Wednesday, February 25, 2009

खून दो...

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मिल्की सिंह उनका असली नाम नहीं है। मगर उनको यही नाम पसंद है क्योंकि माता-पिता द्वारा दिया गया नाम उनके पिछडेपन का प्रतीक है। उनका असली नाम यानी दूधनाथ सिंह उनकी एक आधुनिक अधिकारी वाली उनकी छवि से कहीं भी मेल नहीं खाता है। कुमारी चाको ने पहली बार उन्हें इस विसंगति का अहसास दिलाकर उनका नया नामकरण किया था और तभी से कुछ ऐसा हुआ कि लोग उनका वास्तविक नाम ही भूल गए।

मिल्की सिंह का व्यवहार मेरे प्रति काफी रूखा और कड़क है। मगर मैं यह जानता हूँ कि एक उनका जंगलीपन एक कड़े नारियल की तरह ही ऊपरी और दिखावटी है। ऊपर से वे भले ही मिल्की सिंह हो जाएँ मगर अन्दर से वे आज भी दूधनाथ सिंह ही हैं दूधिया गरी जैसे नरम। दूसरों की सहायता का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। अब उनकी रग-रग में बह रही इस भलमनसाहत को मैं नहीं पहचानूंगा तो और कौन समझेगा। न सिर्फ़ वे मेरे साथ काम करते हैं, दुर्भाग्य से वे मेरे बॉस भी हैं। इसलिए मैं अक्सर उनकी महानता और दयालुता के किस्से इतनी बार सुनता रहा हूँ कि मेरे कान पाक गए हैं।

कडाके की सर्दी पड़ रही थी। सिंह साहब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास से गुज़र रहे थे। उन्होंने एक कमज़ोर बूढे आदमी को चीथड़ों में लिपटे देखा। कितने ही लोग वहाँ से निकले मगर यह हमारे मिल्की सिंह ही थे जिन्हें उस बूढे पर दया आयी और उन्होंने पास के ठेले वाले को एक रुपया देकर उस गरीब को चाय के एक कुल्हड़ की बदौलत ठण्ड में जमने से बचा लिया। इस बात को बीते हुए कई वर्ष हो गए हैं मगर मुझे आज भी गाहे-बगाहे यह गाथा सुननी पड़ती है।

ऐसा नहीं कि हम-आप जैसे आम लोगों की तरह उनकी दयालुता का घेरा भी सिर्फ़ मनुजों तक ही सीमित हो। मिल्की सिंह आला दर्जे के पशु-प्रेमी हैं। एक बार उनके बच्चे ने क़त्लगाहों में चल रहे पशु-अत्याचारों के बारे में बनी कोई विडियो-क्लिप इन्टरनेट से उतार ली थी। उसे देखने के बाद दयालु मिल्की सिंह ने एक हफ्ते तक मटन नहीं खाया था। सिर्फ़ चिकन पर ही ज़िंदा रहे। यही किस्से बार-बार सुनने पर मेरे मन में कई प्रश्न उठते हैं मगर मैं उनसे कभी पूछ नहीं सकता क्योंकि बॉस हमेशा सही होता है।

वैसे तो मेरा बॉस होने के नाते मिल्की सिंह जी सर्वज्ञानी हैं। फिर भी, एक बात मिल्की सिंह को कभी समझ में कभी नहीं आयी। दफ्तर में उनके नहीं बल्कि रेड्डी साहब की दयालुता के किस्सों की चर्चा होती है। आज मिल्की सिंह कुछ ज़्यादा ही अनमने से हैं। होना भी चाहिए। सारे कर्मचारी पैसे और कपड़े इकट्ठे कर के रेड्डी साहब को दे रहे हैं जिन्होंने यह सब उडीसा के चक्रवात-पीडितों तक पहुँचाने का प्रबंध किया है। मिल्की सिंह के दिमाग में भी एक चक्रवात घूम रहा है। वे भी रेड्डी साहब की तरह कुछ बड़ा नाम (काम नहीं) करना चाहते हैं। हर सफल बॉस की तरह मिल्की सिंह भी जानते हैं कि आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक असफल पर बुद्धिमान मातहत से कुछ गुह्य-सूत्र लेने पड़ेंगे। निश्चित है कि मेरे पास ही आयेंगे।

