Saturday, May 7, 2011

पुष्पाहार - बुरांश का शर्बत कैसे बनता है?

नेपाल के राष्ट्रीय चिह्न में बुरांश 
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फलाहार का नाम तो हम सब ने सुना होगा। भारतीय उपवास पद्धति में सात्विक भोजन और उस पर भी फलाहार का विशेष महत्व है। फलाहार से एक कदम आगे पुष्पाहार भारत की पुरानी पाककला का एक भूला-बिसरा सा भाग है। गोभी के फूल तो शायद हम सभी ने खाये होंगे मगर बचपन में बरेली, बदायूँ, रामपुर में मैंने सेमल (सेमरगुल्ले) और करौन्दे के फूल भी बहुत खाये हैं। रुहेलखंड में तोरई, कद्दू, लौकी आदि के फूलों की सब्ज़ी भी बनती है। पश्चिम में भी विशेषकर इटैलियन खाने में पुष्पाहार अभी भी शामिल है जबकि भारत में पुष्पाहार के नाम पर शायद गुलकन्द या केतकी का रस (केवडा) जैसे खाद्य पदार्थ ही बचे होंगे।

निवास के बाहर लाल अज़लीया
आजकल भले ही गुड, घी और आंवला के मिश्रण को चयवनप्राश बताकर बेचा जा रहा हो, प्राचीन ग्रंथों में च्यवन ऋषि की प्रेरणा से किये जाने वाले कायाकल्प-व्रत (पुष्प-द्वितीया व्रत) में एक वर्ष तक केवल पुष्पाहार करने का विधान है। भारतीय परम्परा की बात हो और नियम-विनियम बीच में न आयें, यह कैसे हो सकता है? विभिन्न देवताओं को कौन से पुष्प चढाये जा सकते हैं और कौन से निषिद्ध हैं इसका ही पूरा विधान है तो फिर खाद्य-अखाद्य पुष्पों का विधान तो होना ही है। अभिप्राय यह कि खाद्य-कुसुम का भी एक विभाग है।

नीला बुरांश
1400 मीटर से अधिक ऊंचे स्थानों में पाये जाने वाले सुन्दर पुष्पों में से बुरुंश या बुरांश भी एक है जिसे नेपाली में गुरांस, अंग्रेज़ी में रोडोडेंड्रोन (Rhododendron) और एज़लीया (azalea) भी कहते हैं। सन 2006 में बनाये गये नेपाल के नये राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न में लाली गुरांस को स्थान मिला है। बुरंश 3300 मीटर की ऊंचाई तक आराम से पाया जाता है। रोडोडैंड्रोन की इस "लाली गुरांस" प्रजाति का बॉटैनिकल नाम रोडोडैंड्रोन आर्बोरियम (Rhododendron arboreum) है।

इस ब्लॉग पर पहले आयी टिप्पणियों और अन्य ब्लॉग पर हिमालयी क्षेत्रों के लोगों द्वारा बुरांश के शर्बत का सन्दर्भ बार-बार आया है। मैंने काफी प्रयास किया कि किसी को सताये बिना ही अंतर्जाल पर बुरांश के शर्बत की प्रमाणिक विधि ढूंढी जा सके मगर असफल रहा।

हाँ, अंतर्जाल पर ही बुरांश की चाय की विधि मिली है - शायद यही बुरांश का शर्बत हो। जो है आपके सामने है:

बुरांश के फूल (30 ग्राम) को चीनी (50 ग्राम) में मिलाकर एक दिन के लिये रख दीजिये। फिर रोज़ उसमें से लगभग 10 ग्राम का मिश्रण लेकर खौलते पानी में करीब 15 मिनट तक पकाइये। चाय की तरह पीजिये और चुक जाने पर नया मिश्रण तैयार कर लीजिये। (स्रोत: lonlu.com)

