहे, और अपने उद्देश्य में सफल भी हुये।

कलरि के साधक निहत्थे युद्ध के साथ-साथ लाठी, तलवार, गदा और कटार उरमि की कला में भी निपुण होते हैं। उरमि इस्पात की पत्ती से इस प्रकार बनी होती है कि उसे धोती के ऊपर कमर-पट्टे (belt) की तरह बाँधा जा सकता है। कई लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होता है कि लक्ष्मण जी ने विद्युत्जिह्व दुष्टबुद्धि नामक असुर की पत्नी श्रीमती मीनाक्षी उर्फ़ शूर्पनखा के नाक कान एक ही बार में कैसे काट लिए। लचकदार कटारी उरमि से यह संभव है।

भारतीय संस्कृति आशा और विश्वास की संस्कृति है। भगवान के विश्वरूप, सभी प्राणियों के वैश्विक परिवार, आदि जैसी धारणाएँ तो हैं ही, हमें संसार में व्याप्त बुराइयों की जानकारी देते हुए साहसपूर्वक उनका सामना करने के निर्देश और सफल उदाहरण भी हमारे सामने हैं। तानाशाह हिरण्यकशिपु द्वारा अपने ही पुत्र, भक्त प्रह्लाद की हत्या के प्रयास हों, या यदुराज कंस द्वारा अपने भांजे भगवान कृष्ण को नष्ट करने की कामना जैसी दुर्भावनाएँ, सबका सुखद अंत हुआ है। और ऐसे सभी अवसर हमारे लिये प्रेरणादायक पर्व बनकर सामने आये हैं। आश्चर्य नहीं कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में श्रीमद्भग्वद्गीता और रामचरितमानस जैसी कृतियों ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाय काहि मद नाहीं॥

रामचरितमानस में वर्णित उपरोक्त वचन बल के मद को स्पष्ट कर रहा है। सत्ताधारियों का अहंकार में पागल हो जाना एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया लगती है। यद्यपि, इस विषय में मेरा व्यक्तिगत मत तनिक हटकर है। मुझे लगता है कि किसी निर्बल खलनायक के पास जब शक्ति आ जाती है तब उसकी बुराई का प्रभावक्षेत्र बढ़ जाता है और इसलिये हमें यह भ्रम होता है कि बल ने उसे बुरा बना दिया, जबकि वह बुरा पहले से ही था। कारण इन दोनों में से जो भी हो, इन परिस्थितियों में बुराई का सामना करना अवश्यंभावी हो जाता है। ‘असतो मा सद्गमय’ तथा ‘सत्यमेव जयते’ जैसे बोधवाक्यों से निर्मल हुए भारतीय जनमानस के सामने अन्याय के विरोध के लिये कोई दुविधा नहीं है। खल कितना भी सशक्त हो, हम कितने भी सामान्य और भंगुर हों - रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।

भगवान परशुराम की बात को आगे ले जाने से पहले एक दृष्टि यदि 1857 के स्वाधीनता संग्राम पर डालें तो ध्यान आयेगा कि जिस मुग़ल साम्राज्य के आगे बड़े-बड़े भारतीय वीर ध्वस्त हो चुके थे और क्रूर अपराधियों के सबसे बड़े जिस गिरोह, ईस्ट इंडिया कम्पनी का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, उन दोनों का अंत एक सिपाही मंगल पाण्डेय की गोली से हो गया। कालचक्र को कुछ और पीछे घुमाएँ, तो वानर-भालुओं की सहायता से भीमकाय नरभक्षी राक्षसों को धूल-धूसरित करते मर्यादा पुरुषोत्तम राम की लंकाविजय याद आती है। इन दोनों कालों के बीच किसी स्थान पर गुरु गोविंद सिंह का ख्यात कथन, ‘चिड़ियन से मैं बाज़ तुड़ाऊँ’ याद आयेगा। और अगर उन्हें ध्यान में रखते हुए सनातन परम्परा में और पीछे जायें तो प्रथम नृसिंह भगवान से लेकर आज तक अनवरत जारी ‘सिंह’ परम्परा पर ध्यान जाता है।

