Saturday, February 4, 2012

गन्धहीन - कहानी भाग 2

पिछली कड़ी में आपने पढा: सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा।
अब आगे की कहानी:

स्कूल का पार्किंग स्थल खचाखच भरा हुआ था। यद्यपि देबू निर्धारित समय से कुछ पहले ही आ गया था परंतु फिर भी उसे मुख्य भवन से काफ़ी दूर कार खड़ी करने की जगह मिली। एक हाथ में गुलदस्ता और दूसरे में कैमरा लेकर देबू उछलता हुआ ऑडिटोरियम की ओर जा रहा था कि उसने एलेना को देखा। जैसी कि यहाँ परम्परा है - नज़र मिल जाने पर अजनबी भी मुस्करा देते हैं - उसे अपनी ओर देखते हुए वह मुस्कराया, हालांकि इस समय वह किसी से नज़र मिलाना नहीं चाहता था।

"हाय रंजिश" एलेना ने मुस्कुराते हुए कहा।

"हाय एलेना" कहकर वह चलने को हुआ मगर तब तक एलेना उसके करीब आई और बोली, "कितने साल बाद मिले हैं हम, फिर भी मुझे तुम्हारा नाम याद रहा।"

देबू अपनी हँसी रोक नहीं सका। वह समझ गया था कि चार साल पहले की नौकरी में उसकी सहकर्मी रही एलेना उसे दूसरा भारतीय सहकर्मी रजनीश समझ रही है। परन्तु इस समय उसने अपने नाम के बारे में चुप रहना ही ठीक समझा और आगे बढने को हुआ लेकिन अब एलेना उसके ठीक सामने खड़ी थी।

"मैंने ठीक कहा न? आपका नाम रंजिश ही है न?"

रेखाचित्र व कथा: अनुराग शर्मा
"नहीं! रंजिश किसी का नाम नहीं होता" कहकर उत्तर का इंतज़ार किये बिना वह मुख्य खण्ड की ओर बढ चला। ऑडिटोरियम काफ़ी बड़ा था लेकिन भीड़ भी कम नहीं थी। कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद दूसरी पंक्ति में उसे किनारे की सीट खाली नज़र आई। वह फ़टाफट वहाँ जाकर जम गया। कुछ देर बाद ही हाल में शांति छा गयी और उद्घोषणायें शुरू हो गयीं। संगीत के कुछ कार्यक्रम होने के बाद भारतीय नृत्य-नाटिका का समय आया। गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का दृश्य था। शंकर जी के गणों में से एक ने सबकी नज़र बचाकर हाथ हिलाकर देबू को विश किया। तुरंत ही दूसरी ओर देखकर हाथ नीचे कर लिया। दोनों की आँखों में चमक आ गई। देबू ने शीघ्र ही कई फ़ोटो खींचकर अपने स्वागत का उत्तर दिया और चोर नज़रों से शिवगण की नज़रों का पीछा किया। चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। समारोह जारी रहा, कार्यक्रम चलते रहे लेकिन देबू की नज़रें कुछ खोजती सी इधर-उधर ही दौड़ती रहीं। उन एक जोड़ी नयनों को अधिक देर भटकना नहीं पड़ा। शिवजी का गण उनके सामने खड़ा था। दोनों ऐसे गले मिले जैसे कई जन्म बाद मिले हों। देबू ने गुलदस्ता शिवगण को पकड़ाया तो बदले में एक विनम्र मनाही मिली, "कितना मन है, लेकिन आपको तो पता ही है कि यह नहीं हो सकता।"

देबू ने अनमना सा होकर हाँ में सिर हिलाया। दोनों चौकन्ने थे। उनमें जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं। एक दूसरे से फिर से गले मिले और देबू बाहर की ओर चल दिया और शिवगण वापस स्टेज की ओर।

[क्रमशः]

Thursday, February 2, 2012

गन्धहीन - कहानी

शरद ऋतु की अपनी ही सुन्दरता है। इस दुनिया की सारी रंगीनी श्वेत-श्याम हो जाती है। हिम की चान्दनी दिन रात बिखरी रहती है। लेकिन जब बर्फ़ पिघलती है तब तो जैसे जीवन भरक उठता है। ठूंठ से खड़े पेड़ नवपल्लवों द्वारा अपनी जीवंतता का अहसास दिलाते हैं। और साथ ही खिल उठते हैं, किस्म-किस्म के फूल। रातोंरात चहुँ ओर बिखरकर प्रकृति के रंग एक कलाकृति सी बना लेते हैं। और दृष्टिगत सौन्दर्य के साथ-साथ उसमें होती हैं विभिन्न प्रकार की गन्ध। गन्ध के सभी नैसर्गिक रूप; फिर भी कभी वह एकदम जंगली लगती हैं और कभी परिष्कृत। मानव मन के साथ भी तो शायद ऐसा ही होता है। सुन्दर कपड़े, शानदार हेयरकट और विभिन्न प्रकार के शृंगार के नीचे कितना आदिम और क्रूर मन छिपा है, एक नज़र देखने पर पता ही नहीं लगता।

