Wednesday, July 7, 2010

सच मेरे यार हैं - कहानी भाग २

पिछले अंश में आपने देखा कि वर्षों के बाद फेसबुक तकनीक द्वारा मैने बचपन के मित्र को फिर से पाया।

अब आगे की कहानी ...

मैं दुविधा में था कि तुमसे मिलूँ कि बिना मिले ही वापस चला जाऊँ। जब ऑटो रिक्शा वाले ने पूछा, "कनाट प्लेस से चलूँ कि बहादुर शाह ज़फर मार्ग से?" तो दिमाग में बिजली सी कौंध गयी। क्या गज़ब का इत्तेफाक है। मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम्हारा दफ्तर संजय के घर के रास्ते में पड़ता है। तुम हमेशा कहती थीं कि आगरा चाहे किसी काम से जाओ, ताजमहल देखना भी एक ज़रूरी रस्म होती है। इसी तरह दिल्ली आ रहा हूँ तो तुमसे मिले बिना थोड़े ही जाऊंगा। पहले की बात और थी, अब तो तुम भी कुछ सहनशील ज़रूर हुई होगी। मुझे भी तुम्हारी उपेक्षा का दंश अब उतना नहीं चुभता है।

"बहादुर शाह ज़फर मार्ग से ही चलो। बल्कि मुझे वहीं जाना है" मैंने उल्लास से कहा।

ऑटो वाला ऊँची आवाज़ में बोला, "लेकिन आपने तो..."

"कोई नहीं! तुम्हारे पैसे पूरे ही मिलेंगे" मैंने उसकी बात बीच में ही काट दी।

उसने पूरा पता पूछा और मैंने अपने मन में हज़ारों बार दोहराया हुआ तुम्हारे दफ्तर का पता उगल दिया। एक प्रसिद्ध पत्रकार ने कहा था कि दिल्ली में एक विनम्र ऑटो रिक्शा ड्राइवर मिलने का मतलब है कि आपके पुण्यों की गठरी काफी भारी है। वह शीशे में देखकर मुस्कराया और कुछ ही देर में ही मैं तुम्हारे दफ्तर के बाहर था।

अरे यह चुगलीमारखाँ यहाँ क्या कर रहा है? जब तक मैं छिपने की जगह ढूंढता तब तक वह सामने ही आ गया।

"क्या हाल हैगा? यहाँ कैसे आना हुआ?"

"सुनील साहब! बस आपके दर्शन के लिये चले आये?"

"क्या काम पड़ गया? बिना मतलब कौन आता है?"

"..."

"शाम को मिलता हूँ। अभी तो ज़रा मैं निकल रहा था, जन्नल सैक्ट्री साहब आ रहे हैं न!"

इतना कहकर उसने अपना चेतक दौड़ा दिया। मेरी जान में जान आयी। अन्दर जाकर चपरासी से तुम्हारी जगह पूछी और उसने जिधर इशारा किया तुम ठीक वहीं दिखाई दीं।

ओ माय गौड! यह तुम ही हो? सेम सेम बट सो डिफरैंट! नाभिदर्शना साड़ी, बड़े-बड़े झुमके और तुम्हारे चेहरे पर पुते मेकअप को देखकर समझ आया कि तुम्हारा ज़िक्र आने पर राजा मुझे दिलासा देता हुआ हमेशा यह क्यों कहता था कि शुक्र मनाओ गुरु, बच गये। अजीब सा लगा। लग रहा था जैसे कार्यालय में नहीं, किसी शादी में आयी हुयी हो।

मैं जड़वत खड़ा था। भावनाओं का झंझावात सा चलने लगा। एक दिल कहने लगा, “देख लिया, तसल्ली हुई, अब चुपचाप यहाँ से निकल चलो।” दूसरा मन कहता था, “बस एक बार पूछ लो, तुम्हें अपनी ज़िन्दगी से झटककर खुश तो है न।”

मैं कुछ तय कर पाता, उससे पहले ही तुमने मुझे देख लिया। आश्चर्य और खुशी से तुम्हारा मुँह खुला का खुला रह गया। बिना बोले जिस तरह तुमने दोनों हाथों के इशारे से मुझे एक काल्पनिक रस्सी में लपेटकर अपनी ओर खींचा, वह अवर्णनीय है।