लम्बे समय से क्षत्रिय जाति समाज की रक्षा को अपना कर्तव्य समझकर जीती रही है। वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के बाद का एक लम्बा काल उन्नति और विकास का रहा है। लेकिन इस स्वर्णिम युग से पहले के संधिकाल से भी पहले (दुर्भाग्य से, बाद में भी) बहुत कुछ हुआ है। सत्ताधारियों ने भरपूर बेशर्मी से अनेक कुकृत्य किये हैं, निर्बल को सताया है। समुद्र-मंथन से पहले के हालाहल के बारे में ग्रंथों में आवश्यक जानकारी है। लेकिन उपलब्ध जानकारी के आधार पर सटीक निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया में जितने बंधनों की आवश्यकता है, उनमें कमी रही है। इसके लिये जिस वैश्विक दृष्टि की, जिस ज्ञान-विस्तार की आवश्यकता है, उसके समन्वय में हम छोटे पड़े हैं। अनंता वै वेदा की परिकल्पना को ध्यान में रखते हुए ज्ञान को तथाकथित ‘आधुनिक’ और ‘प्राचीन’, ‘भारतीय’ और ‘विदेशी’, या मेरे-तेरे जैसे खांचों में बाँटकर हमने पहले ही अपना बहुत अहित किया है। समन्वयी दृष्टि रखने वाले हमारे पूर्वज भारतीय उपमहाद्वीप से कहीं बड़े भूखण्ड को तब सभ्य कर चुके थे, जब अधिकांश संसार लगभग पशुवत था। फिर आज हम अपने-अपने पाकिस्तान बनाने में क्यों लगे हैं, इस महत्वपूर्ण प्रश्न को पाठकों के विचारार्थ छोड़ते हुए मैं भगवान परशुराम के विषय पर वापस आता हूँ।

अग्रत: चतुरो वेदा: पृष्‍ठत: सशरं धनु:, इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि।

भगवान परशुराम के बारे में कहे गये उपरोक्त श्लोक में उन्हें धनुष-बाणधारी, चारों वेदों के ज्ञाता, शाप और शर दोनों से ही दुष्टों का नाश करने वाले बताते हुए, ब्राह्मण और क्षत्रिय, दोनों के तेज से युक्त बताया गया है। बात सही है, उनके पिता ब्राह्मण हैं तो माँ क्षत्राणी हैं। भगवान परशुराम समस्त मानवता के अपने तो हैं ही वे क्षत्रियों के परिजन भी हैं।

परशुराम जी के वंश की बात विचारणीय है। विश्वामित्र के भांजे परशुराम का मातृवंश क्षत्रिय है। अत्याचार के विरुद्ध उनके संघर्ष को ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय का रूप देने वालों की नीयत पर शंका जायज़ है। क्षत्राणी रेणुका माँ के इस वीर ब्रह्मपुत्र को किसी एक जाति तक सीमित करना दुखद ही नहीं एक प्रकार की कृतघ्नता है। जब हम अपनी व्यक्तिगत विचारधारा या सोच को अपने देश, परिवेश, परम्परा, या राष्ट्रनायकों पर थोपने लगते हैं तो हम एक नैतिक अपराध कर रहे होते हैं। हम खुद भी इससे बचें और दूसरों को भी टोकें तो बेहतर होगा।

यद्यपि आजकल विभिन्न गोत्रों, क्षेत्रों, व उपजातियों के कई ब्राह्मणों द्वारा अपने को किसी अन्य ऋषि की तुलना में सीधे भगवान परशुराम से जोड़ने की प्रवृत्ति देखने में आ रही है, जिसके अपने तर्कसंगत कारण हैं, तो भी ब्राह्मणों के बहुमत के लिये समस्त ऋषिगण, सभी अवतार एवम् अन्य सभी सिद्धपुरुष सम्माननीय हैं। एक सामान्य ब्राह्मण के लिये ‘परशुराम मेरे और रघुवंशी राम तेरे’ जैसे भेद के लिये कोई स्थान नहीं है, न ही किसी अन्य व्यक्ति के लिये होना चाहिये। यह अकाट्य तथ्य है कि संसार भर की पितृकुल और मातृकुल जैसी परम्पराओं के विपरीत ब्राह्मण वर्ण का विकास गुरुकुल परम्परा से हुआ है और आनुवंशिक रूप से वे भारत के किसी भी अन्य पंथ, जाति, वर्ण, या समुदाय से अधिक असम और वैविध्यपूर्ण हैं। बात चली है तो यह भी याद दिलाता चलूँ कि ब्राहमणों में एकता के अभाव से दुखी होने वाले व्यक्ति ब्राह्मणत्व के इस मूल वैचारिक स्वरूप को ही नहीं समझते हैं कि ब्राह्मण एक जाति नहीं, एक विचार है। जाति के नाम पर सही-ग़लत का विचार छोड़कर एकमत हो जाने की बात करने वाले की असलियत ठीक वैसे ही पहचानी जा सकती है जैसे भगवान परशुराम ने अपना रुधिर अपने गुरु के पवित्र मुख पर गिरने देने वाले कर्ण द्वारा स्वयं को ब्राह्मण बताने के असत्य को पहचाना था।

