Monday, November 14, 2011

मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अक्रोध की मांग

पिछली पोस्ट क्रोध पाप का मूल है में हमने देखा कि ग्रंथों में काम, क्रोध, लोभ, मोह नामक चार प्रमुख पाप चिन्हित किये गये हैं। क्रोध का दुर्गुण असहायता, कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
अब आगे:
क्रोध के दुर्गुण होते हुए कुछेक जगह उसके लाभ की बात सुनने में आयी है। लेकिन थोड़ा ध्यान देते ही ऐसे कथनों का झोल स्पष्ट हो जाता है। ऐसा लगता है कि कुछ लेखक-लेखिकायें मन्यु को क्रोध से विभ्रमित कर रहे हैं। शायद वे दैवी गुण "मन्यु" को सात्विक क्रोध समझने के भुलावे में हैं। क्रोध एक अवांछनीय दुर्गुण है। सात्विक क्रोध जैसी कोई चीज़ नहीं होती। सच्चाई यह है कि मन्यु की उपस्थिति में क्रोध कोई स्थान नहीं पा सकता। स्पष्ट करना आसान नहीं है परंतु फिर भी प्रयास करता हूँ। विषय को परिभाषित करने में जिन आत्मीयजनों ने मेरी सहायता की उनका आभारी हूँ।

देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय का श्रेय अन्य दैवी गुणों के साथ "मन्यु" को भी दिया जा सकता है। संग्राम हो, क्षमा हो या कृपा, सज्जन अपना कार्य अक्रोध के साथ करते हैं। उदाहरण के लिये एक न्यायाधीश जब न्याय करे और निर्णय सुनाये, सज़ा, बरी, चेतावनी या क्षमा - उसमें कोई क्रोध नहीं होना चाहिये परंतु निर्णय में दमन का अंश फिर भी हो सकता है। इसी प्रकार जहाँ क्रोध का पक्षधर अहिंसा, करुणा, क्षमा आदि को कायरता के समकक्ष रखता है वहां मन्युधारी इन सब गुणों को सर्वोपरि रखेगा। वह अहिंसक के प्रति होती हिंसा को रोकने आगे भी आयेगा लेकिन इसके साथ ही अपने मन में जीवदया रखे रह सकेगा।

कृष्ण हों या बलराम, परशुराम हों या रघुवंशी राम उन्होंने डटकर अन्याय का प्रतिकार किया परंतु इस सदुद्देश्य में भी इन सबने अपने हाथ से हुई हिंसा का प्रायश्चित किया - जबकि उनके कर्म में क्रोध, द्वेष, द्रोह, लाभ, अहंकार, यश की आकांक्षा, या विजय की लालसा आदि कुछ भी नहीं था। मन्युवान को क्रोध नहीं आता। मन्यु में आक्रोश भी नहीं है, न झुंझलाहट न आँख दिखाना। आत्मरक्षा हो भी सकती है, नहीं भी। हाँ, आत्मत्याग की भावना अवश्य है। जिस इन्द्र ने दधीचि पर आक्रमण किया उसी के मांगने पर दधीचि अपने प्राण खुशी-खुशी त्याग देते हैं। उन्हें न अपने जीवन की परवाह है न इन्द्र के प्रति रोष, द्वेष या क्रोध है। केवल एक कामना है सो है जगत कल्याण की।  मन्यु में शरणागत-रक्षा भी है  और धर्म-रक्षा भी पर है अक्रोध के साथ। देव एक सीमा तक सहते हैं, फिर प्रतिकार करते हैं। मगर न तो उनके सहने में शिकायत है और न ही उनके प्रतिकार में अहंकार, द्रोह, क्रोध या द्वेष है।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।
(श्रीमद्भग्वद्गीता 16, 4)
दम्भ, दर्प और अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञान, ये सब आसुरी सम्पदा के लक्षण हैं।
भगवान परशुराम ने जब 21 बार आतताइयों का विनाश किया तो राज्यप्रथा समाप्त करके ग्राम बसाये जिनमें ग्रामणी सभा होती थी और वहाँ निर्णय ज्ञानी लोग करते थे जो आपराधिक मामले आने पर सबको ही क्षमा करते रहे क्योंकि हर अपराध के पीछे वे सत्पुरुष कोई न कोई कारण देख सके, मसलन भूखा पेट तो चोरी करेगा ही। अपराधियों पर होने वाली इस दया के परिणामस्वरूप अंततः धरती पर अराजकता फैलने लगी। कहते हैं कि जब राम और परशुराम मिले तब राम ने परशुराम को उनकी करनी का यह पक्ष दिखाया और परशुराम ने स्वीकार किया। तब परशुराम ने गुरुकुलों में ऋषियों द्वारा पाले जा रहे पितृहीन राजकुमारों को राज्यसत्ता फिर से सौंपकर खुद समरकलायें सिखाने का काम किया। इस प्रकार न्याय व शासन व्ययवस्था का नया हाइब्रिड मॉडल भारत में बना जिसमें क्षत्रिय राजा के साथ ब्राह्मण मंत्रिमण्डल भी होता था और प्रशासन अब पहले सा निरंकुश नहीं रहा।

