Tuesday, January 27, 2009

जावेद मामू - कहानी

मैं स्टेशन पर बैठा हुआ झुंझला रहा था। रेल अपने नियत समय से पूरे दो घंटे लेट थी। देसाई जी की बात सही है कि आम भारतीय ट्रेनों की लेटलतीफी से इतना त्रस्त रहता है कि आपातकाल में रेल को वक़्त पर चलाने के बदले में अपनी आजादी गिरवी रखकर भी खुश था। रेल के आते ही मेरा गुस्सा और झुंझलाहट दोनों हवा हो गए। दौड़कर अपना डिब्बा ढूंढा और सीट पर कब्ज़ा कर के बैठ गया। मैं बहुत खुश था। खुश होने की वजह भी थी। इतने लंबे अंतराल के बाद बरेली जो जा रहा था। पूरे तीस साल और तीन महीने बाद अपना बरेली फिर से देखने को मिलेगा। न जाने कैसा होगा मेरा शहर। वक़्त की आंधी ने शायद अब तक सब कुछ उलट-पुलट कर दिया हो। जो भी हो बरेली का अनूठापन तो कभी भी खो नहीं सकता। किसी शायर ने कहा भी है:

हिन्दुस्तान का दिल है दिल्ली, और दिल्ली का दिल बरेली

आज मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ और जहाँ भी हूँ, उसमें बरेली का बहुत बड़ा हाथ है। मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा वहाँ बीता है। जैसा कि सभी लोग लोग जानते-समझते हैं, हिन्दुस्तान की जनसंख्या मुख्यतः हिन्दू है। लेकिन बरेली वाले जानते हैं कि हमारे शहर में हिन्दुओं से ज़्यादह मुसलमान बसते हैं। हमारे मुहल्ले में सिर्फ़ हमारी गली हिन्दुओं की थी। बाकी तो सब मुसलमान ही थे। कुछेक मामूली फर्क के अलावा बरेली के हिन्दू और मुसलमान में कोई ख़ास अन्तर न था। वे सदियों से एक दूसरे के साथ रहते आए थे और 1857 में उन्होंने एक साथ मिलकर एक साल तक बरेली को अंग्रेजों से आजाद रखा था। नगर के 'लक्ष्मीनारायण मन्दिर' को लोग आज भी "चुन्ना मियाँ का मन्दिर" कहकर ही बुलाते हैं। हमारे इलाके में बस एक हमारा मन्दिर था बाकी सब तरफ़ मस्जिदें ही दिखती थी। हमारे दिन की शुरूआत अजान के स्वरों के साथ ही होती थी। मुहर्रम के दिनों में हम भी दोस्तों के साथ हर तरफ़ लकडी के विशालकाय ताजियों के जुलूस देखने जाया करते थे। कहते हैं कि बरेली जैसे विशाल और शानदार ताजिये दुनिया भर में कहीं नहीं होते। होली-दीवाली वे हमारे घर आकर गुझियाँ खाते, पटाखे छोड़ते, रंग लगवाते, और मोर्चे लड़ते थे। ईद पर वे मेरे लिए सेवइयाँ भी लाते थे।

सच तो यह है कि एक परम्परागत ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर भी मुझे वर्षों तक हिन्दू-मुसलमान का अन्तर पता नहीं था। काश! मेरा वह अज्ञान आज भी बना रहता तो कितना अच्छा होता। हमारे घर में दाल-चावल जावेद हुसैन की दुकान से आता था और सब्जी-फल आदि बाबू खान के यहाँ से। आटा नसीम की चक्की पर पिसता था और मेरी पतंगें नफीस की दुकान से आती थीं। हमारा नाई भी मुसलमान था और दर्जी भी। हमारा पहला रेडियो भी बिजली वाले तनवीर अहमद की दुकान से आया था और वह सारे भजन के रिकॉर्ड भी जिन्हें सुन-सुनकर मैं बड़ा हुआ।

मेरे आस-पास बिखरे भाँति-भाँति के लोगों में जावेद हुसैन एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने मेरे बालमन को बहुत प्रभावित किया। वे मेरे मामा जी के मित्र थे इसलिए मैं उन्हें मामू कहता था। हमारे घर के सामने ही उनकी परचूनी की दुकान थी। मैं लगभग रोज़ ही सामान की पर्ची लेकर उनकी दुकान पर जाता था और घर-ज़रूरत का सामान लाया करता था। उनके अन्य ग्राहकों के विपरीत मुझे किसी चीज़ का भाव पूछने की आवश्यकता न थी क्योंकि हमारा हिसाब महीने के अंत में होता था। उनकी दुकान में मेरा समय सामान लेने से ज़्यादा उनसे बातचीत करने में और अपने से बिल्कुल भिन्न उनके दूसरे ग्राहकों की जीवन-शैली देखने-समझने में बीतता था। उनकी दुकान वह स्थल था जहाँ मैं अपने मुस्लिम पड़ोसियों को नज़दीक से देखता था।

