“कल्लर नहीं रहा!"
राजेश का फ़ोन था। वह हमेशा कम शब्दों में बात करता है, वैसे ही बिना किसी भूमिका के बोला। कल्लर मेरा और राजेश का सहकर्मी था। राजेश को हिन्दी बहुत अच्छी तरह नहीं आती है। इसलिए मुझे लगा कि शायद वह कल्लर के नौकरी छोड़ने की बात कर रहा है। यह तो मुझे पहले से ही पता था कि कल्लर यह नौकरी छोड़कर एक विदेशी बैंक में चला गया था।
"वह नौकरी छोड़ कर दिल्ली गया है, मुझे पता है" मैंने कहा।
"नहीं, कल्लर इस नो मोर अलाइव। ही इज डैड। उसको आतंकवादियों ने मार दिया।"
"दिल्ली में कौन से आतंकवादी हैं?" मैंने पूछा। दिल राजेश की बात पर यकीन करने को तैयार ही न था।
"उसको कश्मीर में मारा है, मैं लंच में तेरे दफ्तर आ रहा हूँ, सब बताता हूँ" राजेश ने मानो मेरे अविश्वास को पढ़ लिया था।
मेरा दिल राजेश की बात मानने को बिल्कुल तैयार नहीं था। वैसे भी कल्लर के कश्मीर जाने की कोई वजह नहीं थी। कुछ ही दिन पहले तो वह अपनी नई नौकरी के लिए दिल्ली गया था - इतनी जल्दी यह सब। और फ़िर भगवान् भी तो हैं। क्या वह कुछ नहीं देखते? राजेश को ज़रूर कोई गलतफहमी हुई है।
हम तीनों ने ही यह नौकरी सौ के लगभग युवाओं के साथ बंगलोर में एक ही दिन शुरू की थी। लगभग एक महीने का प्रशिक्षण लिया और फ़िर उसके बाद सब देश भर में अलग-अलग शाखाओं में बिखर गए। कल्लर को पहली बार वहीं देखा था। टी ब्रेक में और कभी उसके बिना भी वह और कुछ और लड़के धूम्रपान के लिए कक्ष से बाहर आकर खड़े हो जाते थे। एक दिन मैंने उसे लैशिवॉन को समझाते हुए सुना, "सिगरेट पीने से लड़कियों पर बहुत अच्छा इम्प्रेशन पड़ता है।" उसके विचार, दोस्त, प्राथमिकताएं, पृष्ठभूमि, सभी कुछ मुझसे एकदम मुख्तलिफ थे। हम दोनों में दोस्ती होने की कोई संभावना नहीं थी। हाँ, दुआ-सलाम ज़रूर होती थी, वह तो सबसे ही होती थी।
प्रशिक्षण के दौरान जिन दो-तीन लोगों से मेरी मित्रता हुई, राजेश उनमें से एक था। उम्र में मुझसे काफी बड़े राजेश को इस नौकरी में आरक्षण का लाभ मिला था वरना शायद वह आयु सीमा से बाहर होता। मैं उस बैच का सबसे छोटा अधिकारी था। कुछ ही दिनों के साथ में मैंने राजेश की प्राकृतिक सदाशयता को पहचान लिया और हम लोग मित्र बन गए।
जान-पहचान बढ़ने पर पता लगा कि वह झारखंड के आदिवासी अंचल से था, मिशनरी स्कूलों में पढा था। जनसेवा का जज्बा बचपन से ही दिल में था इसलिए पादरी बनकर दबे कुचले आदिवासियों की सेवा को ही लक्ष्य बनाकर एक धार्मिक संस्था से जुड़ गया। उसका हर कदम पादरी बनने की दिशा में ही चला। पश्चिमी अध्यात्म, मसीही चंगाई आदि में शिक्षा चलती रही। अविवाहित रहने का संकल्प लिया। अपने बैंक खाते बंद करके कोई निजी धन न रखने की चर्च की बंदिश को माना। सारा भारत घूमा और समय आने पर उसने आदिवासी क्षेत्रों में चल रहे मिशनरी स्कूलों में प्राचार्य का काम भी किया। वह अपनी संस्था में जितना अधिक आगे बढ़ता गया, उसका परोपकारी मन उतना ही घुटने लगा। अपने देशी और विदेशी वरिष्ठ अधिकारियों के मन, वचन और कर्म में उसे बड़े विरोधाभास दिखने लगे। उसके किसी भी सुझाव को माना नहीं जाता था। यहाँ तक कि उसकी कई बातों को तो विधर्मी का ठप्पा लगाने की कोशिश भी की गयी। बिना बैंक-खाते वाले लोगों को उसने दान के धन पर हर तरह का भोग-विलास करते पाया और अविवाहित रहने का प्रण करने वालों को कामना के वशीभूत होते भी देखा।
जनोत्थान की उसकी जिद ने संस्था के अन्दर न सिर्फ़ अलोकप्रिय ही बनाया बल्कि बाद के दिनों में चर्च के लेखांकन में हुई कई छेड़छाड़ उस पर थोपी गयीं। जब पुराने अभिलेखागार में शोर्ट-सर्किट से लगी मामूली सी आग का ज़िम्मा भी उस पर लादकर पुलिस में रपट लिखायी गयी तो उसने उस संस्था से बाहर आने का मन बना लिया। नौकरी के लिए उम्र निकल चुकी थी और अपने नाम से जेब में एक धेला भी न था। ऐसे में उसने अपनी शिक्षा और आदिवासी प्रमाणपत्र का उपयोग कर के यह परीक्षा दी और चुनकर हम सबके साथ प्रशिक्षण के लिए आ गया।
[क्रमशः]