रोडोडैंड्रोन सदर्न इंडिका और मैं
मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अंतर्जाल पर बागवानी के विभिन्न अंग्रेज़ी सन्दर्भों में बुरांश की झाडी के प्रत्येक भाग को विषैला बताया गया है। वैसे विषैला तो केसर भी होता है परंतु भोजन में उसकी मात्रा इतनी कम होती है कि विष का असर शायद अनुभव योग्य नहीं होता। रोज़मर्रा प्रयोग होने वाले सेब के बीज भी विषैले होते हैं मगर वे खाये नहीं जाते हैं। परंतु बुरांश के विषैले होने की जानकारी ने मुझे थोडा सा विचलित किया है। सोच रहा हूँ कि बुरांश को विषैला समझना क्या पश्चिमी जगत का अज्ञान है या कहीं ऐसा तो नहीं कि फूलों को छोडकर बाकी झाडी विषैली हो। या फिर यह उत्साहवर्धक पेय सचमुच हल्की मात्रा में नशीला हो। वैसे भारत में ऐसे लोग अभी भी काफी हैं जो चाय कॉफी आदि को भी व्यसन मानते हैं। क्या बुरांश का शर्बत भी ऐसे व्यसन या फिर ठंडाई की श्रेणी में आता है? या फिर केवल हिमालय की लाल फूलों वाली प्रजाति (Rhododendron arboreum) ही विषहीन है? कई सवाल हैं परंतु मुझे आशा है कि आप में से कई लोगों के पास इन प्रश्नों के सम्पूर्ण या आंशिक उत्तर अवश्य होंगे। तो आइये और मेरा ज्ञानवर्धन कीजिये। अग्रिम धन्यवाद!

और हाँ, मदर्स डे की बधाई!
[जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी]
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* बुरुंश के फूल
* बोनसाई बनाएं - क्विक ट्यूटोरियल
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उपसंहार
खोजते-खोजते इतना पता चल पाया है कि यह सारी जानकारी अभी भी विरोधाभासी है। एक तरफ इंटरनैट पर रोडोडेंड्रॉन शहद खुलेआम बिक रहा है दूसरी ओर उपलब्ध जानकारी के अनुसार रोडोडेंड्रॉन की समस्त प्रजातियाँ ज़हरीली होती हैं और उसके पुष्प से बना शहद भी।

* रोडोडैंड्रॉन शहद यहाँ बिक रहा है

* इनके अनुसार रोडोडैंड्रॉन का शहद ऐंटिऑक्सिडैंट होता है

* रोडोडेंड्रॉन की समस्त प्रजातियाँ ज़हरीली हैं। इसकी पत्तियों का ज़हरीला रस खटमल मारने के लिये प्रयुक्त होता है। इनके पुष्प भी अधिक मात्रा में लेने पर नशा या विष का प्रभाव उत्पन्न करते हैं। (स्रोत: प्लांट्स फॉर अ फ्यूचर) शायद शर्बत/चाय में कम मात्रा में लेने से उतना असर नहीं होता होगा।

* रोडोडेंड्रोन के पुष्परस से बने शहद में ग्रेयानोटोक्सिन (Grayanotoxin) नामक विष होने की सम्भावना रहती है जिसके सेवन से होने वाली बीमारी को "मैड" हनी डिज़ीज़ कहा गया है। तुर्की और ऑस्ट्रिया में 1980 के दशक में यह बीमारी देखी गयी थी और इसके सम्भावित प्रभावित क्षेत्रों की सूची में नेपाल का नाम भी दिया है। (स्रोत: "मैड" हनी डिज़ीज़)

* संक्रमक आतंकवाद - ऐटलांटिक मंथली, मई 1991 का एक अंग्रेज़ी आलेख

* ६ अप्रैल वर्ष 2010 के इस समाचार के अनुसार भारत तिब्बत सीमा सीमा पुलिस बटालियन ४ के जन कार्यवाही योजना की पहल एवं सहयोग एवं अन्य निजी व सरकारी संस्थाओं के सहयोग से अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के सक्प्रेट ग्राम में बुरांश पुष्प के रस, जम आदि का सहकारी कारखाना स्थापित किया गया है।


... और अंततः
निम्न लिंक स्पष्ट रूप से कहा रहा है कि जहां विश्व के अधिकाँश रोडोडेंड्रॉन विषैले होते हैं वहीँ हिमालय के लाल पुष्प वाली प्रजाति (बुरुंश, बुरांश, लाली गुरांस, रोडोडैंड्रोन आर्बोरियम, या Rhododendron arboreum) भोज्य होती है। मुझे लगता है कि इस कड़ी के साथ इस खोज को संपन्न समझा जाए।