वे सभी गरीब थे। उनमें से अधिकाँश तो इतने गरीब थे कि आपमें से बहुत से लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उनके कपड़े अक्सर गंदे और फटे हुए होते थे। आदमी और लड़के तो आमतौर पर सिर्फ़ उतने ही कपड़े पहनते थे जिनसे शरीर का कुछ ज़रूरी भाग ढँक भर जाए। लड़कियों की दशा भी कोई ख़ास बेहतर नहीं होती थी। हाँ, औरतें ज़रूर नख-शिख तक काले या सफ़ेद बुर्के से ढँकी होती थीं। तब मुझे यह देखकर भी आश्चर्य होता था कि अधिकाँश बच्चों का सर घुटा हुआ होता था। इसी कारण से वे बच्चे अक्सर एक दूसरे को 'अबे गंजे' कहकर भी बुलाते थे। अब मैं जानता हूँ कि उनके सर घुटाकर उनके माता-पिता बार-बार बाल कटाने के कष्ट से बच जाते थे और गंजा सर उन बच्चों को थोडा साफ़ भी रखता था जिनके लिए नहाना भी किसी विलास से कम नहीं था। जो भी हो वे सभी बच्चे मेरी तरह गंभीर और नीरस न होकर बड़े ही खुशमिजाज़, जीवंत और रोचक थे।

मुझे घर में कोई पालतू जानवर रखने की आज्ञा नहीं थी। इसके कई कारण दिए जाते थे। एक तो इससे उस पशु-पक्षी की स्वतन्त्रता का हनन होता था। दूसरे यह कि अधिकाँश पालतू पशु-पक्षी घर में आने लायक शुद्ध भी नहीं माने जाते थे। इस नियम के कुछ अपवाद भी थे। हमारी एक मौसी के घर में एक सुंदर, बड़ा सा तोता था जो सभी आने-जाने वालों को जय राम जी की कहता था। कुछ रिश्तेदारों के घर में कुत्ते भी पले थे। बाद में कुछ बड़ा होने पर मैंने जाना कि तोता और कुत्ता दोनों ही प्रकृति से अहिंसक माने जाते थे और यह दोनों ही पूर्ण शाकाहारी भोजन पर बहुत अच्छी तरह पल जाते थे। मुझे याद है कि मौसी के तोते को मेरे हाथ से अमरुद और हरी मिर्च खाना बहुत पसंद था। मगर मेरे मुसलमान पड़ोसियों के पास गज़ब के पालतू जानवर थे। रंग बिरंगे बज्रीगर से लेकर बड़े-बड़े कछुए तक, जो भी जानवर आप सोच सकते हैं वे सभी उनके पास थे। और अक्सर मैं बड़ों की निगाह बचाकर उन जानवरों के साथ खेल भी लेता था।

जावेद मामू दो अखबार मंगाते थे, एक हिन्दी का और दूसरा उर्दू का। हिन्दी समाचार पढ़ते समय जब भी उनके सामने कोई नया या कठिन शब्द आ जाता तो वे मुझसे ही सहायता मांगते थे।
[अगला भाग]

16 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, अगली कड़ी के इंतिज़ार में!


    ---आपका हार्दिक स्वागत है
    गुलाबी कोंपलें

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  2. बहुत ही बढ़िया कहानी जो भाई चारा स्थापित करने का संदेश देती है . बधाई

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  3. सुंदर कहानी. आभार. काई जगह वाक्य और शब्द दो दो या तीन तीन बार रिपीट हो गये हैं. कृपया एक बार जाँच कर सुधार लें.

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  4. अनुराग भाई,

    अब तक ये कहानी बहुत ही अच्छी लगी ...कहानी की ये पंक्तियाँ दिल को छु गयीं


    सच तो यह है कि एक परम्परागत ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर भी मुझे वर्षों तक हिन्दू-मुसलमान का अन्तर पता नहीं था। काश! मेरा वह अज्ञान आज भी बना रहता तो कितना अच्छा होता।

    कहानी के दूसरे भाग का बड़ी ही बेसब्री से इंतजार रहेगा !!!!!!!!!!!!

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  5. अगली कड़ी का इंतजार है।

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  6. पढकर अच्छा लगा। पढते पढते यह सोच रहा था कि कैसी होगी उस वक्त की बरेली। तस्वीर बनाने की कोशिश कर रहा हूँ। अगली कड़ी का इंतजार।

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  7. अब तक ये कहानी बहुत ही अच्छी लगी !!

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  8. @PN Subramanian जी,
    आपकी बात सही है. ब्लोगर ने यह पोस्ट लिखने में मुझे बहुत तकलीफ दी और जगह जगह या तो शब्द रोमन में लिखी रह जा रहे थे या फ़िर डुप्लीकेट हो जा रहे थे. थोड़ा-थोड़ा करके अभी ठीक कर दिया है. सूक्ष्म अवलोकन और ध्यान दिलाने का धन्यवाद.