"मैं सफल हूँ, अक्लमंद हूँ, पैसे और बचत के महत्त्व को समझता हूँ ..." वह मेरे इतना पास आकर बोले कि चाय सड़ने की महक ने मुझे अन्दर तक चीर दिया। मगर क्या करता, बॉस हैं।

"... ऐसा क्या करुँ कि दान भी हो जाए और अंटी भी ढीली न हो?" उन्होंने सकुचाते हुए फुसफुसाया।

"पैसा दिए बगैर?" मैंने अपने आप से पूछा और त्वरित-विचार के लिए इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। खिड़की के बाहर दीवार पर कुछ दीवाने नौजवानों का लिखा हुआ सुभाष चन्द्र बोस का नारा दिखाई दिया, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। "

"हम अपने खून से आसमान पे क्रान्ति लिख देंगे..."

"क्या बकते हो, मैं कोई पागल हत्यारा हूँ क्या?" मिल्की सिंह बौखलाए हुए से बोले।

"रक्तदान, सर!" मैंने उछालते हुए कहा, "कहावत भी है, खून का खून, पानी का पानी। "

मेरा इतना कहना था कि पड़ोस से मिसेज़ खान आकर मेरे और मिल्की सिंह के बीच एक दीवार की तरह खड़ी हो गयीं, "खून देना बहुत खतरनाक होता है, मेरे खाविंद ने एक दफा अपने अब्बू को दिया था, बेहोश हो गए थे । उनके भाई ने तो खून दिया भी नहीं, वह हो बस उनको देखने भर से ही बेहोश हो गया। उन्हें ठीक होने में दो हफ्ते और कई किलो कीमा लगा।"

मिसेज़ खान की बात सुनकर मिल्की सिंह बिदकने के बजाय उछल पड़े, "अरे मुझे बेहोश होने का कोई ख़तरा नहीं है, मैं तो खूब कीमा खाता हूँ।"

उनके निर्देश पर मैंने रक्त-बैंक से उनके लिए अगले दिन का समय ले लिया और अगले दिन वे खूब सारा कीमा डकार कर निर्धारित समय से पहले ही ब्लड-बैंक पहुँच गए।

सामान्य जांच पड़ताल और कागजी कारवाई के बाद नर्स ने जब उनसे पूछा, "आप (खून देने के लिए) रेडी हैं क्या?"

"जी नहीं, मैं सिंह हूँ" मिल्की ने सफाई देते हुए कहा, "रेड्डी तो मेरा सहकर्मी है. हमारी शक्ल काफी मिलती है, लोगों को अक्सर शक हो जाता है।"
[क्रमशः]

Monday, February 16, 2009

दिमागी जर्राही बरास्ता नाक [इस्पात नगरी से - खंड 9]

जब औद्योगिक विकास सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, पिट्सबर्ग स्वाभाविक रूप से ही विश्व के सबसे धनी नगरों में से एक था. धीरे-धीरे जब पर्यावरण के प्रति जागृति आनी शुरू हुई और क़ानून कड़े होने लगे तब बहुत से व्यवसाय यहाँ से बाहर जाने लगे. पिट्सबर्ग की जनसंख्या सिकुड़नी शुरू हुई और उसके साथ ही पिट्सबर्ग ने नए क्षेत्रों को अपनाना शुरू किया. जहाँ एक तरफ़ इस नगर में कम्प्युटर संबन्धी शिक्षा और व्यवसाय पर ज़ोर दिया गया वहीं स्वास्थ्य शिक्षा और अस्पतालों ने नए रोज़गार पैदा किए. स्वास्थ्य के क्षेत्र में पिट्सबर्ग पहले ही काफी झंडे गाढ़ चुका था. मसलन, डॉक्टर जोनास साल्क द्वारा पोलियो के टीके की खोज यहाँ हुई थी और वर्षों बाद अमेरिका में पहला "बीटिंग हार्ट" प्रत्यारोपण यहीं हुआ.

मगर आज हम बात कर रहे हैं एक साधारण सी लगने वाली मगर क्रांतिकारी चिकित्सा तकनीक की. यह तकनीक है "न्यूरोएंडोपोर्ट" जिसमें नाक के रास्ते से जाकर ऐसे दिमागी ट्यूमर की शल्यक्रिया होती है जिसे खोपडी खोलकर आसानी से नहीं छुआ जा सकता है. यूपीएमसी पिट्सबर्ग (जो कि मेरे नियोक्ता भी हैं) के डॉक्टर अमीन कासम ने विश्व में पहली बार "न्यूरोएंडोपोर्ट" का सफल प्रयोग किया था.