मैं मंत्रमुग्ध सा तुम्हारे सामने पडी कुर्सी पर बैठ गया। तुम्हारा दफ्तर काफी सुन्दर था। तुम्हारी सीट के पीछे पूरी दीवार पर शीशा लगा था। यूँ ही नज़र वहाँ पड़ी तो तुम्हारी पीठ दिखी। देखा कि तुम्हारे वस्त्र मेरी कल्पना से अधिक आधुनिक थे। इस नाते पीठ भी कुछ ज़्यादा ही खुली थी। लगभग उसी समय तुमने मेरी आँखों में आँखें डालकर देखा और कहा, “क्या देख रहे हो?” जैसे कोई चोरी पकड़ी गयी हो, मैंने अचकचाकर कहा, “कुछ भी तो नहीं, दफ्तर शानदार है।”

“हाँ!” तुमने हँसते हुए जवाब दिया, “मैने सोचा तुम्हें भी शीशे में अपना चेहरा देखने की आदत पड़ गयी। जो भी आता है, यहाँ बैठकर शीशा देखने लग जाता है। ... और सुनाओ, सब कैसा चल रहा है? तुम तो ऐसे गायब हुए कि फिर मिले ही नहीं।”

“गायब मैं नहीं तुम हुयी थीं” मैंने कहना चाहा मगर शब्द गले के अन्दर ही अटके रह गये, हज़ार कोशिश करने पर भी बाहर नहीं निकल सके।

[क्रमशः]

Thursday, June 24, 2010

सच मेरे यार हैं - कहानी भाग १

टिकिट, टिकिट, टिकिट... और कोई बगैर टिकिट... जल्दी-जल्दी करो... चेकिंग स्टाफ चढ़ेगा आगे से...बे कोई रियायत ना करै हैं ... हाँ भाई... दिल्ली वाले.... जे गठरी किसकी है? इसका टिकिट लगेगा...

कंडक्टर ने शोर मचा-मचा कर नाक में दम कर दिया था। तीन घंटे भी किसी सवारी को चैन से बैठने नहीं दिया बस में। तुम सुनतीं तो कहतीं कि मैंने ज़रूर उठकर उसको एक थप्पड़ जड़ा होगा। यही तो, मैंने कुछ नहीं किया। बहुत बदल गया हूँ मैं। वैसे भी जब तुम्हारे बारे में सोच रहा होता हूँ, तब मेरे आसपास का कुछ भी मुझे बुरा नहीं लगता है। कोई सुने तो आश्चर्य करेगा। दूर क्यों जाती हो, अभी की ही बात करो न! अब दिल्ली जा तो रहा हूँ संजय को मिलने, और सोच रहा हूँ तुम्हारे बारे में। मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं होता है। जब भी दिल्ली का ज़िक्र आता है, मेरी आँखों के सामने बस तुम्हारा चेहरा रह जाता है। मेरे लिए दिल्ली और तुम, एक ही हो। सारे रास्ते मेरे चेहरे पर जो मुस्कान ठहरी हुई है, वह भी तुम्हारे नाम की है। कौन कहता है कि एक स्त्री और पुरुष में सिर्फ विशुद्ध मैत्री नहीं रह सकती है। हम दोनों में तो हमेशा ही रही है।

कोई-कोई विद्वान कहते हैं कि दोस्ती भी दर-असल एक व्यवसाय जैसी ही होती है। जिस पक्ष को उससे लाभ मिलता है, वह उसे बढ़ाना चाहता है और जिसकी हानि हो वह उस सम्बन्ध को तोड़ना चाहता है। आखिर में वही दोस्ती टिकती है जिसमें या तो दोनों पक्षों का लाभ हो या फिर दोनों ही लाभ-हानि से ऊपर हों। क्या हमारे सम्बन्ध में ऐसा तत्व रहा है? तुम तो हमेशा ही मेरी उपेक्षा करती थीं। नहीं, हमेशा नहीं। जटिल है यह रिश्ता। फिर से सोचता हूँ। तुम अक्सर मेरी उपेक्षा करती थीं। लेकिन जब तुम किसी भी मुश्किल में होती थीं तब तुम्हें एक ही दोस्त याद आता था, मैं। और मैं, मैं तो शुरू से ही पागल हूँ। तुम्हारी हर बात मुझे अकारण ही अच्छी लगती थी। तुम्हारा साथ, तुम्हारी मुस्कान, तुम्हारा गुस्सा, सब कुछ। तुमने कितने काम सिर्फ इसलिए किये कि मुझे सता सको। लेकिन बात कभी बन न सकी।