इसी प्रकार बलराम जी व कृष्ण जी जब रणछोड़ थे तब वे परशुराम के पास आये थे और परशुराम ने दोनों भाइयों को दिव्य शस्त्र और प्रशिक्षण दिया, तब वे लड़े और जीते। मन्यु में अक्रोध तो है ही बढ़ी हुई सहनशीलता + क्षमाशीलता (टॉलरेंस व एंड्यूरेंस) भी है। मतलब यह कि मन्युवान युद्धप्रिय नहीं होते, वे जल्दी भड़कते नहीं। उन्हें उकसाना पड़ता है। मन्यु को परिभाषित करते हुए कुछ विद्वान मन के प्रबुद्ध रूप को ही मन्यु कहते हैं। मन्यु भाव की पूर्ति के लिए प्रेमभाव, मातृभाव, या वात्सल्य आवश्यक है। वात्सल्य भाव के बिना मन्यु क्षीण होकर असहायता और क्रोध जैसी भावनाओं को स्थान दे देगा। अतृप्त, आहत भावनायें जहाँ रहती हैं वहीं विनाश है जैसे अम्ल अपने बर्तन की धातु को भी नष्ट करता है, वैसे ही क्रोध पहले क्रोधित व्यक्ति को हानि पहुँचाता है।

गीता का आरम्भ अर्जुन के विषाद से हुआ है, वह मोहग्रस्त है पर बात अहिंसा, त्याग और वैराग्य की करता है। कृष्ण उसे दिखाते हैं कि उसके मन में अहिंसा नहीं बल्कि मोहजनित विषाद है। उसने पहले भी हिंसा की है और यहाँ से भागकर भी वह जहाँ जाएगा वहाँ हिंसा करेगा। इसके उलट यही वह जगह है जहाँ यदि उसका विवेक जागृत हुआ तो वह विश्वरूप को समझकर बेहतर मानव बनेगा। मन्यु शब्द शायद नहीं आया है यहाँ, परन्तु युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए भी अहिंसा, प्रेम, करुणा, समभाव, अद्रोह आदि पर जोर बार-बार दिया गया है। मेरे प्रिय श्लोक "सुख दुखे समे कृत्वा ..." में कहा गया है कि सुख, विजय, लाभ, यश की कामना के बिना किया गया युद्ध ही पापहीन हो सकता है। मन्यु में अनाचार का प्रतिकार लक्षित है - मगर बड़बोलापन या क्रोध से अधिक यह तेज व ओज के निकट है
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता २- ३८)
आख़िर सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानने वाला किसी से युद्ध करेगा ही क्यों? युद्ध के लिए निकलने वाला पक्ष किसी न किसी तरह के त्वरित या दीर्घकालीन सुख या लाभ की इच्छा तो ज़रूर ही रखेगा। और इसके साथ विजयाकांक्षा होना तो प्रयाण के लिए अवश्यम्भावी है। अन्यथा युद्ध की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। और कुछ न भी हो तो यश या महिमामंडन ही युद्ध का कारण बन जाता है। तब गीता में श्री कृष्ण बिना पाप वाले किस युद्ध की बात करते हैं? यह युद्ध है अन्याय का मुकाबला करने वाला, धर्म की रक्षा के लिए आततायियों से लड़ा जाने वाला वह युद्ध जिसमें क्रोध का तत्व आवश्यक नहीं है। सच यह है कि ऐसे युद्ध अक्रोधी मनुष्यों ने ही लड़े हैं। क्रोध रक्त का अस्थाई उबाल है, जबकि मन्यु मन में न्यायप्रियता की निर्भय अवस्था है।