१२ फरवरी को यूपीएमसी चिकित्सकों के एक दल ने छः घन्टे की शल्यक्रिया द्वारा भारत से आए जैन संत आचार्य यशोविजय सूरीश्वर जी के मस्तिष्क के एक गोल्फ की गेंद के आकार के ट्यूमर को निकाला जिसके दवाब के कारण आचार्य के दृश्य तंत्रिका काम नहीं कर पा रही थीं और आचार्य कुछ भी देख या पढ़ सकने में असमर्थ हो गए थे.

६३ वर्षीय आचार्य की पहली शल्य चिकित्सा भारत में हुई थी मगर सर के रास्ते से उस ट्यूमर को सफलतापूर्वक हटाया नहीं जा सका था. बाद में यूरोप में रह रहे उनके एक चिकित्सक अनुयायी ने पिट्सबर्ग के बारे में जानने के बाद उनको यहाँ लाने की बात शुरू की. उल्लेखनीय बात यह है कि यह आचार्य जी की पहली हवाई यात्रा भी थी. वे अभी पिट्सबर्ग में ही स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं और यहाँ की व्यवस्था से प्रसन्न हैं. स्थानीय अखबारों में उनकी यात्रा और इलाज के बारे में जिस प्रमुखता से समाचार छपे हैं उससे स्थानीय लोगों को भी जैन संस्कृति के बारे में पहली बार काफी जानकारी मिली है.


[इस शृंखला के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा लिए गए हैं. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]
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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
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Sunday, February 15, 2009

सुभद्रा कुमारी चौहान - सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि

हिन्दी साहित्य जगत हो या भारत के स्वाधीनता संग्राम की गाथा, हमारे देश का इतिहास ऐसे नर-नारियों से भरा पडा है जो कलम के धनी तो थे ही, राष्ट्र-सेवा में प्राण अर्पण करने में भी किसी से पीछे रहने वाले नहीं थे। इन्हीं कवि-सेनानियों की शृंखला के एक महामना पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा को सिलसिलेवार प्रकाशित करने का महान कार्य हमारे अपने डॉक्टर अमर कुमार अपने ब्लॉग काकोरी के शहीद पर बखूबी कर रहे हैं। यदि आप की रूचि एक अद्वितीय स्वाधीनता संग्राम सेनानी द्वारा लिखे लोमहर्षक और प्रामाणिक विवरण को विस्तार से जानने में है तो कृपया एक बार वहाँ जाकर ज़रूर पड़ें और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करे।

इस परमोच्च श्रेणी के साहित्यकारों की बात चलती है तो एक और नाम बरबस ही याद आ जाता है। सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। १९०४ में इलाहाबाद जिले के निहालपुर ग्राम में जन्मीं सुभद्रा खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाहोपरांत जबलपुर में रहीं. उन्होंने १९२१ के असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया. नागपुर में गिरफ्तारी देकर वे असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तार पहली महिला सत्याग्रही बनीं. वे दो बार १९२३ और १९४२ में गिरफ्तार होकर जेल भी गयीं। उनकी अनेकों रचनाएं आज भी उसी प्रेम और उत्साह से पढी जाती हैं जैसे आजादी के पूर्व के दिनों में. "सेनानी का स्वागत", "वीरों का कैसा हो वसंत" और "झांसी की रानी" उनकी ओजस्वी वाणी के जीवंत उदाहरण हैं. वे जितनी वीर थीं उतनी ही दयालु भी थीं। १५ फरवरी १९४८ में एक कार दुर्घटना के बहाने से ईश्वर ने इस महान कवयित्री और वीर स्वतन्त्रता सेनानी को हमसे छीन लिया। आइये उनकी पुण्यतिथि पर याद करें उन सभी वीरों को जिन्होंने इस राष्ट्र की सेवा में हँसते हँसते अपना तन-मन-धन न्योछावर कर दिया. प्रस्तुत है सुभद्रा कुमारी चौहान की मर्मस्पर्शी रचना, "जलियाँवाला बाग में वसंत" जिसे मैंने बचपन में खूब पढा है:

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* वीरों का कैसा हो वसंत - ऑडियो
* खूब लड़ी मर्दानी...
* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* सुभद्रा कुमारी चौहान - विकिपीडिया