* Keys to India - Rhododendron Yum

इसी बीच नेपाल से श्री प्रेम बल्लभ पांडे जी ने लाली गुराँस के फूलों के चित्र ईमेल से भेजने की कृपा की। मैं उनका आभारी हूँ। आप सभी के सहयोग और जानकारी के लिए धन्यवाद।

Thursday, May 5, 2011

डैडी – कहानी अंतिम भाग [भाग 2]

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डैडी – कहानी के प्रथम भाग में आपने पढा कि:
डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराज़ें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोडकर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।
अब आगे की कथा:
एक बार जब डैडी टूर पर गए थे तो मुझे उनकी इतनी याद आई कि मैं बहुत रोई। उनके वापस आने पर मेरे मना करते करते भी माँ ने यह बात उन्हें बता दी। तब डैडी ने मुझे बताया कि उन्हें भी मेरी और माँ की बहुत याद आती है लेकिन वे जब भी हमें याद करते हैं तो वे दुखी नहीं होते, बल्कि उन्हें बहुत ही उन्हें अच्छा लगता है।

“याद से खुशी होनी चाहिए दुःख नहीं।”

“हाँ डैडी!”

उनकी यह बात आज भी मेरे जीवन का मूलमंत्र है और अब मैं जब भी उन्हें याद करती हूँ मुझे दुःख नहीं होता बल्कि याद करना अच्छा लगता है।

उस दिन जब मैं उनके कमरे में गयी तो वे एक डब्बा लिये कुछ देख रहे थे। कुछ चमकता सा दिखा तो मैंने पूछा कि क्या मैं पास से देख सकती हूँ तो उन्हों ने हाँ की। मैंने पास जाकर देखा तो उसमें तरह-तरह के सिक्के रखे थे। डैडी के डब्बे में संसार भर से अनेक प्रकार के सिक्के थे। सोने और चांदी के भी। चमचमाते सिक्के खूबसूरत पैकिंग में इस प्रकार रखे थे मानो अमूल्य गहने हों। मैं कोई एक घंटे तक उस डब्बे में रखे विभिन्न प्रकार के सिक्कों, नोटों, रंग बिरंगे फीतों और डाक टिकटों से खेलती रही। फिर माँ ने हमें डिनर के लिये बुला लिया। डैडी उस दिन मुझे पहली बार बहुत कूल लगे।

खाना खाते-खाते डैडी के लिए कोई फोन आ गया। भोजन छोड़कर वे अपने रहस्यमय कमरे में चले गये। जब वे वापस आये तो मैं सोने के लिये अपने कमरे में जाने ही वाली थी। डैडी ने गोद में लेकर मुझे गुडनाइट कहा और हमें बताया कि अगले दिन वे विदेश जाने वाले हैं। अपने बिस्तर से मैंने माँ को रोते हुए सुना। मैं कुछ जान पाती उससे पहले ही मुझे नींद आ गयी।

माँ अभी भी रसोई की सिंक के साथ गुत्थमगुत्था हो रही हैं। कुछ बोल नहीं रहीं पर उनके आँसू झर-झर बह रहे हैं। उन्हें देखकर मैं भी सुबकने लगी हूँ। मुझे पता है कि हम दोनों ही सिंक की रोती हुई टोटी के लिये नहीं रो रहे हैं। हम दोनों रो रहे हैं उस कूल इंसान के लिये जिसके होते हुए इस घर में न कभी कोई टोटी टपकी और न ही कोई आँख। जब तक डैडी यहाँ थे हमें पता ही नहीं चला कि कैसे चुपचाप वे इस मकान को हमारा प्रिय घर बनाने में लगे रहते थे।

डैडी, आप तो बुद्धा हो, आपको ज़रूर पता होगा कि हम आपको कितना मिस कर रहे हैं। आँखें गीली हैं, मन भीगा है, लेकिन मैं ज़रा भी दुखी नहीं हूँ। हँसकर याद करती हूँ। आपने मेरे लिये जो क्लब हाउस बनाया था, उसके बाहर मैंने एक गुलाब लगाया है आपकी याद में। मुझे मालूम है कि आप अपनी तस्वीर से बाहर नहीं आ सकते मगर वहीं से मुस्कराकर अपना प्यार हम तक पहुँचा रहे हैं।  मैने माँ से पूछकर आपके रिबन और मेडल सिक्कों के डब्बे से निकालकर शोकेस में लगा दिये हैं। एक नया मेडल भी है जो आपको मरणोपरांत मिला है।

मुझे आप पर गर्व है डैडी!