एक वेदमंत्र का उदाहरण नीचे है। अर्थ अंतर्जाल से ही लिया गया है:
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धर्षिता मरुत्वः |
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः||
(ऋग्वेद 10/84/1 अथर्ववेद 4.31.1)
मरने की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने वाले, हे मन्यु, उत्साह! तेरी सहायता से रथ सहित शत्रु को विनष्ट करते हुए और स्वयं आनन्दित और प्रसन्न चित्त हो कर हमें उपयुक्त शस्त्रास्त्रों से अग्नि के समान तेजस्वी नेतृत्व प्राप्त हो।

मरने की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने वाले मन्यु, स्पष्ट है कि यहाँ मन्यु में जिजीविषा और प्रतिकार की शक्ति की उपस्थिति अवश्य है। ध्यान देने योग्य दूसरी बात है आनन्दित और प्रसन्नचित्त होना। क्रूर लोग क्रोध में विकृत अट्टहास भले लगा लें परंतु आनन्द और प्रसन्नता का क्रोध से विलोम सम्बन्ध है। लेकिन क्या हम साहस और आवेश में अन्तर कर पाते हैं? वीरता और क्रूरता को भिन्न समझते हैं? जिस प्रकार क्षमा और द्वेष साथ रह ही नहीं सकते, उसी प्रकार मन्यु और क्रोध साथ नहीं रह सकते। क्रोध में भावुकता है जबकि मन्यु में भावनात्मक परिपक्वता (इमोशनल इंटैलिजेंस) के साथ दृढ़ता और सहनशीलता है। क्रोध अविवेकी है और उसके कारक विषाद, विभ्रम, भय, अज्ञान या अहंकार हो सकते हैं।

मुझे नहीं लगता कि शास्त्रों में क्रोध के दुर्गुण को कभी इस लायक समझा हो कि किसी के नाम में क्रोध प्रयुक्त हुआ हो। मुझे तो अभी ऐसा कोई खलनायक भी याद नहीं आ रहा जिसके नाम में क्रोध आया हो। यदि आपको कोई नाम याद आये तो अवश्य बतायें। शास्त्रों पर एक नज़र डालने पर मन्युदेव के अतिरिक्त भी ऐसे नाम सामने आते हैं जिनमें मन्यु का प्रयोग हुआ है, युधामन्यु, उपमन्यु और अभिमन्यु।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:।। (श्रीमद्भग्वद्गीता 1-6)
युधामन्यु (अर्थ: युद्ध में मन्यु की भावना) पाण्डवों के पक्ष में लड़ने वाला एक राजा।

उपमन्यु (अर्थ: मन्यु के साथ, मन्यु के निकट) एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि रहे हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में उनका गोत्र आज भी है। शायद अन्य क्षेत्रों और वर्णों में भी हो। वे आयोदधौम्य के शिष्य थे। शब्दकोष के अनुसार उनके नाम का अर्थ बुद्धिमान, मेधावी, उत्साही व उद्यमी है।

अभिमन्यु (अभि=निर्भय) के नाम से ऐसा लगता है जिसमें मेधा, उत्साह, उद्यमी प्रवृत्ति के साथ निर्भयता भी हो।

