पिछली कड़ी में आपने पढा: सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा।
अब आगे की कहानी:
स्कूल का पार्किंग स्थल खचाखच भरा हुआ था। यद्यपि देबू निर्धारित समय से कुछ पहले ही आ गया था परंतु फिर भी उसे मुख्य भवन से काफ़ी दूर कार खड़ी करने की जगह मिली। एक हाथ में गुलदस्ता और दूसरे में कैमरा लेकर देबू उछलता हुआ ऑडिटोरियम की ओर जा रहा था कि उसने एलेना को देखा। जैसी कि यहाँ परम्परा है - नज़र मिल जाने पर अजनबी भी मुस्करा देते हैं - उसे अपनी ओर देखते हुए वह मुस्कराया, हालांकि इस समय वह किसी से नज़र मिलाना नहीं चाहता था।
"हाय रंजिश" एलेना ने मुस्कुराते हुए कहा।
"हाय एलेना" कहकर वह चलने को हुआ मगर तब तक एलेना उसके करीब आई और बोली, "कितने साल बाद मिले हैं हम, फिर भी मुझे तुम्हारा नाम याद रहा।"
देबू अपनी हँसी रोक नहीं सका। वह समझ गया था कि चार साल पहले की नौकरी में उसकी सहकर्मी रही एलेना उसे दूसरा भारतीय सहकर्मी रजनीश समझ रही है। परन्तु इस समय उसने अपने नाम के बारे में चुप रहना ही ठीक समझा और आगे बढने को हुआ लेकिन अब एलेना उसके ठीक सामने खड़ी थी।
"मैंने ठीक कहा न? आपका नाम रंजिश ही है न?"
"नहीं! रंजिश किसी का नाम नहीं होता" कहकर उत्तर का इंतज़ार किये बिना वह मुख्य खण्ड की ओर बढ चला।
ऑडिटोरियम काफ़ी बड़ा था लेकिन भीड़ भी कम नहीं थी। कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद दूसरी पंक्ति में उसे किनारे की सीट खाली नज़र आई। वह फ़टाफट वहाँ जाकर जम गया। कुछ देर बाद ही हाल में शांति छा गयी और उद्घोषणायें शुरू हो गयीं। संगीत के कुछ कार्यक्रम होने के बाद भारतीय नृत्य-नाटिका का समय आया। गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का दृश्य था। शंकर जी के गणों में से एक ने सबकी नज़र बचाकर हाथ हिलाकर देबू को विश किया। तुरंत ही दूसरी ओर देखकर हाथ नीचे कर लिया। दोनों की आँखों में चमक आ गई। देबू ने शीघ्र ही कई फ़ोटो खींचकर अपने स्वागत का उत्तर दिया और चोर नज़रों से शिवगण की नज़रों का पीछा किया। चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। समारोह जारी रहा, कार्यक्रम चलते रहे लेकिन देबू की नज़रें कुछ खोजती सी इधर-उधर ही दौड़ती रहीं। उन एक जोड़ी नयनों को अधिक देर भटकना नहीं पड़ा। शिवजी का गण उनके सामने खड़ा था। दोनों ऐसे गले मिले जैसे कई जन्म बाद मिले हों। देबू ने गुलदस्ता शिवगण को पकड़ाया तो बदले में एक विनम्र मनाही मिली, "कितना मन है, लेकिन आपको तो पता ही है कि यह नहीं हो सकता।"
देबू ने अनमना सा होकर हाँ में सिर हिलाया। दोनों चौकन्ने थे। उनमें जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं। एक दूसरे से फिर से गले मिले और देबू बाहर की ओर चल दिया और शिवगण वापस स्टेज की ओर।
[क्रमशः]
अब आगे की कहानी:
स्कूल का पार्किंग स्थल खचाखच भरा हुआ था। यद्यपि देबू निर्धारित समय से कुछ पहले ही आ गया था परंतु फिर भी उसे मुख्य भवन से काफ़ी दूर कार खड़ी करने की जगह मिली। एक हाथ में गुलदस्ता और दूसरे में कैमरा लेकर देबू उछलता हुआ ऑडिटोरियम की ओर जा रहा था कि उसने एलेना को देखा। जैसी कि यहाँ परम्परा है - नज़र मिल जाने पर अजनबी भी मुस्करा देते हैं - उसे अपनी ओर देखते हुए वह मुस्कराया, हालांकि इस समय वह किसी से नज़र मिलाना नहीं चाहता था।
"हाय रंजिश" एलेना ने मुस्कुराते हुए कहा।
"हाय एलेना" कहकर वह चलने को हुआ मगर तब तक एलेना उसके करीब आई और बोली, "कितने साल बाद मिले हैं हम, फिर भी मुझे तुम्हारा नाम याद रहा।"
देबू अपनी हँसी रोक नहीं सका। वह समझ गया था कि चार साल पहले की नौकरी में उसकी सहकर्मी रही एलेना उसे दूसरा भारतीय सहकर्मी रजनीश समझ रही है। परन्तु इस समय उसने अपने नाम के बारे में चुप रहना ही ठीक समझा और आगे बढने को हुआ लेकिन अब एलेना उसके ठीक सामने खड़ी थी।
"मैंने ठीक कहा न? आपका नाम रंजिश ही है न?"
रेखाचित्र व कथा: अनुराग शर्मा |
देबू ने अनमना सा होकर हाँ में सिर हिलाया। दोनों चौकन्ने थे। उनमें जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं। एक दूसरे से फिर से गले मिले और देबू बाहर की ओर चल दिया और शिवगण वापस स्टेज की ओर।
[क्रमशः]