    @सुशील कुमार छौक्कर जी,
    अब बरेली के बारे में क्या कहूं? चाहे वहाँ का सुरमा हो, या झुमका, जितने लोकगीत और फिल्मी गीतों में बरेली आया है शायद ही कोई शहर आया हो. बरेली के अभयपुर गाँव में भारत के इतिहास में सबसे पुराने सुरक्षित कंकाल (११०० ईसा पूर्व) मिले हैं जो उत्तर पांचाल के इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता को भी सिद्ध करते हैं.

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  9. अगली कड़ी के इंतिज़ार में

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  10. आपकी बरेली का नाम पहले तो साधना जी के ठुमके लगाकर गाते हुए ही सुना था :)
    "झुमका गिरा रे...बरेली के बाज़ार मेँ " और आज इत्ते सारे नये दोस्तोँ और प्राणियँ से मिलवा दिया ..हम भी उन तोता राम की तरह कहे देते हैँ " जय राम जी की "
    - लावण्या

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  11. अनुराग जी,
    बहुत ही अच्छी लगी कहानी. आपकी इस कहानी 'जावेद मामू' ने तो मुझे भी बरेली शहर की याद दिला दी जहाँ मुझे भी कुछ बार जाने का मौका मिला था. 'कुछ बार' इसलिए कि हम बेटियों को कहीं भी अकेले जाने या अधिक घूमने- फिरने की इजाजत नहीं थी. अपने बचपन की यादों का इतना अच्छा विवरण दिया है आपने - बाजार की चहल-पहल और बच्चों के जमघट आदि की कि सारा चित्र आंखों के आगे आ रहा है वहां का. मैं जब-जब गई हूँ भारत तो बरेली से ही होकर जाना पड़ता है अपने मायके. और इस समय आप की कहानी ने मुझे बरेली वाले दीनानाथ की स्वादिष्ट मोटी सी मलाई और पिस्ता पड़ी लस्सी याद दिला दी है. जो बरेली में रूककर पीती थी. स्वाद भी याद रहा है. लेकिन उनकी लस्सी अब हर बार पतली होती जाती है, और मलाई की मात्रा भी करीब-करीब नहीं के बराबर हो गई है. आपकी बचपन के मीठे अनुभव की कहानी से वोह मीठी लस्सी की यादें भी ताज़ा हो गईं हैं. कहानी व लस्सी की याद दोनों के लिए धन्यबाद.

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  12. अनुराग जी,
    बहुत ही अच्छी लगी कहानी. आपकी इस कहानी 'जावेद मामू' ने तो मुझे भी बरेली शहर की याद दिला दी जहाँ मुझे भी कुछ बार जाने का मौका मिला था. 'कुछ बार' इसलिए कि हम बेटियों को कहीं भी अकेले जाने या अधिक घूमने- फिरने की इजाजत नहीं थी. अपने बचपन की यादों का इतना अच्छा विवरण दिया है आपने - बाजार की चहल-पहल और बच्चों के जमघट आदि की कि सारा चित्र आंखों के आगे आ रहा है वहां का. मैं जब-जब गई हूँ भारत तो बरेली से ही होकर जाना पड़ता है अपने मायके. और इस समय आप की कहानी ने मुझे बरेली वाले दीनानाथ की स्वादिष्ट मोटी सी मलाई और पिस्ता पड़ी लस्सी याद दिला दी है. जो बरेली में रूककर पीती थी. स्वाद भी याद रहा है. लेकिन उनकी लस्सी अब हर बार पतली होती जाती है, और मलाई की मात्रा भी करीब-करीब नहीं के बराबर हो गई है. आपकी बचपन के मीठे अनुभव की कहानी से वोह मीठी लस्सी की यादें भी ताज़ा हो गईं हैं. कहानी व लस्सी की याद दोनों के लिए धन्यबाद.

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  13. अनुराग जी,
    बहुत ही अच्छी लगी कहानी. आपकी इस कहानी 'जावेद मामू' ने तो मुझे भी बरेली शहर की याद दिला दी जहाँ मुझे भी कुछ बार जाने का मौका मिला था. 'कुछ बार' इसलिए कि हम बेटियों को कहीं भी अकेले जाने या अधिक घूमने- फिरने की इजाजत नहीं थी. अपने बचपन की यादों का इतना अच्छा विवरण दिया है आपने - बाजार की चहल-पहल और बच्चों के जमघट आदि की कि सारा चित्र आंखों के आगे आ रहा है वहां का. मैं जब-जब गई हूँ भारत तो बरेली से ही होकर जाना पड़ता है अपने मायके. और इस समय आप की कहानी ने मुझे बरेली वाले दीनानाथ की स्वादिष्ट मोटी सी मलाई और पिस्ता पड़ी लस्सी याद दिला दी है. जो बरेली में रूककर पीती थी. स्वाद भी याद रहा है. लेकिन उनकी लस्सी अब हर बार पतली होती जाती है, और मलाई की मात्रा भी करीब-करीब नहीं के बराबर हो गई है. आपकी बचपन के मीठे अनुभव की कहानी से वोह मीठी लस्सी की यादें भी ताज़ा हो गईं हैं. कहानी व लस्सी की याद दोनों के लिए धन्यबाद.

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  14. अच्छा लगा पढ़ना......

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  15. रोचक, अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा.

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