जहाँ तक मैं समझता हूँ, तेज, बल, वीरता, अक्रोध, सहनशीलता और ओज की सहयोगी शक्ति है मन्यु। मन्यु में दूसरों की मामूली भूलों से अविचलित रहने की भावना है। इसमें अन्याय के प्रतिकार का भाव तो है ही परंतु प्रतिकार पापी का नहीं पाप का है। इस पवित्र और ग्राह्य गुण में चिड़ियों से बाज़ तुड़ाने की क्षमता तो है पर चिड़ियों को बाज़ जैसा हिंसक या क्रूर बनाने का भाव कतई नहीं है। इसमें सहनशीलता और सहिष्णुता अवश्य है परंतु उसकी सीमायें स्पष्ट हैं। जैसे कि भगवान श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को 100 अपशब्दों तक कुछ नहीं कहा। कोई और होता तो शायद 1 या 10 अपशब्दों में भी आहत हो जाता और क्रोधवश प्रतिकार कर बैठता। क्या पता कोई अन्य होता तो पाँच सौ गालियाँ भी वहीँ छोड़कर चल देता। कोई अन्य चरित्र सारे हालाहल को पी लेता। हर कृत्य के अपने पार्श्व प्रभाव (साइड एफ़ेक्ट) होते लेकिन इतना तय है कि मन्युवान में न केवल सहनशक्ति होती है बल्कि उसे अक्सर अपनी सहनशक्ति की सीमायें भी स्पष्ट होती हैं। एक सीमा तक अन्यायी सुरक्षित भी रह पाता है। यदि शिशुपाल समझदार होता तो अपने अपराध को 100 अपशब्दों से पहले ही पहचानकर पश्चात्ताप करके अपने आगत को टाल भी सकता था। लेकिन वह अपने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी सीमा से आगे निकल गया और अंततः न्याय को प्राप्त हुआ।

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ..." में किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेष या क्रोध न होकर केवल दुष्कृत्यों के (अक्रोधी) विनाश की बात है। यदि दुष्कृत्य करने वाले "मामेकम् शरणम व्रज" का आह्वान सुनकर अपना मार्ग बदल देते हैं तो वे भी "परित्राणाय साधूनाम्" की परिधि के अंतर्गत ही आयेंगे। हमने देखा कि जिस मन्यु को कभी ग़लती से और कभी सटीक तुलना या समानार्थी शब्द के अभाव में सात्विक क्रोध कह दिया जाता है उस दैवी गुण में क्रोध, द्वेष या द्रोह जैसे अवगुण बिल्कुल नहीं है। क्रोध अगर नंगी तलवार है तो मन्यु कवच और ढाल के साथ वह जंज़ीर है जो तलवार को लपेटकर छीनने की ताकत रखती है परंतु न आसानी से आहत होती है न अपने स्वार्थ के लिये रक्तपात करती है।

महानायक रामचंद्र पांडुरंग योलेकर* के वंशज डॉ राजेश टोपे के साथ अनुराग
मन्यु में क्या है?
बल, सहनशक्ति, अन्याय का प्रतिकार, संतत्व से प्रेम, उदारता, दया, करुणा, वात्सल्य, अहंकार का अभाव, उत्साह, मेधा

मन्यु के सहयोगी क्या हैं
बल, तेज, वीरता, ओज, सहनशक्ति, सत्यनिष्ठा, जनकल्याण की भावना

मन्यु के विरोधी क्या हैं
आवेश, अहंकार, नियंत्रण, स्वार्थ, संकीर्णता, क्रोध, शारीरिक या मानसिक कमज़ोरी, भावुकता, अकारण आहत होना, बड़बोलापन