जब दूसरों से यत्नपूर्वक छिपाकर रखे गये अपने-अपने गुप्त ज्ञान के आधार पर कबीले सशक्त हो रहे थे और अन्य कबीलों या समुदायों की तुलना में अपने समूह की उन्नति के लिये तथाकथित मालिकाना ज्ञान (प्रोप्राइटरी नॉलेज) को छिपाकर रखने की प्रवृत्ति का बोलबाला था, उस काल में शक्तिशाली कबीलों का विरोध सहते हुए, मारे जाकर भी, गुरुकुल बनाकर, ग्रंथ लिखकर, घर-घर जाकर उनका वाचन करके, जनहित में ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करते हुए सर्वस्व त्यागकर संसार नापना जिनके बस का था, वे ही ब्राह्मण थे। जनहित, परमार्थ, और ज्ञान-प्रसार की इस दैवी प्रवृत्ति और वृत्ति के कारण ही वे भूसुर थे, पूज्य थे। यह एक पैकेज्ड डील है, इसे टुकड़ों में नहीं बचाया जा सकता। बचाने की आवश्यकता क्या, कितनी, और किसे है, ये अलग प्रश्न हैं, जिनपर विस्तार से अन्यत्र चर्चा की जा सकती है।

श्रमण परम्पराओं से अलग, ब्राह्मण गुरुकुलों में पलती कामधेनु का विषय भारतीय परम्परा के उन रहस्यों में से है जिनके बारे में आज भी बहुत से भ्रम उपस्थित हैं। मेरी समझ में एक राजा की संतति/प्रजारूप स्थापित हो रहे बाहुबली कुनबों और कबीलों की राजेश्वरवादी, कठोर अनुशासन-केंद्रित और सामान्यतः दमनकारी परम्पराओं के विपरीत ऋषि समुदाय एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ‘कामधेनु’ व्यवस्था विकसित करने में लगा हुआ था जो गुरुकुल, ज्ञान, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित थी और अपने परिपक्व रूप में मानवमात्र की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम थी। गौ और कृषि निश्चित रूप से इस परम्परा के मूल में थे और यह बाद में व्यवस्थित हुई ग्रामीण-गोपालक सनातन परम्परा का बीजरूप थी। इस अहिंसक और शांत व्यवस्था को अनेक सशस्त्र विरोधों का सामना करना पड़ा लेकिन अंततः यही इस देश की आज तक जारी मूलभूत भारतीय पारम्परिक विशेषताओं की जननी है। बेशक, बाद में इन दोनों प्रणालियों के विलय के कारण राजवंशों के बीच गणराज्य, मंत्रिमण्डल, वर्णाश्रम आदि व्यवस्थाओं के साथ-साथ राजकुल और गुरुकुल के समन्वय और जनसमुदाय की समग्र उन्नति का स्वर्णकाल आया।

लेकिन भारतीय संस्कृति के स्वर्णकाल से पहले का समय संघर्ष का था। ऋषि जमदग्नि की हत्या से बहुत पहले ही ऋषियों पर अनाचार होने लगे थे। परशुराम की गर्भवती दादी पुलोमा को अपहृत कर इतना सताया गया था कि ऋषि च्यवन का समय-पूर्व प्रसव हुआ। इसी वंश के शुक्राचार्य के शिष्य कच को मारकर शुक्राचार्य को ही खिला देने जैसे कृत्य सत्ताधीशों और उनके गिरोहों द्वारा सामान्य होते जा रहे थे। सत्ता के मद में डूबे शासकों के निरंतर चल रहे अनाचार को रोकने के लिये भगवान परशुराम को शासकवर्ग के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के लिये खड़े होना पड़ा था। सहस्रबाहु द्वारा ऋषि जमदग्नि की हत्या इसका निमित्त बनी।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ, ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ (गीता 2/38)

सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय की आकांक्षा के बिना किया गया युद्ध पापहीन है। भगवान परशुराम का संघर्ष सम्पत्ति, राज्य, कामधेनु, या किसी अन्य सांसारिक कामना के लिये नहीं था। सत्यनिष्ठा के लिये सहस्रबाहु को जीतने के बाद उन्होंने, कुछ समय तक फिर-फिर लड़ने आते आतताइयों को अनेक बार पराजित किया। धरा पर शांति स्थापित करने के बाद उन्होंने हिंसा का प्रायश्चित करके जीती हुई समस्त भूमि दान करके स्वयं ही महेंद्र पर्वत पर देश निकाला लिया और समस्त राज्य कश्यप ऋषि के संरक्षण में विभिन्न क्षत्रिय कुलों को दिये। इस कृत्य की समता भगवान् राम द्वारा श्रीलंका जीतने के बावजूद विभीषण का राजतिलक करने में मिलती है। परशुराम द्वारा मारे गए राजपुरुषों के स्त्री-बच्चों के पालन-पोषण और समुचित शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न आश्रमों में की गयी और इन बाल-क्षत्रियों ने ही बड़े होकर अपने-अपने राज्य फिर से सम्भाले।