[समाप्त]
[कथा व चित्र :: अनुराग शर्मा]

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* एक शाम बेटी के नाम
* A day of my life

Wednesday, May 4, 2011

डैडी – कहानी

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माँ जुटी हुई हैं संघर्ष में। रसोई की टोटी आज फिर से बहने लगी है शायद। घर चाहे कितना भी बड़ा हो। घर का मालिक भी चाहे जितना बड़ा हो। अमेरिका में यह सारे काम स्वयं ही करने होते हैं। यह टोटी पहले भी कभी खराब ज़रूर हुई होगी लेकिन सच यह है कि तब हमें कभी इसका पता न चला। डैडी यहाँ थे तब माँ को घर-बाहर किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं थी। तब तो शायद माँ को यह भी पता नहीं था कि ये चीज़ें कभी खराब होती भी हैं।

जब तक माँ और मैं सोकर उठते थे, डैडी नहा-धोकर, ध्यान करके या तो अखबार पढ रहे होते थे या उसके बाद अपनी ईमेल आदि देखते थे। बोलते वे कम ही थे मगर अपनी सुबह की चाय बनाने से लेकर बाकी सब काम भी ऐसे दबे पाँव करते थे कि कहीं गलती से भी हमारी नींद में खलल न पडे।

जब मैं तैयार हो जाती तब वे मुझे अपनी कार में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे। उस समय मैं उनसे ढेर सारी बातें करती थी। उस समय वे भी अन्य वक़्तों जैसे शांत और चुप्पा नहीं रहते थे। लगता था जैसे डैडी किसी और आदमी से बदल गये हों। स्कूल की छुट्टी होने पर वे मुझे लेने आ जाते थे। मुझे घर छोड़कर वे वापस अपने काम पर चले जाते थे। डैडी अस्पताल में थे या स्टील मिल में? क्या करते थे? यह मुझे तब ठीक से नहीं पता था। लेकिन इतना पता था कि जब वे शहर में होते थे तब ज़रूरत पड़ने पर किसी भी समय उन्हें घर बुलाया जा सकता था। लेकिन बीच-बीच में वे काम के सिलसिले में नगर से बाहर की यात्रायें भी करते थे। कभी-कभी वे विदेश भी चले जाते थे और हफ्तों तक हमें दिखाई नहीं देते थे। उनकी कोई भी यात्रा पहले से तय नहीं होती थी। किसी भी दिन चले जाते थे और किसी भी दिन वापस आ जाते थे। उनकी वापसी के बाद ही ठीक से पता लगता था कि कहाँ-कहाँ गये थे।

डैडी यूरोप में कहीं गये हुए थे। पाँच साल की छोटी सी मैं खिड़की में बैठी अपनी गुड़ियों से खेल रही थी कि मुझे उनकी कोई बात याद आयी। मेरे मन में एकदम यह विचार आया कि मेरे डैडी हमारे घर के महात्मा बुद्ध हैं, जानकार और शांत। मैं यह बात सोच ही रही थी कि उन्होंने घर में प्रवेश किया। लपककर मुझे गोद में उठाया तो मैंने खुश होकर कहा, “डैडी, आप न, बिल्कुल भगवान बुद्ध ही हो। फर्क बस इतना है कि भगवान बुद्ध बहुत ज़्यादा बुद्धिमान हैं और आप उतने बुद्धिमान नहीं हैं।“

पिट्सबर्ग का एक दृश्य
डैडी ने वैरी गुड कहकर मुझे चूम लिया। कुछ ही देर में उनके सूटकेस से मेरे लिये उपहारों की झड़ी लगने लगी, जैसे कि हमेशा होता था। माँ कुछ खुश नहीं दिख रही थी। घर में कुछ तो ऐसा चलता था जिसे मैं समझ नहीं पाती थी। माँ शायद डैडी के जॉब से अप्रसन्न रहती थीं। वे चाहती थीं कि डैडी भी आस-पड़ोस के पुरुषों की तरह हमेशा शहर में ही रहने वाली कोई नौकरी करें।

डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराजें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोड़कर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।

[क्रमशः]