आइये मिलकर द्वेष व क्रोध जैसी कमज़ोरियों को त्यागकर ऐसे छः सद्गुणों की कामना करें जो हमें जीवनी शक्ति तो दें ही, समाज के लिये भी लाभकारी हों:
ॐ तेजोSसि तेजम् मयि देहि। वीर्यमसि वीर्यं मयि देहि। बलंसि बलम् मयि देहि।
मन्युरसि मन्युं मयि देहि। ओजोSसि ओजोमयि देहि। सहोSसि सहोमयि देहि।
(यजुर्वेद 19:9)
रामचंद्र पांडुरंग योलेकर* = तात्या टोपे

अगली कड़ी में देखिये
[क्रोध कायरता है, मन्यु शक्ति है - सारांश]


========================
सम्बन्धित कड़ियाँ
========================
* मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अखंड ज्योति
* मन्यु का महत्व
* मन्यु - सुबोध कुमार
* करें मन्यु से कलुष निवारण (सुमित्रानंदन पंत)
* तिरंगा (डॉ. कविता वाचक्नवी)
* मैं मन्यु लिखता हूं - दिनकर
* कर्म से असुर (स्वामी चक्रपाणि)
* नायकत्व क्या है?

Sunday, November 6, 2011

क्रोध पाप का मूल है ...

काम क्रोध मद लोभ की, जब लौ मन में खान।
तब लौ पण्डित मूर्खौ, तुलसी एक समान॥
~ तुलसीदास
त्स्कूबा में एक समुराई वीर
भाई मनोज भारती की चार पुरुषार्थों पर सुन्दर पोस्ट पढी। उन्होंने शास्त्रों में वर्णित चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का विस्तार से ज़िक्र किया। सन्दर्भ में काम, क्रोध आदि दोषों की बात भी सामने आयी। उससे पहले पिछले दिनों क्रोध एवम अन्य दुर्गुणों पर ही शिल्पा मेहता की तीन प्रविष्टियाँ  दिखाई दीं। इन स्थानों पर जहाँ क्रोध के दुष्परिणामों की बात कही गयी है वहीं एक बिल्कुल अलग ब्लॉग पर लिखी प्रविष्टियों और टिप्पणियों में क्रोध का बाकायदा महिमामण्डन किया गया है। सच यह है कि क्रोध सदा विनाशक ही होता है। क्रोध जहाँ फेंका जाये उसकी तो हानि करता ही है, जिस बर्तन में रहता है उसे भी छीलता रहता है। इसी विषय पर स्वामी बुधानन्द की शिक्षाओं पर आधारित मानसिक हलचल की एक पुराने आलेख में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने क्रोध से बचने या उसपर नियंत्रण पाने के उपायों का सरल वर्णन किया है।
दैव संशयी गांठ न छूटै, काम-क्रोध माया मद मत्सर, इन पाँचहु मिल लूटै। ~ रविदास
भारतीय संस्कृति में जहाँ धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ काम्य हैं, उसी प्रकार बहुत से मौलिक पाप भी परिभाषित हैं। कहीं 4, कहीं 5, कहीं 9, संख्या भिन्न हो सकती है लेकिन फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, यह चार दुर्गुण सदा ही पाप की सूची में निर्विवाद रहे हैं।

वांछनीय = चार पुरुषार्थ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
अवांछनीय = चार पाप = काम, क्रोध, लोभ, मोह