याद है जब तुमने अपने दिल्ली तबादले की बात पर विमर्श करने के लिए मुझे अपने दफ्तर के बाहर बुलाया था। शाम का खाना भी हमने साथ ही खाया था। बारिश की रात में हम दोनों भीगते हुए टाउन हाल तक आये थे। उस समय तक तुम काफी खुश दिखने लगी थीं। टैक्सी के इंतज़ार में हम दोनों टाउन हाल के बाहर खुले आकाश के नीचे खड़े थे। तुम्हें घर जाने में देर हो गयी थी। बात करते-करते तुम शायद मुझे चिढ़ाने के लिए वह किस्सा दसवीं बार सुनाने लगीं जब बस में मिला एक अनजान खूबसूरत नौजवान तुम्हारी हाथ की रेखाएँ देखकर तुम्हारे बारे में बहुत से अच्छी-अच्छी बातें बताने लगा था। तुमने अपना हाथ मेरी तरफ बढाते हुए कहा था, "मैंने सुना है तुम बहुत अच्छा हाथ देखते हो, ज़रा कुछ बताओ न!" मैं उस दिन काफी उलझन में था। जल्दी घर पहुँचना ज़रूरी था। मगर रात में तुम्हें अकेला छोड़कर नहीं जा सकता था। तब तुम जैसी नाज़ुक थीं, देर तक बारिश में खड़े रहने पर तुम्हारे भीग कर बीमार पड़ जाने का डर भी था। तुम्हारी बात सुनते-सुनते ही मैंने बस इतना ही कहा था, "टैक्सी नहीं दिखती है तो आगे चलकर बस ही ले लेते हैं।"


और तुमने अचानक ही अपना बढाया हुआ हाथ एक झटके से पीछे खींचकर गुस्से में कहा, "हाँ जा रही हूँ। और इस शहर से भी जा रही हूँ यह तबादला लेकर। यही चाहते हो न? मैं कुछ कह रही हूँ और तुम कुछ और..." और कुछ कदम आगे ही बने बस स्टॉप पर अभी रुकी बस में गंतव्य जाने बिना ही चढ़ गयी थीं। एकबारगी दिल किया था कि अभी हाथ पकड़कर उतार लूँ। मगर फिर यही भय लगा कि तुम झगडा कर के भीड़ के सामने कोई दृश्य न उत्पन्न कर दो। मैं भी बहुत परिपक्व कहाँ था तब। बस के आँख से ओझल हो जाने तक वहाँ खड़ा देखता रहा। शायद बाद में भी काफी देर तक खड़ा रहा था। फिर मरे हुए क़दमों से घर वापस आया तो रूममेट से पता लगा कि सीमा पर तैनात बड़े भैया का संदेशा लेकर उनके जिस दोस्त को आना था वह आकर, काफी देर तक इंतज़ार करके चला भी गया था।

वह दिन और आज का दिन, हम लोग फिर कभी नहीं मिले। सुना था कि तुम दिल्ली में खुश थीं। कभी पीछे जाकर देखता था तो समझ नहीं पाता था कि हमारा यह रिश्ता इतना एकतरफा क्यों था। कभी-कभी सोचता था कि मुझसे झगड़ा करने के बाद तुम अपनी परेशानियाँ किसके साथ बाँटती होगी। फिर यह भी ध्यान आता था कि मेरी तुम्हारी दोस्ती तो बहुत पुरानी भी नहीं थी। हम सिर्फ दो साल के ही परिचित थे। ज़ाहिर है कि मेरे बिना भी तुम्हारा संसार काफी विस्तृत रहा होगा। मुझसे पहले भी तुम्हारे मित्र रहे होंगे और मेरे बाद भी। तुम्हारा दिल्ली का पता और फोन नंबर आदि सब कुछ दोस्तों ने बातों-बातों में उपलब्ध करा दिया था। कभी दिल में आता था कि पूछूँ, आखिर इतना गुस्सा क्यों हो गयी थीं उस दिन मुझसे। उभयनिष्ठ संपर्कों द्वारा तुम्हारी खबर मिलती रहती थी। एक दिन सुना कि तुम्हारे माता-पिता ने अच्छा सा रिश्ता ढूंढकर वहीं तुम्हारी शादी भी कर दी थी और अब तुम अपनी घर गृहस्थी में मगन हो।