रेस्त्राँ में ठीक सामने बैठी रूपसी ने कितने दिल तोड़े हों, किसे पता। नित्य प्रातः नहा धोकर मन्दिर जाने वाला अपने दफ़्तर में कितनी रिश्वत लेता हो और कितने ग़बन कर चुका हो, किसे मालूम है। मौका मिलते ही दहेज़ मांगने, बहुएं जलाने, लूट, बलात्कार, और ऑनर किलिंग करने वाले लोग क्या आसमान से टपकते हैं? क्या पाँच वक़्त की नमाज़ पढने वाले ग़ाज़ी बाबा ने दंगे के समय धर्मान्ध होकर किसी की जान ली होगी और फिर शव को रातों-रात नदी में बहा दिया होगा? मुझे नहीं पता। मैं तो इतना जानता हूँ कि इंसान, हैवान, शैतान, देवासुर सभी वेश बदलकर हमारे बीच घूमते रहते हैं। हम और आप देख ही नहीं पाते। देख भी लें तो पहचानेंगे कैसे? कभी उस दृष्टि से देखने की ज़रूरत ही नहीं समझते हम।
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो उसकी वहाँ नहीं मिलता।
~ नक़्श लायलपुरी
कथा व चित्र: अनुराग शर्मा 
खैर, हम बात कर रहे थे बहार की, फूलों की, और सुगन्ध की। संत तुलसीदास ने कहा है "सकल पदारथ हैं जग माहीं कर्महीन नर पावत नाहीं। जीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है। उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये। फूलों की नगरी में रहते हुए लोगों को फूलों के परागकणों या सुगन्धि से परहेज़ हो सकता है। मगर देबू को तो इन दोनों ही से गम्भीर एलर्जी थी। घर खरीदने के बाद पहला काम उसने यही किया कि लॉन के सारे पौधे उखडवा डाले। पत्नी रीटा और बेटे विनय, दोनों ही फूलों और वनस्पतियों के शौकीन हैं, लेकिन अपने प्रियजन की तकलीफ़ किसे देखी जाती है। सो तय हुआ कि ऐसे पौधे लगाये जायें जो रंगीन हों, सुन्दर भी हों, परंतु हों गन्धहीन। सूरजमुखी, गुड़हल, डेहलिया, ऐज़लीया, ट्यूलिप जैसे कितने ही पौधे। इन पौधों में भी लम्बी डंडियों वाले खूबसूरत आइरिस देबू की पहली पसन्द बने।

देबू आज सुबह काफ़ी जल्दी उठ गया था। दिन ही ऐसा खुशी का था। आज की प्रतीक्षा तो उसे कब से थी। रात में कई बार आँख खुल जा रही थी। समय देखता और फिर सोने की कोशिश करता मगर आँखों में नींद ही कहाँ थी। नहा धोकर अविलम्ब तैयार हुआ और बाहर आकर अपनी रंग-बिरंगी बगिया पर एक भरपूर नज़र डाली। कुछ देर तक मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाया और फिर आइरिस के एक दर्ज़न सबसे सुन्दर फूल अपनी लम्बी डंडियों के साथ बड़ी सफ़ाई से काट लिये। भीतर आकर बड़े मनोयोग से उनको जोड़कर एक सुन्दर सा गुलदस्ता बनाया। कार में साथ की सीट पर रखकर गुनगुनाते हुए उसने अपनी गाड़ी बाहर निकाली। गराज का स्वचालित दरवाज़ा बन्द हुआ और कार फ़र्राटे से स्कूल की ओर भागने लगी। कार के स्वर-तंत्र से संत कबीर के धीर-गम्भीर शब्द बहने लगे, "दास कबीर जतन ते ओढी, ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया।"
[क्रमशः]


Saturday, January 28, 2012

अंतर्मन - कविता

(अनुराग शर्मा)

ॐ सूर्य सहस्रांशो तेजो राशे जगत्पते ...
पर्वत के पीछे
बरगद के नीचे

अपनों के देस में
निपट परदेस में

दुश्मन के गाँवों में
बदले के भावों  में

गन्दी सी नाली में
भद्दी सी गाली में

मन की दरारों में
कुत्सित विचारों में

तम के अनेक रूप
लेकिन बस एक धूप

किरण जहाँ जाती है
हृदय जगमगाती है॥