क्रोध, लोभ, मोह जैसे दुर्गुणों के विपरीत कामना अच्छी, बुरी दोनों ही हो सकती है। जीते-जी क्रोध, लोभ, और मोह जैसे दुर्गुणों से बचा जा सकता है परंतु कामना से पीछा छुड़ाना कठिन है, कामना समाप्त तो जीवन समाप्त। इसलिये सत्पुरुष अपनी कामना को जनहितकारी बनाते हैं। जहाँ हम अपनी कामना से प्रेरित होते हैं, वहीं संत/भक्त प्रभु की कामना से - जगत-हितार्थ। बहुत से संत तब आत्मत्याग कर देते हैं जब उन्हें लगता है कि या तो उद्देश्य पूरा हुआ या समय। इसलिये काम अवांछनीय व काम्य दोनों ही सूचियों में स्थान पाता रहा है।
लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल।
जेहिबस जन अनुचित करहिं चलहिं विश्व प्रतिकूल॥
~ तुलसीदास
गीता के अनुसार रजोगुणी व्यक्तित्व की अतृप्त अभिलाषा 'क्रोध' बन जाती है। गीता में ही क्रोध, अहंकार, और द्रोह को अवांछनीय बताया गया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भी क्रोध हमारे आंतरिक शत्रुओं में से एक है। ॠग्वेद में असंयम, क्रोध, धूर्तता, चौर कर्म, हत्या, प्रमाद, नशा, द्यूतक्रीड़ा आदि को पाप के रुप में माना गया है और इन सबको दूर करने के लिए देवताओं का आह्वान किया गया है। ईसाइयत में भी क्रोध को सात प्रमुख पापों में गिना गया है। मनुस्मृति के अनुसार धर्म के दस मूल लक्षणों में एक "अक्रोध" है। धम्मपद की शिक्षा अक्रोध से क्रोध को, भलाई से दुष्टता को, दान से कृपणता को और सत्य से झूठ को जीतने की है। संत कबीर ने क्रोध के मूल में अहंकार को माना है।
कोटि करम लोग रहै, एक क्रोध की लार।
किया कराया सब गया, जब आया हंकार॥
~ कबीरदास
क्रोध के विषय में एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अक्रोध के साथ किसी आततायी का विवेकपूर्ण और द्वेषरहित प्रतिरोध करना क्रोध नहीं है। इसी प्रकार भय, प्रलोभन अथवा अन्य किसी कारण से उस समय क्रोध को येन-केन दबा या छिपाकर शांत रहने का प्रयास करना अक्रोध की श्रेणी में नहीं आएगा। स्वयं की इच्छा पूर्ति में बाधा पड़ने के कारण जो विवेकहीन क्रोध आता है वह अधर्म है। अत: जीवन में अक्रोध का अभ्यास करते समय इस अत्यंत महत्वपूर्ण अंतर को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। अंतर बहुत महीन है इसलिये हमें अक्सर भ्रम हो जाते हैं। क्रोध शक्तिहीनता का परिचायक है, वह कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
क्रोध पाप ही नहीं, पाप का मूल है। अक्रोध पुण्य है, धर्म है, वरेण्य है। ~भालचन्द्र सेठिया
क्रोध एवम क्षमा का तो 36 का आंकड़ा है। क्रोधजनित व्यक्ति के हृदय में क्षमा का भाव नहीं आ सकता। बल्कि अक्रोध और क्षमा में भी बारीक अंतर है। अक्रोध में क्रोध का अभाव है अन्याय के प्रतिकार का नहीं। अक्रोध होते हुए भी हम अन्याय को होने से रोक सकते हैं। निर्बलता की स्थिति में रोक न भी सकें, प्रतिरोध तो उत्पन्न कर ही सकते हैं। जबकि क्षमाशीलता में अन्याय कर चुके व्यक्ति को स्वीकारोक्ति, पश्चात्ताप, संताप या किसी अन्य समुचित कारण से दण्ड से मुक्त करने की भावना है। क्रोध ही पालने और बढावा देने पर द्रोह के रूप में बढता जाता है।
जहां क्रोध तहं काल है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां दया तहं धर्म है, जहां क्षमा तहं आप॥
~कबीरदास
आत्मावलोकन और अनुशासन के बिना हम इन भावनात्मक कमज़ोरियों पर काबू नहीं पा सकते हैं। भावनात्मक परिपक्वता और चारित्रिक दृढता क्रोध पर नियंत्रण पाने में सहायक सिद्ध होती हैं। लेकिन कई बार इन से पार पाना असम्भव सा लगता है। ऐसी स्थिति में प्रोफ़ेशनल सहायता आवश्यक हो जाती है। ज़रूरत है कि समय रहते समस्या की गम्भीरता को पहचाना जाये और उसके दुष्प्रभाव से बचा जाये। क्या आप समझते हैं कि क्रोध कभी अच्छा भी हो सकता है? यदि हाँ तो क्या आपको अपने जीवन से या इतिहास से ऐसा कोई उदाहरण याद आता है जहाँ क्रोध विनाशकारी नहीं था? अवश्य बताइये। साथ ही ऐसे उदाहरण भी दीजिये जहाँ क्रोध न होता तो विनाश को टाला जा सकता था। धन्यवाद!
क्रोध की उत्पत्ति मूर्खता से होती है और समाप्ति लज्जा पर ~पाइथागोरस