वाल्मीकि रामायण में भगवान् परशुराम श्रीरामचन्‍द्र से वार्ता करने के बाद विष्‍णु के धनुष पर प्रत्‍यंचा चढा कर संदेह निवारण का आग्रह करते हैं। शंका समाधान हो जाने पर विष्‍णु का धनुष राम को सौंप कर तपस्‍या हेतु चले जाते हैं। (इन तीन श्लोकों का सुन्दर हिन्दी अनुवाद श्री आनंद पाण्डेय का)

वधम् अप्रतिरूपं तु पितु: श्रुत्‍वा सुदारुणम्, क्षत्रम् उत्‍सादयं रोषात् जातं जातम् अनेकश: (1-75-24)

अर्थ: पिता के अत्‍यन्‍त भयानक वध को, जो कि उनके योग्‍य नहीं था, सुनकर मैने बारंबार उत्‍पन्‍न हुए क्षत्रियों का अनेक बार रोषपूर्वक संहार किया।

पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने, यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे (1-75-25)

अर्थ: हे राम। फिर सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैंने (एक यज्ञ किया) यज्ञ की समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान कर दिया।

दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:, श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत:।।1-75-26॥

अर्थ: (पृथ्‍वी को) देकर मैंने महेन्द्रपर्वत को निवासस्‍थान बनाया, वहाँ (तपस्‍या करके) तपबल से युक्‍त हुआ। धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से मैं शीघ्रता से आया हूँ।

भृगुवंशी परशुराम ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में एक साथ वर्णित हुए सीमित व्यक्तित्वों में से एक हैं। ऋग्वेद के दस आप्रीसूक्तों में से एक 10.110 उनका और उनके पिता जमदग्नि का संयुक्त है जिसमें वे  राम जामदग्नय के नाम से वर्णित है।


आप्रीसूक्त
ऋषि
गोत्र
1.13
मेधातिथि कण्व
कण्व
1.142
दीर्घतमा आंगिरस
आंगिरस
1.188
अगस्त्य मैत्रवरुणि
आगस्त्य
2.3
गृत्समद शौनहोत्र
शौनक
3.4
विश्वामित्र गाथिन
कौशिक
5.5
वसुश्रुत आत्रेय
आत्रेय
7.2
वसिष्ठ मैत्रवरुणि
वासिष्ठ
9.5
असित / देवल काश्यप
कश्यप
10.70
सुमित्रा वाध्र्यश्व
भरत
10.110
जमदग्नि भार्गव तथा राम जामदग्नय
भार्गव

ऋग्वेद – सूक्त 10.110 का वाचन, वैदिक हैरिटेज के सौजन्य से 
http://vedicheritage.gov.in/samhitas/rigveda/shakala-samhita/rigveda-shakala-samhita-mandal-10-sukta-110/

११ जमदग्निर्भार्गवः, जामदग्न्यो रामो वा। आप्रीसूक्तं = (१ इध्मः समिद्धोऽग्निर्वा, २ तनूनपात् , ३ इळ:, ४ बर्हिः, ५ देवीर्द्वारः, ६ उषासानक्ता, ७ दैव्यौ होतारौ प्रचेतसौ, ८ त्रिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः, ९ त्वष्टा, १० वनस्पतिः, ११ स्वाहाकृतयः)। त्रिष्टुप्।

समि॑द्धो अ॒द्य मनु॑षो दुरो॒णे दे॒वो दे॒वान्य॑जसि जातवेदः।
आ च॒ वह॑ मित्रमहश्चिकि॒त्वान्त्वं दू॒तः क॒विर॑सि॒ प्रचे॑ताः॥1॥

तनू॑नपात्प॒थ ऋ॒तस्य॒ याना॒न्मध्वा॑ सम॒ञ्जन्त्स्व॑दया सुजिह्व।
मन्मा॑नि धी॒भिरु॒त य॒ज्ञमृ॒न्धन्दे॑व॒त्रा च॑ कृणुह्यध्व॒रं न॑:॥2॥