जैसे तुम खोयीं वैसे ही संजय भी ज़िंदगी के मेले में कहीं मेरे हाथ से छूट गया था। तुम उसे नहीं जानतीं इसलिये बता रहा हूं कि वह तो मेरा तुम से भी पुराना दोस्त था। छठी कक्षा से बीएससी तक हम दोनों साथ पढ़े थे। बीएससी प्रथम वर्ष करते हुए उसे आईआईटी में प्रवेश मिल गया था और वह कानपुर चला गया था जबकि मैंने बीएससी पूरी करके तुम्हारे साथ नौकरी शुरू कर दी। ठीक है बाबा, साथ नहीं, एक ही विभाग में परन्तु शहर के दूसरे सिरे पर। मेरे लिये नौकरी करना बहुत ज़रूरी था।

संजय दिल का बहुत साफ़ था। थोड़ा अंतर्मुखी था इसलिए सबको पसंद नहीं आता था, मगर था हीरा। न जाने कितनी अच्छी आदतें मैंने उससे ही सीखी हैं। मुझे अभी भी याद है जब भारत ने अपना पहला उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा था तो हम सब कितने नाराज़ थे कि एक निर्धन देश की सरकार किसानों की ओर ध्यान देने के बजाय वैज्ञानिक खेल खेल रही है। सिर्फ संजय था जिसने गर्व से सीना फुलाकर कहा था, महान देश को महान काम भी करने होंगे, हमारे अपने उपग्रह हों तो खेती, जंगल, किसान, बाढ़, शिक्षा सभी की स्थिति सुधरेगी। इसी तरह बाद में कम्प्युटर आने पर बेरोजगारी की आशंका से डराते छात्र संघियों को उसने शान्ति से कहा था, "देखना, एक दिन यही कम्प्युटर हम भारतीयों को दुनिया भर में रोज़गार दिलाएंगे।" स्कूल-कॉलेज में हिंसा आम थी मगर मैंने उसे कभी किसी से लड़ते हुए नहीं देखा । वह अपनी बात बड़ी शान्ति से कहता था। कभी-कभी नहीं भी कहता था। चुपचाप उठकर चला जाता था। विशेषकर जब यार दोस्त लड़कियों पर टीका टिप्पणी कर रहे होते थे।

पिछ्ले कई साल से हमें एक दूसरे के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। भला हो फेसबुक तकनीक का कि मैने उसे देखा। वैसे तो संजय सक्सेना नाम उस पीढ़ी में बहुत ही प्रचलित था मगर फिर भी फेसबुक पर उसके चित्र और व्यक्तिगत जानकारी से यह स्पष्ट था कि मेरा खोया हुआ मित्र मुझे मिल गया था। मैंने उसे सन्देश भेजा, और फिर फोन पर बात भी हुई। मैंने उसके अगले जन्म दिन पर मिलने का वायदा किया। आज उसका जन्म दिन है। और मेरा भी।

[क्रमशः]

Tuesday, June 22, 2010

ग्राहक मेरा देवता [इस्पात नगरी से - 25]

जब मैं पहली बार अमेरिका आया तो नयी जगह पर सब कुछ नया सा लगा। मेरे एक सहकर्मी बॉब ने मुझे बहुत सहायता की। उनकी सहायता से ही मैंने पहला अपार्टमेन्ट ढूँढा और उन्होंने ही अपनी कार से मुझे एक स्टोर से दूसरे स्टोर तक ले जाकर सारा ज़रूरी सामान और फर्नीचर खरीदने में मदद की। हम लोग हर शाम को दफ्तर से सीधे बाज़ार जाते और जितना सामान उनकी कार में फिट हो जाता ले आते थे।