अगली कड़ी में देखिये
[मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अक्रोध की मांग]



[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Samurai face captured by Anurag Sharma]
========================
सम्बन्धित कड़ियाँ
========================
* पुरुषार्थ - गूंजअनुगूंज (मनोज भारती)
* ज्वालामुखी - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध और पश्चाताप - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें? - ज्ञानदत्त पाण्डेय
* गुस्सा - डॉ. महेश शर्मा
* पाप का मूल है क्रोध - भालचन्द्र सेठिया
* क्रोध का दुर्गुण - कृष्णकांत वैदिक
* क्रोध आग और निंदा धुआँ - दीपक भारतदीप
* क्रोध से नुकसान - प्रयास
* anger
* क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात

Friday, November 4, 2011

काली गिलहरी - इस्पात नगरी से 51

वाशिंगटन डीसी की गिलहरी
रामसेतु के निर्माण में वानर-भालू मिलकर जुटे थे। मगर उसमें एक छोटी गिलहरी का भी योगदान था। इतना महत्वपूर्ण योगदान कि श्रीराम ने उसे अपनी हथेली पर उठाकर सहलाया। वह भी इस प्रकार कि उनकी उंगलियों से बनी धारियां आज तक गिलहरी की संतति की पीठ पर देखी जा सकती हैं।

अब कहानी है तो विश्वास करने वाले भी होंगे। विश्वास करने वाले हैं तो कन्सपाइरेसी सिद्धांतों वाले भी होंगे। भाई साहब कहने लगे कि बाकी गिलहरियों का क्या? मतलब यह कि जो गिलहरियाँ उस समय सेतु बनाने नहीं पहुँचीं उनके बच्चों की पीठ के बारे में क्या? सवाल कोई मुश्किल नहीं है। उत्तरी अमेरिका में अब तक जितनी गिलहरियाँ देखीं, उनमें किसी की पीठ पर भी रेखायें नहीं थीं। न मानने वालों के लिये तीन सबूत उपस्थित हैं, डीसी, पिट्सबर्ग व मॉंट्रीयल से।

पैनसिल्वेनिया की गिलहरी

कैनैडा की गिलहरी

बात यहीं खत्म हो जाती तो भी कोई बात नहीं थी मगर वह बात ही क्या जो असानी से खत्म भी हो जाये और फिर भी इस ब्लॉग पर जगह पाये। पिछले दिनों मैंने पहली बार एक पूर्णतः काली गिलहरी देखी। आश्चर्य, उत्सुकता और प्रसन्नता सभी भावनायें एक साथ आयीं। जानकारी की इच्छा थी, पता लगा कि यह कृष्णकाय गिलहरियाँ मुख्यतः अमेरिका के मध्यवर्ती भाग में पायी जाती हैं लेकिन उत्तरपूर्व अमेरिका और कैनेडा में भी देखी जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि यूरोपीयों के आगमन से पहले यहाँ काली गिलहरियाँ बहुतायत में थीं। घने जंगल उनके छिपने के लिये उपयुक्त थे। समय के साथ वन कटते गये और पर्यावरण भूरी गिलहरियों के पक्ष में बदलने लगा। और अब उन्हीं का बहुमत है।







[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Squirrels as captured by Anurag Sharma]
==========================================
सम्बन्धित कड़ियाँ
==========================================
* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