आ॒जुह्वा॑न॒ ईड्यो॒ वन्द्य॒श्चा ऽऽया॑ह्यग्ने॒ वसु॑भिः स॒जोषा॑:।
त्वं दे॒वाना॑मसि यह्व॒ होता॒ स ए॑नान्यक्षीषि॒तो यजी॑यान्॥3॥

प्रा॒चीनं॑ ब॒र्हिः प्र॒दिशा॑ पृथि॒व्या वस्तो॑र॒स्या वृ॑ज्यत॒र अग्रे॒ अह्ना॑म्।
व्यु॑ प्रथते वित॒रं वरी॑यो दे॒वेभ्यो॒ अदि॑तये स्यो॒नम्॥4॥

व्यच॑स्वतीरुर्वि॒या वि श्र॑यन्तां॒ पति॑भ्यो॒ न जन॑य॒: शुम्भ॑मानाः।
देवी॑र्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा दे॒वेभ्यो॑ भवत सुप्राय॒णाः॥5॥

आ सु॒ष्वय॑न्ती यज॒ते उपा॑के उ॒षासा॒नक्ता॑ सदतां॒ नि योनौ॑।
दि॒व्ये योष॑णे बृह॒ती सु॑रु॒क्मे अधि॒ श्रियं॑ शुक्र॒पिशं॒ दधा॑ने॥6॥

दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा सु॒वाचा॒ मिमा॑ना य॒ज्ञं मनु॑षो॒ यज॑ध्यै।
प्र॒चो॒दय॑न्ता वि॒दथे॑षु का॒रू प्रा॒चीनं॒ ज्योति॑: प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑॥7॥

आ नो॑ य॒ज्ञं भार॑ती॒ तूय॑मे॒त्विळा॑ मनु॒ष्वदि॒ह चे॒तय॑न्ती।
ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स्यो॒नं सर॑स्वती॒ स्वप॑सः सदन्तु॥8॥

य इ॒मे द्यावा॑पृथि॒वी जनि॑त्री रू॒पैरपिं॑श॒द्भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
तम॒द्य हो॑तरिषि॒तो यजी॑यान्दे॒वं त्वष्टा॑रमि॒ह य॑क्षि वि॒द्वान्॥9॥

उ॒पाव॑सृज॒ त्मन्या॑ सम॒ञ्जन्दे॒वानां॒ पाथ॑ ऋतु॒था ह॒वींषि॑।
वन॒स्पति॑: शमि॒ता दे॒वो अ॒ग्निः स्वद॑न्तु ह॒व्यं मधु॑ना घृ॒तेन॑॥10॥

स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत्पुरो॒गाः।
अ॒स्य होतु॑: प्र॒दिश्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतं ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः॥11॥


और अब ...

परशुराम स्तुति

कुलाचला यस्य महीं द्विजेभ्यः प्रयच्छतः सोमदृषत्त्वमापुः।
बभूवुरुत्सर्गजलं समुद्राः स रैणुकेयः श्रियमातनीतु॥।1॥

नाशिष्यः किमभूद्भवः किपभवन्नापुत्रिणी रेणुका
नाभूद्विश्वमकार्मुकं किमिति यः प्रीणातु रामत्रपा।
विप्राणां प्रतिमंदिरं मणिगणोन्मिश्राणि दण्डाहतेर्नांब्धीनो
स मया यमोऽर्पि महिषेणाम्भांसि नोद्वाहितः॥2॥

पायाद्वो जमदग्निवंश तिलको वीरव्रतालंकृतो
रामो नाम मुनीश्वरो नृपवधे भास्वत्कुठारायुधः।
येनाशेषहताहिताङरुधिरैः सन्तर्पिताः पूर्वजा
भक्त्या चाश्वमखे समुद्रवसना भूर्हन्तकारीकृता॥3॥

द्वारे कल्पतरुं गृहे सुरगवीं चिन्तामणीनंगदे पीयूषं
सरसीषु विप्रवदने विद्याश्चस्रो दश॥
एव कर्तुमयं तपस्यति भृगोर्वंशावतंसो मुनिः
पायाद्वोऽखिलराजकक्षयकरो भूदेवभूषामणिः॥4॥

॥ इति परशुराम स्तुतिः॥

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Tuesday, February 13, 2018

कविता: चले गये ...

(अनुराग शर्मा)

अनजानी राह में
जीवन प्रवाह में
बहते चले गये

आपके प्रताप से
दूर अपने आप से
रहते चले गये

आप पे था वक़्त कम
किस्से खुद ही से हम
कहते चले गये

सहर की रही उम्मीद
बनते रहे शहीद
सहते चले गये

माया है यह संसार
न कोई सहारा यार
ढहते चले गये ...