एक दिन मैं उनके साथ जाकर परदे और चादरें आदि लेकर आया। बहुत सारे पैकेट थे। घर आकर जब समान देखना शुरू किया तो पाया कि बेडशीट का एक पैकेट नहीं था। जब रसीद चेक की तो पाया कि भुगतान में वह पैकेट भी जोड़ा गया था मगर किसी तरह मेरे पास नहीं आया। मुझे ध्यान आया कि सेल्सगर्ल मेरा भुगतान कराने के बीच में कई बार फ़ोन भी अटेंड कर रही थी। हो न हो उसी में उसका ध्यान बंटा होगा और वह भूल कर बैठी होगी। मैंने रसीद पर छपे फ़ोन नंबर से स्टोर को फ़ोन किया। सारी बात बताई तो स्टोर प्रतिनिधि ने स्टोर में आकर अपना छूटा हुआ पैकेट ले जाने को कहा। अगले दिन मैं फिर से बॉब के साथ वहाँ गया। स्टोर प्रतिनिधि ने मेरा पैकेट देने के बजाय मुझे स्टोर में जाकर वैसी ही दूसरी बेडशीट लाने को कहा। मैं ले आया तो उसने क्षमा मांगते हुए उसे पैक करके मुझे दे दिया।

मैं अमरीकी व्यवसायी की इस ग्राहक-सेवा से अति-प्रसन्न हुआ और हम दोनों राजी खुशी वापस आ गए। भारत में अगर किसी कमी की वजह से भी बदलना पड़ता तो भी वह कभी आसान अनुभव नहीं था, गलती से दूकान में ही छूट गए सामान का तो कहना ही क्या।

मगर बात यहाँ पर ख़त्म नहीं हुई। करीब सात-आठ महीने बाद बॉब ने एक नयी कार ख़रीदी और अपनी पुरानी कार को ट्रेड-इन किया। जब उसने पुरानी कार देने से पहले उसके ट्रंक में से अपना सामान निकाला तो पाया कि मेरा खोया हुआ बेडशीट का पैकेट उसमें पड़ा था। मतलब यह कि स्टोर ने पहली बार में ही हमें पूरा सामान दिया था।

ग्राहक के कथन का आदर और दूसरों पर विश्वास यहाँ एक आम बात है। बहुत से राज्यों में इसके लिए विशेष क़ानून भी हैं। मसलन मेरे राज्य में अगर आपको नयी ख़रीदी हुई कार किसी भी कारण से पसंद नहीं आती है तो आप पहले हफ्ते में उसे "बिना किसी सवाल के" वापस कर सकते हैं।

एक बार मेरी पत्नी का बटुआ कहीं गिर गया। अगले दिन किसी का फ़ोन आया और उन्होंने बुलाकर सब सामान चेक कराकर बटुआ हमारे सुपुर्द कर दिया। जब हमने यह बात एक भारतीय बुजुर्ग को बताई तो उन्होंने अपना किस्सा सुनाया। जब वे पहली बार अमेरिका आए तो एअरपोर्ट आकर उन्होंने टेलीफोन बूथ से कुछ फ़ोन किए और फिर अपने मेजबान मित्र के साथ उनके घर चले गए। जाते ही सो गए अगले दिन कहीं जाकर उन्हें याद आया कि उन्होंने अपना बटुआ फ़ोन-बूथ पर ही छोड़ दिया था। उन्होंने तो सोचा कि अब तो गया। मित्र के अनुग्रह पर वे वापस हवाई अड्डे आए और बटुआ वहीं वैसे का वैसा ही रखा हुआ पाया।

ईमानदारी यहाँ के आम जीवन का हिस्सा है। आम तौर पर लोग किसी दूसरे के सामान, संपत्ति आदि पर कब्ज़ा करने के बारे में नहीं सोचते हैं। भारत में अक्सर दुकानों पर "ग्राहक मेरा देवता है" जैसे कथन लिखे हुए दिख जाते हैं मगर ग्राहक की सेवा उतनी अच्छी तरह नहीं की जाती है। ग्राहक को रसीद देना हो या क्रेडिट कार्ड के द्वारा भुगतान लेना हो, सामान बदलना हो या वापस करना हो - आज भी ग्राहक को ही परेशान होना पड़ता है। काश हम ग्राहक-सेवा का संदेश दिखावे के कागज़ पर लिखने के बजाय आचरण में लाते।

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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[यह लेख दो वर्ष पहले सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है।]